यूसुफ़ अंसारी, twocircles.net
पुरानी कहावत है, ‘एक झूठ छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं।’ दिल्ली पुलिस को अब यही करना पड़ रहा है। नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रहे जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों की 15 दिसंबर को विश्वविद्यालय के परिसर और लाइब्रेरी में घुस कर लाठियों से जमकर पिटाई करन केल मामले में ख़ुद को बचाने के लिए दिल्ली पुलिस का एक के बाद झूठ बोलना पड़ रहे हैं। अब उसने नया झूठ बोला है कि वो जामिया परिसर और लाइब्रेरी में छात्रों को पीटने नहीं बल्कि मजबूरी उन्हें बचाने में गई थी।
दिल्ली पुलिस ने यह झूठ अदालत को दिए अपने हलफ़नामे में बोला है। दरअसल, जामिया मिल्लिया इस्लामिया परिसर और लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों की बेरहमी से पिटाई करने के मामले में पुलिस ने दिल्ली की एक अदालत में एटीआर यानी एक्शन टेकेन रिपोर्ट दाखिल की है। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के निर्देश पर दाख़िल की गई दिल्ली पुलिस की इसी रिपोर्ट में कहा गया है, “हिंसा नियंत्रित करने और क़ानून-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय परिसर में घुसने के लिए पुलिस मजबूर थी। दिल्ली पुलिस अधिनियम की धारा 65 के तहत 52 व्यक्तियों को अस्थायी रूप से गिरफ्तार करके ही पुलिस कर्मी सफलतापूर्वक हिंसक गतिविधि को रोक सकते थे… विश्वविद्यालय परिसर के भीतर से चल रही हिंसा के मद्देनज़र अंदर फँसे निर्दोष छात्रों को बचाने और सामान्य स्थिति सुनिश्चित करने के लिए उस कार्रवाई की ज़रूरत थी।”
आपको बता दें कि अदालत ने दिल्ली पुलिस को यह निर्देश जामिया के छात्रों की उस याचिका पर दिया था जिसमें उन्होंने विश्वविद्यालय कैंपस में घुसकर छात्रों पर कार्रवाई करने के को लेकर पुलिस के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने की माँग की थी। छात्रों की तरफ़ से वकील असग़र ख़ान ने याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि पुलिस ने जामिया के छात्रों की बेरहमी से पिटाई की थी, जातिगत गालियाँ दी थीं, भद्दी टिप्पणियाँ की थी और कुछ पुलिस अफ़सरों ने बिना किसी कारण के लाइब्रेरी के मुख्य दरवाज़े को तोड़कर आँसू गैस के गोले दाग़े थे। इसी याचिका पर अदालत की तरफ से मिले नोटिस के जवाब में दिल्ली पुलिस ने जामिया परिसर में फंसे छात्रो को बचाने के मक़सद से मजबूरी में जामिया में घुसने की बात कही है।
दिल्ली पुलिस ने यह सफेद झूठ तब बोला जब कि वो सीसीटीवी पुटेज में साफ़ तौर पर जामिया के छात्रों को पिटाई करती हुई दिख रही है। फुटेज में पुलिसकर्मी तोड़फोड़ भी करते दिख रहे हैं। सीसीटीवी कैमरे तोड़ते दिख रहे हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी सबूत दिए हैं। फिर भी बार-बार पुलिस इससे इनकार करती रही है। शुरुआत में लाइब्रेरी में घुसने से भी इनकार करने वाली इसी दिल्ली पुलिस ने अब कहा है कि वह विश्वविद्यालय के अंदर फँसे निर्दोष छात्रों को बचाने के लिए मजबूरी में घुसी थी। पुलिस का यह अजीब तर्क है। अजीब इसलिए कि अब तक जितने भी वीडियो आए हैं कहीं भी ऐसा नहीं लग रहा है कि पुलिस किसी छात्र को बचाने की कोशिश कर रही हो। लाइब्रेरी में पुलिस छात्रों पर साफ़ तौर पर ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाती दिख रही है।
