Home Lead Story अशरफ़ हुसैन : एक प्रोफ़ेसर जो बनाते हैं लोगों की हजामत

अशरफ़ हुसैन : एक प्रोफ़ेसर जो बनाते हैं लोगों की हजामत

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

रांची : अगर लगन, मेहनत और इरादा हो तो सफलता किसी की मोहताज नहीं होती, बल्कि ये चीज़ें कामयाबी की सबसे मज़बूत सीढ़ी बनती हैं. पक्के इरादों के साथ मंज़िल पाने के लिए कोशिश की जाए तो दुनिया की कोई ताक़त रुकावट नहीं बन सकती.

रांची शहर के मेन रोड स्थित उर्दू लाईब्रेरी के बाहर फुटपाथ पर लोगों की हजामत बनाने वाले किसी शख़्स के बारे में ये अंदाज़ा लगाना थोड़ा मुश्किल है कि इन्होंने कोई तालीम भी हासिल की होगी. लेकिन इस शख़्स ने ज़िन्दगी के तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए ऊंची तालीम हासिल करने की हसरत को कभी दम तोड़ने नहीं दिया. बेहद ही मुश्किल हालात में न सिर्फ़ पीएचडी तक तालीम हासिल की है, बल्कि रांची शहर के मशहूर मौलाना आज़ाद कॉलेज के उर्दू विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर भी हैं. इस शख़्स का नाम है —अशरफ़ हुसैन.

अशरफ़ की ज़िन्दगी से जंग और कुछ कर गुज़रने की हिम्मत समाज के लिए एक मिसाल है.

1971 में रांची शहर में ही पैदा हुए अशरफ़ हुसैन की शुरूआती तालीम आज़ाद मिडिल स्कूल से हुई. 1987 में आज़ाद हाई स्कूल से मैट्रिक पास किया. इंटर (साईंस) में दाख़िला लिया तो पिता बीमार हो गए और 1990 में वो ये दुनिया छोड़कर हमेशा के लिए चले गए. क़रीब 19 साल की उम्र में अशरफ़ हुसैन ख़ानदानी पेशा अख़्तियार करने को मजबूर हुए, नाई का काम शुरू किया, लेकिन बावजूद इसके पढ़ने और कुछ कर गुज़रने का इरादा दिलों में मज़बूत था.

अशरफ़ बताते हैं कि, वालिद की मौत के बाद मैं इंटर के परीक्षा में फेल हो गया. फिर अचानक प्रशासन ने शहर से इंक्रॉचमेंट हटाते हुए हमारी दुकान को भी तोड़ दिया. पढ़ाई छोड़ना मेरी मजबूरी थी. दो बहनों की शादी भी करनी थी. मेरे साथ मेरे बड़े भाई थे. हम दोनों ने मिलकर दो बहनों की शादी की. फिर इस दौरान मेरी भी शादी हुई. उसके बाद किताबों से टूट चुके रिश्ते को फिर से आबाद किया. हालांकि ये थोड़ा मुश्किल था, क्योंकि पूरे दस साल मैं इससे दूर जो रहा था. बावजूद इसके इरादे बुलंद थे. काम के साथ-साथ पढ़ना शुरू किया.  डोरण्डा कॉलेज से उर्दू में बीए, रांची यूनिवर्सिटी से एमए और फिर 2011 में पीएचडी मुकम्मल हुआ.

अशरफ़ हुसैन ने अपनी पीएचडी ‘ए क्रिटिकल एंड एनालिटिकल कॉम्पैरिजन ऑफ़ शॉर्ट उर्दू स्टोरी राईटर्स इन झारखण्ड’ विषय पर की. पीएचडी के बाद भी लिखने-पढ़ने के काम में लगे रहें. इसके बाद इन्होंने ‘झारखंड की नुमाइंदा ख्वातीन अफ़साना-निगार’ पर एक किताब लिखी, लेकिन इस किताब को प्रकाशित करवाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे, तब इन्होंने दोस्तों से मदद मांगी. क़रीब 23 हज़ार रूपये दोस्तों से लेकर अपनी किताब की 500 कॉपी छपवाई.

इनका दावा है कि इस विषय पर लिखी उनकी यह किताब अपने आप में पहली है. इसके बाद अशरफ़ अभी झारखंड में उर्दू अदब को कई किताबों पर काम कर रहे हैं. और अब इनकी ख़्वाहिश डीलिट् करने की है.

  

इस किताब के आने बाद अंजुमन इस्लामिया के अध्यक्ष ने इन्हें बुलाया और अपने कॉलेज में बच्चों को पढ़ाने का ऑफर दिया. अशरफ़ अब पिछले एक साल से मौलाना आज़ाद कॉलेज में अस्थाई असिस्टेंट प्रोफे़सर हैं. समाज में एक मुक़ाम है, लेकिन ख़ास बात यह है कि जिस पेशे ने कामयाबी के इस सफ़र में बड़ी भूमिका निभाई उससे भी नाता जोड़े हुए हैं.

वो कहते हैं कि, ये नौकरी अभी परमानेन्ट नहीं है. हर दिन एक क्लास के लिए सिर्फ़ 250 रूपये मिलते हैं. इस तरह से पूरे महीने में बमुश्किल 5 हज़ार रूपये ही मिल पाता है. इस बीच 2011 में मेरे बड़े भाई भी गुज़र गए. अब दो परिवारों को चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी मेरे ही कांधों पर है. दोनों परिवार मिलाकर कुल 8 सदस्य हैं. इनका पेट इतने कम पैसे में कैसे भरेगा. इसलिए मैंने अपने पुश्तैनी काम को जारी रखा. क़लम के साथ-साथ उस्तरा पकड़ना मजबूरी है. इसलिए कॉलेज से आने के बाद अपना हुलिया बदलकर अपने इस काम में लग जाता हूं. इस काम से भी रोज़ क़रीब 250-300 रूपये की कमाई हो जाती है.

अशरफ़ कहते हैं कि, कभी-कभी दिल में ठेस लगता है, क्योंकि मेरे माथे पर तो लिखा हुआ नहीं है कि मैं असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हूं. उसके लिए तो हम सिर्फ़ नाई हैं और वो ट्रीट भी वैसे ही करते हैं. लेकिन जो जानते हैं, वो काफी अच्छा बरताव करते हैं.

एक सवाल के जबाव में वो यह भी कहते हैं कि, अगर हम पीएचडी करने के बाद इस पेशे में आते तो कुछ बुरा महसूस होता, लेकिन मैं तो शुरू से इसी पेशे को करते हुए तालीम हासिल की, तो फिर शर्म कैसी.

अशरफ़ एपीजे अबुल कलाम के ‘स्मॉल टारगेट इज ए क्राईम’ वाली बात को हमेशा याद रखते हैं. वो कहते हैं कि, छोटा टारगेट रखना गुनाह है. सपने हमेशा बड़ा देखो और उसे हासिल करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करो.

वो कहते हैं कि, हमेशा मेरे दिमाग़ में ये ख़्याल रहा कि भीड़ से अलग रहना है. मेरे कस्टमर को मेरा काम औरों से अलग नज़र आता है. क्लास में भी बच्चे मुझे अलग पाते हैं. जाकर स्टूडेन्ट्स से फीडबैक ले लीजिए.

अरशद का कहना है कि, अपने आपको लगता है कि समाज को एक संदेश है कि अगर हम मेहनत करें तो कोई भी मंज़िल जो हमने ठाना है, उसको हासिल कर सकते हैं. शर्त है पहले हम ठाने और लगन के साथ इसके लिए जी-जान से जुट जाएं.