जिब्रानउद्दीन । Twocircles.net
दरभंगा। मोहम्मद गुफरान दूसरे कोविड लहर से पहले, रोज़ सुबह अपना रिक्शा लेकर दरभंगा की गलियों के ओर निकल जाया करते थें। दिन भर जो भी कमाई होती, वो रात को घर लाकर अपनी पत्नी के हाथ में रख देते। उनके अनुसार पूरी तरह से तो खुशहाल नही थी जिंदगी, फिर भी किसी तरह से बसर हो जाया करता था। लेकिन इस दूसरे लहर की वजह से लगे लॉकडाउन ने मानो उनकी कमर ही तोड़ दी है। अब तो उनके परिवार को कभी कभी एक समय का खाना भी ठीक से नसीब नही हो पाता है।
हालांकि लॉकडॉन में सुबह 7 से 11 बजे तक की ढील दी जा रही है लेकिन एक रिक्शा चालक 4 घंटों में कितना कमा लेगा जब लोग भी सिर्फ ज़रूरी सामान खरीदने को ही घर से निकल रहे हैं।
गुफरान बताते हैं, “घर पर पत्नी के अलावा दो बच्चे भी हैं, सोचा था उन्हे पढ़ाऊंगा, लेकिन कई दिनों से मात्र 50 से 60 रुपए तक ही कमा पा रहा हूं और कभी-कभी तो उसके भी लाले पर जाते हैं।” पिछले दिनों गुजरी ईद शायद उनके लिए अब तक की सबसे फीकी ईद रही होगी, जैसा उन्होंने बताया कि उस दिन उनके पास घर में खाना जुटाने तक का पैसा नही था।
“अभी अगर हम जिंदा हैं तो सिर्फ आस-परोस के कुछ लोगों के कारण, जो अक्सर थोड़े पैसे या खाने का समान दे दिया कर रहे हैं।” गुफरान ने आंसू पोछते हुए कहा, “इससे तो अच्छा होता कि कोरोना ही एक बार में हमें मार देता, कम से कम रोज़ भूख से तड़पकर ऐसे मरना तो नही पड़ता।”
कुछ ऐसा ही हाल छोटी सी दुकान चला रहे वीरेंद्र चौधरी का भी बना हुआ है। जहां पहले, दिन भर में 300 से 400 की आमदनी हो जाया करती थी। वीरेंद्र बताते हैं कि ये दुकान वो पिछले 30 सालों से चला रहे हैं, लेकिन इतनी ज्यादा परेशानी पहले कभी नहीं आई।
वीरेंद्र के दुकान के समीप ही उनके दोस्त विवेक शाह कुछ मास्क और सैनिटाइजर की बोतल लेकर रोज सुबह बेचने सड़क के किनारे बैठ जाते हैं। विवेक लॉकडाउन से पहले झोला बनाने का काम किया करते थें। वो कहते हैं “हम लोग काम धंधे में व्यस्त रहने वाले लोग हैं, हमें घर पर कैसे अच्छा लगेगा।” विवेक ने Twocircles.net को बताना जारी रखा, “मास्क और सैनिटाइजर बेचकर कोई खास कमाई तो नहीं होती है, और घर की दशा तो ऐसे ही बेहद बिगड़ी हुई है। इसलिए सोचते हैं कि जो भी कमा सकें इन 4 घंटों में..।”
अभी हम विवेक शाह से बात ही कर रहे थें कि उनके पास सैनिटाइजर खरीदने के लिए एक ग्राहक आ गया, तो हमने उनसे लॉकडाउन के प्रभाव के बारे में जानना चाहा। उन्होंने बताया, “एक तरफ कोरोना जान ले रहा है तो एक तरफ लॉकडाउन, बड़े लोग तो बस फैसला ले लेते हैं भुगतना तो हम जैसे लोगों को ही होता है।” उस ग्राहक ने दूसरे लॉकडाउन को गरीब लोगों के ऊपर गाज गिरने के समान बताया।
इस ही बीच ज़ोर से “सब्ज़ी वाला” की आवाज़ लगाते हुए 50 वर्षीय भोला महतो अपने सब्ज़ी का ठेला लिए लालबाग की एक गली से मुड़ रहे थे। मूंह पर मास्क होने की वजह से उनकी आवाज़ साफ नहीं थी। हमने वही सवाल इनसे भी दोहराया कि जीवन पर क्या प्रभाव पर रहा है इस दूसरे लॉकडाउन का, उन्होंने कहा, “हम रोज़ कुआं खोदकर पानी पीने वाले लोग हैं, जो आज कमाते हैं वो कल तक खत्म हो जाता है। बचत के नाम पर कुछ नही है, ऐसे में मैं सोचता हूं की अगर सच में कोरोना हो भी गया तो हम क्या कर लेंगे।”
फिर जब हमने उनसे पूछा की कोविड-19 के टीकाकरण के बारे में वो क्या जानते हैं, तो उन्हें कुछ समझ नहीं आया। वो थोड़ी देर खामोश रहे और फिर उनका जवाब आया, “सर, हमें टीकाकरण इसके बारे में कुछ नही पता, और ऐसे भी जब मरना होगा तो मर ही जाएंगे आखिर में इस जीवन से तो मौत ही अच्छी होगी।” I
जहां एक तरफ बड़े शहरों में इंटरनेट और सोशल मीडिया, एक प्रकार से लोगों के जीवन का हिस्सा बन चुका है, तो वहीं छोटे शहरों और गांव के गरीब लोगों को इसके बारे में दूर-दूर तक कोई जानकारी नहीं है। टीकाकरण के रजिस्ट्रेशन की ऑनलाइन प्रक्रिया हो, या फिर ट्विटर और फेसबुक पर ऑक्सीजन सिलेंडर या दूसरी जरूरतों के लिए मदद मांगना हो, सब में छोटे शहर के गरीब लोग मात खा जाते हैं, इनकी आवाज़, इस भीड़ में कहीं दब के रह जाती है।