अब्दुल वाहिद आज़ाद
इसे समझने के लिए हमें दूधिया क़ुमक़ुमों की महताबी रोशनी से नहाए हुए शहरों की चमकती दमकती फ़िज़ा, ऊंची-ऊंची इमारतें, चौड़ी सड़कों पर तेज़ रफ्तार से दौड़ती गाड़ियां, बसें और लंबी-लंबी कारें, मॉल और बाज़ारों में क़रीने-ओ-सलीक़े से आरास्ता साज़-ओ-सामान की रौनक़ों से कहीं दूर गए बग़ैर भी हम इसका एहसास कर सकते हैं.
इसके लिए हमें बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है. हम इस एहसास का हिस्सा बन सकते हैं, इसकी बस एक ही शर्त है. हमारे सीने में दिल होना चाहिए. लेकिन इस दिल में तड़प, दर्द, एहसास, जज़्बा, जुनून और जुर्रत का होना लाज़िमी है.
जो दिल ग़ैरों की मुसीबत में तड़प जाए, किसी मजबूर-कमज़ोर-लाचार के काम आए, किसी सताए को अपनापन का एहसास दिला सके, उसके दर्द को अपना दर्द समझ सके, किसी फ़क़ीर-मिस्कीन की मदद की चाहत रखता हो, किसी भटके हुए राही को पनाह देने में यक़ीन रखता हो, किसी मज़लूम को इंसाफ़ दिलाने का जज़्बा रखता हो. नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ लड़ने की जुर्रत रखता हो.
अगर आपका दिल इन एहसासात से भरा है तो जानिए —भूख क्या है?
जब पेट की आग मिटाने के लिए चावल, दाल और रोटी नहीं मिले तो…
— साग पात खाने को मजबूर हो जाएं
— दरखतों के पत्ते, गुठलियां ग़िज़ा बन जाए
— जानवरों के गोबरों में अनाज के दाने तलाशें, ताकि पेट भर सकें
— नालियों में तैरते खाने के टुकड़ों की तलाश ज़िंदगी का सलीक़ा बन जाए
— गंदगी की ढेर को कुरेद कुरेद कर पेट भरने का सामान ढूंढना रोज़गार बन जाए
— कुड़े की ढ़ेर पर खाने की चीज़ों के लिए कुत्तों से लड़ना बहादुरी मान ली जाए
भूख के नतीजे में
— जब मर्दों की कमरें झुक जाएं, पेट बदन से सट जाएं
— जब औरतों की छातियां सूख कर मुर्दा गोश्त की तरह लटकने लगे
— जब बच्चों की पस्लियां मुड़कर अंदर घुस जाएं
— जब मासूमों के पेट गुब्बारों की तरह फूल कर बाहर निकल जाए
हमारा रवैया
— जब निढ़ाल होकर वो सड़क के बीच सो जाएं तो हम उन्हें नशेड़ी बता सकें
— तब कभी खाकी वर्दी वाला टांगे पकड़कर उसे घसीट सके, ताकि हमारी गाड़ियों की तेज़ रफ्तारी में रुकावट न हो
ये कहां मिलते हैं?
— ये कच्छ से कामरूप और कश्मीर से केरल तक हर जगह मिलते हैं. इस देखने और एहसास के लिए शहर से दूर जाने की ज़रूरत नहीं है.
— हमारे दाएं-बाएं सड़कों पर, फूटपाथों पर, गलियों में, दरीज़ों में, कुरचों में, मैदानों में बड़ी संख्या में ये लोग कीड़े मकोड़ों की तरह सिसक सिसक कर रेंगते हुए मिल जाएंगे.
— शहर के कई पुलों पर शाम को भूखे औरतों और बच्चों का मेला मिल जाएगा.
— कुछ दर्दमंद अमीरों की तरफ़ से मुफ्त में खिलाए जाने वाली गलियों में ये बेशुमार भूखे मर्द-औरतें अपने बच्चों को गले लगाए क़तार में खड़े मिल जाएंगे.
— निगाह किसी खाते-पीते शख्स/ खानदान पर रहती है वो खाना खिला दे.