आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष बहन मायावती हमेशा से ही अपने फ़ैसलों से राजनितिक पंडितों को आश्चर्यचकित करती रही हैं. शुरुआत 1995 में की, जब उन्होंने पहली बार उत्तर प्रदेश की कमान संभाली और 2007 में जब वो चौथी बार मुख्यमंत्री बनीं.
उनके कड़े फ़ैसले अक्सर लोगों के बीच चर्चा का विषय बन जाते हैं. हालांकि इस बीच में उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर पार्टी का दायरा बहुजन से सर्वजन करने की कोशिश करी. लेकिन सारे प्रयास पिछले तीन चुनाव में धराशायी हो गए.
मायावती 2012 का विधानसभा चुनाव हार गईं. लेकिन बुरी तरह हार का सिलसिला 2014 लोकसभा चुनाव में हुआ, जब बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई. 2017 में सत्ता में वापस का सपना देख रही मायावती बुरी तरह चुनाव में पिट गईं और मात्र 19 विधायक बसपा के जीतें.
आज हाल ये है कि अपने दम पर वो राज्यसभा में भी नहीं निर्वाचित हो सकती. इसे तिलस्म टूटना कहे, या उनका कोर वोटर दलित का उनके से छिटकना. मायावती के पास अब संघर्ष और ज़मीन से शुरुआत करने के अलावा कुछ नहीं बचा है.
मायावती का राज्यसभा से इस्तीफ़ा देना उनका बहुत बड़ा बलिदान नहीं है. इस समय उनके पास कोई चारा नहीं बचा है. दरअसल मुश्किल में सिर्फ़ मायावती का कैरियर नहीं है, दलितों का अस्तित्व भी है.
मायावती यह बात समझ गई हैं कि काशीराम की नेक कमाई अब लूटने वाली है. पिछले 30 सालों में गुलामी से आज़ादी की ओर बढ़ा दलित अब फिर गुलामी की ओर है. मायावती ने अपने इस्तीफ़ा के कारणों के पीछे जिस सहारनपुर का हवाला दिया, दलितों के समझने के लिए वो सबसे सटीक वजह है.
मायावती ने कहा कि वहां दलितों पर अत्याचार हुआ और उन्हें उनकी बात कहने भी नहीं दिया जा रहा. यह अत्याचार पर अत्यचार है. इसलिए वो सदन से इस्तीफ़ा देती हैं.
यहां पर सहारनपुर को थोड़ा सा समझना पड़ेगा. यहां भीम आर्मी ने दलितों के लिए लड़ाई लड़ी और अब उसका मानमर्दन हो चुका है. उसके चीफ़ चन्द्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ समेत सभी बड़े नेता जेल में हैं. भीम आर्मी का नेटवर्क तबाह हो चुका है. दलित हतोउत्साहित हैं. जिग्नेश मेवाणी, नवाब सतपाल तंवर जैसे लोग पानी में हथेली मार रहे हैं. मायावती से दलितों की उम्मीद टूट रही हैं. मायावती घनघोर हताशा में हैं. लेकिन राज्यसभा से इस्तीफ़ा बताता है कि मायावती ने फिर से अपनी लड़ाई प्रारम्भ कर दिया है.
अब मायावती अपनी आख़िरी लड़ाई लड़ना चाहती है. मुश्किल में घिर आए अपने समाज के लिए वो अपने तेवर को 30 साल फ्लैशबैक में ले जाना चाहती हैं. यह माया की आख़िरी लड़ाई है. यहां से उनके राजनितिक जीवन पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लगेगा, अपितु उनका समाज भी गुलामी की ओर चला जाएगा.
मायावती के सामने कई चुनौतियां हैं. उनको अपने घटते क़द के हिसाब से विपक्ष में अपनी जगह रखनी है. इसके लिए उन्हें अब वो गैर-भाजपाई दलों से दूरियां घटाना चाहती हैं.
भाजपा ने दलित राजनीति में ऐसी सेंध मारी है कि मायावती की पार्टी धरातल पर आ गई. ऐसे में मुद्दा उठाकर उन्हें अपने आपको दलित राजनीती में प्रासंगिक रहना है. मायावती को अपनी पुरानी आक्रामक शैली की पहचान भी वापस चाहिए. वही मायावती जिसके आदेश से रात को ज़िलाधिकारी जाकर गांव में पुलिया बनवाता था. उसी प्रकार अब मायावती को पुराना रंग फिर चाहिए, जिससे वो अपने कोर वोटर दलित को दुबारा रोक सकें. इस्तीफ़ा देने से बलिदान देने का दर्जा लेकर, समाज के लिए कुर्बान होने का एजेंडा लेकर उनको अब फिर से शुरुआत करनी है.