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इस काम में जान का ख़तरा भी है और कमाई भी कुछ ख़ास नहीं…

TwoCircles.net News Desk

नई दिल्ली : दिल्ली शहर की घनी आबादी के बीच ओखला के एक कमरे के घर में 25 साल का रंजीत अपने मां-बाप पत्नी और एक बेटी के साथ रहता है. उसकी शादी को दो साल हुए हैं. वह उन लोगों में से एक है, जो जीवित रहने के लिए सेप्टिक टैंकों में जाने को मजबूर है.

रंजीत ने ये काम अपने पिता से सीखा है, जो लंबे समय से बीमार हैं. वह रोज़ सबुह फ़ोन आने की प्रतिक्षा करता है, ताकि काम के लिए घर से निकल सकें. उसका किसी भी निजी संगठन से संबद्ध नहीं है, लेकिन उसके द्वारा किए गए काम के कारण उसे काम मिलता रहता है.

रंजीत के अनुसार “सरकारी सीवर लाइन को साफ़ करने में ज्यादा पैसे नहीं मिलते हैं. दो या तीन लोग एक टैंक को साफ़ करते हैं.”

सफ़ाई करने वाला एक अन्य कर्मचारी पांचवीं कक्षा तक पढ़ा है, कहता है कि “कुछ नियमित परिवार हैं, जो मुझे बुलाते हैं.”

उनके मुताबिक़, एक टैंक को साफ़ करने में लगभग 6 से 7 घंटे लगते हैं. ख़ासकर अगर यह लम्बे समय से साफ़ नहीं किया गया है. इस टैंक के अंदर सांप-बिच्छू छिपे रहने का डर अलग है. मजदूरी कहीं भी 1000-1200 के बीच होती है, जिसे तीन लोगों के बीच विभाजित किया जाता है.”

रंजीत कहते हैं, मेरे पिता गंध को सहन करने के लिए शराब का इस्तेमाल करते थे. क्योंकि ये शराब आपको टैंक से आने वाली ख़तरनाक गैसों से बचाता है, इसलिए ये ज़रुरी है.

रंजीत का कहना है कि, चूंकि इस प्रकार का काम हर रोज़ नहीं आता है, इसलिए मैं जैसे कार धोने या कहीं भी किसी भी तरह से सफ़ाई करने का काम भी कर लेता हूं. इस तरह से महीने में लगभग 5-6 हज़ार रूपये की ही कमाई होती है, जो कि मेरे परिवार की देखभाल के लिए पर्याप्त नहीं है.

वो कहता है, मेरी एक साल की एक बेटी है. मेरी मां भी दूसरे घरों में काम करती है ताकि घर का खर्च पूरा हो सके.

आंखों में आंसू लिए रंजीत की पत्नी कहती है, जब मेरी शादी हुई तो शुरु-शुरु में बहुत समस्या होती थी. ऐसा लगता था कि पूरे घर से गंदी गंध आ रही है. मैं हर रोज़ घर की पूरी सफ़ाई करती हूं. पति काम से लौटते ही नहाते हैं, फिर भी सोचती हूं कि काश इस काम से छुटकारा मिल जाए. अभी तो बेटी बहुत छोटी है जब वो बड़ी हो जाएगी तो पिता का काम देखकर न जाने क्या सोचे, इस बात की चिंता सताती है. ऊपर से इस काम के कारण स्वास्थ्य पर जो बुरा असर पड़ रहा है वो अलग. जान का ख़तरा भी तो है और कमाई कुछ ख़ास नहीं.

सिर्फ़ पत्नी ही नहीं बल्कि रंजीत खुद भी अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंता में है, क्योंकि इस काम के कारण टीबी या पीलिया जैसी बीमारी होना बहुत आम बात है.

क्या आप सफ़ाई कर्मचारी और ड्राईलॉट्रीन्स के निर्माण (निषेध अधिनियम, 1993) के बारे में जानते हैं, जिसे 2003 में सेप्टिक टैंक और सीवर लाइनों में काम करने वाले लोगों को कवर करने के लिए बढ़ा दिया गया था? इस सवाल के जवाब में वह अपना सिर हिलाता है “कोई बात नहीं. हमें कोई अन्य नौकरी नहीं देगा हम शापित हैं. हम यहां हमारे घरों में एक शौचालय नहीं ले सकते, लेकिन दूसरों की गंदगी को साफ़ करना किस्मत में है.”

हालांकि सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के प्रमुख बेज़वाडा विल्सन कहते हैं “दुर्भाग्य से, सरकारी अधिकारियों के बीच भी सफ़ाई कर्मचारियों की सुरक्षा और रोज़गार के बारे में कोई जागरूकता नहीं है. तो फिर ये कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि निजी रुप से इस काम को करने वाले को इस बारे में पता होगा?”

बताते चलें कि मीडिया में आए एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दिल्ली में पिछले दो महीने के भीतर सीवर साफ़ करते समय 7 लोगो की मौत हुई है. आंकड़ों की बात करे तो 1993 से लेकर अब तक इसके कारण 1471 लोगों की मौत हो चुकी है. देश में औसतन हर साल 100 लोगों की मौत सीवर साफ़ करते हुए होती है. इसी 6 अगस्त को दक्षिण दिल्ली के लाजपत नगर में तीन लोगों की मौत हो गई. इस काम में मशीनों का इस्तेमाल तो होता है मगर जब राजधानी दिल्ली में ही अगर हाथ से सीवर का गंदा मैला उठाया जा रहा है तो बाक़ी देश का हाल आप समझ सकते हैं.

आपको बता दें कि 2008 में आई मद्रास हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया था कि सीवरों की सफ़ाई हाथ से नहीं होगी. लेकिन फिर भी बात चाहे दिल्ली की करें या कहीं और की, हर जगह सीवर सफ़ाई कर्मचारी की स्थिति एक जैसी ही है. (चरखा फीचर्स)