क्या तुम इस मज़लूम को इंसाफ़ दिला पाओगे?

अब्दुल वाहिद आज़ाद


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मैं चाहता हूं या तो मुझे इंसाफ़ मिले या मुझे फांसी दे दो… उसमें गाय का मीट निकलता है तो मुझे फांसी दे दो. और अगर उसमें भैंस का मीट मिलता है तो हमें इंसाफ़ चाहिए.

दर्द में कराहते पूरे कर्ब के साथ बयान किए गए ये अल्फाज़ इसी देश के एक नौजवान के हैं. जिसका नाम आज़ाद है, जिसे दिल्ली से सटे फ़रीदाबाद में गो-आतंकियों ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया.

इंसाफ़ के लिए आज़ाद की ये गुहार लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद और देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट से महज़ 25 किलोमीटर दूर लगी है.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस साहेबान! आप सुन रहे हैं? प्रधानसेवक! आप सुन रहे हैं? ऐ, इस मुल्क के अमन-पसंदो! तुम सुन रहे हो? ऐ मुहसीन-ए-मुल्क! तुम सुन रहे हो? 

क्या तुम इस मज़लूम को इंसाफ़ दिला पाओगे?

ये इंसाफ़ तुम्हारे इक़बाल का इम्तिहान है, क्योंकि जिस संविधान पर इन्होंने भरोसा किया, जिन सहारों पर इन्होंने तकीया किया, जिस इंसाफ़ का तुमने वादा किया. बहुत तेज़ी के साथ टूट रहे हैं. तक़दीर के हवाले किए जा रहे हैं.

ऐ इस मुल्क के अमनपसंदो! ऐ मुहसीन-ए-मुल्क! इस सिलसिले को तो देखो. अभी पिछले सानेहे की यादें कमज़ोर भी नहीं पड़ी थी कि नया सानेहा हमारी दहलीज़ पर दस्तक दे गया. मुमकिन है नया सांचा ढाला भी जा रहा हो.

हमें मालूम है तुम तसल्ली दोगे! हां, ज़ुल्म हो रहा है, लेकिन इंसाफ़ का सूरज अभी डूबा नहीं है, बल्कि चमक रहा है.

हमें मालूम है तुम कहोगे! हम सूरज की चमक से वो किरणें इकट्ठा कर रहे हैं. उसे उन अंधेरी राहों में बिछा देंगे, जहां रोशनी की ज़रूरत है. हवा आती है गुज़र जाती है. मौसम बदलने वाला है. लेकिन —कब तक?

हमें मालूम है तुम बोल उठोगे! पुरानी रूदाद सुनाने का ये वक़्त नहीं है. सवाल है कि —कहां चले थे और कहां आ पहुंचे?

आप कुछ भी कहो —मेरा एहसास ज़ख्मी है. मैं मानता हूं कि इस मुल्क में मज़हबी टकराव को जिस ढ़प से हवा दी जा रही है उसका यही नतीजा निकलने वाला है.

याद रखो! तुमसे कोई गिला नहीं है… लेकिन तुम इस मुल्क की जो भी तक़दीर लिखना चाहते हो. मज़लूमों के इंसाफ़ के बिना अधूरी होगी.

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