यह मामला 15 दिसंबर को नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जामिया के छात्रों के प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है। उस दिन में तीन बसों सहित कई वाहनों को आग लगा दी गई थी। जामिया के छात्रों ने हिंसा में शामिल होने से इनकार किया था और इस मामले में बयान भी जारी किया था। लेकिन इसके बावजूद पुलिस ने जामिया परिसर में घुसकर प्रदर्शन कर रहे छात्रों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की थी। इससे विवाद खड़ा हो गया था। विश्वविद्यालय के चीफ़ प्रॉक्टर वसीम अहमद ख़ान ने कहा था कि पुलिस एक तो विश्वविद्यालय प्रशासन की बिना अनुमति के ही घुसी, फिर छात्रों को पीटा गया और उन्हें कैंपस से बाहर निकाला। जामिया की उपकुलपति नजमा अख़्तर ने भी पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठाते हुए दोषी पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की थी।
इस मामले में पुलिस न कभी कुछ कभी कुछ कहती रही है। अब पुलिस की अजीब सफ़ाई आई है। एटीआर में पुलिस ने कहा है कि दंगाइयों ने कैंपस में लाइट में तोड़फोड़ कर दी थी इसलिए पुलिस पेट्रोल बम फेंकने वाले दंगाइयों और अंदर फँसे निर्दोष छात्रों की पहचान नहीं कर सकी। इसमें यह भी कहा गया है कि क्योंकि पहले ही काफ़ी अंधेरा हो चुका था और कार्रवाई शुरू की जा चुकी थी इसलिए इवैकुएट किए जाने वाले सभी लोगों को हाथ ऊपर करने को कहा गया था।
हालाँकि लाइब्रेरी के जो सीसीटीवी फुटेज आए हैं उसमें साफ़ दिख रहा है कि पुलिस कार्रवाई के वक़्त अच्छा ख़ासा उजाला है। सभी लोग साफ़-साफ़ दिख रहे हैं। सवाल उठता है कि जब सबके चेहरे साफ़ दिख रहे हैं तो फिर पुलिस पहचान कैसे नहीं कर पाई? और अगर कैंपस में कार्रवाई की गई तो ज़ाहिर है पुलिस को लग रहा था कि दंगाई उन छात्रों में ही थे। तो क्या पुलिस ने उन छात्रों में से किसी के ख़िलाफ़ दंगाई होने की एफ़आईआर दर्ज की है या गिरफ़्तारी की है? जवाब है- नहीं। ऐसी कार्रवाई इसलिए नहीं की गई है क्योंकि दंगाई विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे। ऐसा ख़ुद दिल्ली पुलिस ही पहले कह चुकी है।
15 दिसंबर की हिंसा के दो दिन बाद ही यानी 17 दिसंबर को पुलिस ने हिंसा करने के आरोप में 10 लोगों को गिरफ़्तार करने का दावा किया था। ख़ास बात यह है कि इनमें से कोई भी जामिया मिल्लिया इस्लामिया का छात्र नहीं है। पुलिस ने कहा था कि सभी गिरफ़्तार लोगों का आपराधिक रिकॉर्ड रहा है। गिरफ़्तार किए गए लोग जामिया और ओखला क्षेत्र के लोग थे। ये क्षेत्र विश्वविद्यालय के आसपास ही हैं। इसके बावजूद पुलिस ने जामिया कैंपस में घुसकर कार्रवाई की थी। यूनिवर्सिटी के जो सीसीटीवी फुटेज आए हैं उनमें दिख रहा है कि पुलिस लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों की पिटाई कर रही है। पुलिसकर्मी सीसीटीवी कैमरे भी तोड़ते हुए दिखाई देते हैं।
ग़ौरतलब है कि कुछ दिन पहले जामिया कोऑर्डिनेशन कमेटी ने इस वीडियो को सोशल मीडिया पर जारी किया था। इसमें इसने लिखा था, ‘ओल्ड रीडिंग हॉल के फ़र्स्ट फ़्लोर- एम.ए/एम फ़िल सेक्शन में पुलिस बरर्बता की एक्सक्लूसिव सीसीटीवी फ़ुटेज।’ इसके बाद कई सीसीटीवी फुटेज आए।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया प्रशासन भी पुलिस कार्रवाई के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता रहा है। उपकुलपति नजमा अख़्तर के कई बार आग्रह करने और शिकायतें देने के बावजूद कैंपस में कार्रवाई करने वालों के ख़िलाफ़ न तो एफ़आईआर दर्ज की गई है और न ही कोई जाँच शुरू की गई है। इसके जवाब में पुलिस ने कहा है कि शिकायत सामान्य प्रकृति की है और इनकी शिकायतों के समाधान के लिए पहले ही दिल्ली हाई कोर्ट में व्यक्तिगत रूप से याचिकाएँ डाली गई हैं। पुलिस ने कहा है कि इसलिए इन शिकायतों को रद्द कर दिया जाए। पुलिस की नई दलील के सामने आमने के बाद उसकी जमकर छीछालेदर हो रही है।