<अहमद क़ासिम Twocircles.net के लिए
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल ज़िले में रेवासन नदी के किनारे बसे इस गाँव का नाम नत्थू चोड़ है. घने जंगलों के बीच राजाजी राष्ट्रीय उद्यान की सीमाओं के आसपास स्थित इस गाँव में महज़ 10 से 12 कच्ची मिटटी के बने घर हैं, घने जंगलों, कच्चे रास्तों और जंगली जानवरों के खतरे के बीच मौजूद इस गाँव में उत्तराखंड का वन गुर्जर समुदाय इस भय के साथ निवास करता है की उन्हें यहाँ से कभी भी जबरन हटाया जा सकता है, लेकिन हटाए जाने के बाद सदियों से परम्परागत तौर तरीकों से जंगल को संजोने वाला यह समुदाय कहाँ और कैसे बसाया जाएगा इसका कोई जवाब नहीं है !
खानाबदोश भैंस चरवाहा “वन गुर्जर” देश का एकमात्र मुस्लिम आदिवासी समुदाय है.यह हिमालयी राज्यों की तलहटी में बसता है.वन गुर्जर समुदाय जम्मू और कश्मीर से पलायन करते हुए उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की सीमाओं में अपने मवेशियों के लिए समृद्ध जंगलों और घास के मैदानों की तलाश में फैलता चला गया, और उत्तरखंड में इस समुदाय की जनसख्या का आंकड़ा 20 हज़ार के करीब है.
परम्परा और इतिहास ये था की हर वसंत में, जैसे ही पहाड़ों में बर्फ पिघलने लगती है, वन गुर्जरों की खानाबदोश जनजाति अपनी भैंसों के लिए अच्छे चरागाहों की तलाश में एक यात्रा पर निकल पड़ती है,लेकिन अब बहुत कम संख्या में ऐसे परिवार रह गए हैं जो प्रवास करते हैं, ऐसा समुदाय जिसकी पीढ़ी दर पीढ़ी जंगल की ज़िंदगी से एक अटूट सम्बन्ध रखते हुए अपना जीवन व्यतीत करती रही है अब क्यों जंगलों से बाहर आना चाहती है और क्यों अपने मवेशियों से दूर होने पर मजबूर है ?
आल इंडिया फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (एआईयुएफडब्ल्यूपी) की महासचिव रोमा इसके कारण पर बात करते हुए कहती हैं कि “सरकार इस समुदाय के लिए धीरे-धीरे जंगल बंद करती जा रही है, ये लोग दूध का व्यवसाय करते थे लेकिन हिमालय की ऊंचाइयों पर इन्हे जाने से रोका जा रहा है इसलिए इनका व्यवसाय भी ठप हो गया है, यह एक “मुस्लिम” समुदाय है और इनको लेकर सरकार का इस्लमोफोबिक रवय्या ऐसे में साफ़ दिखाई देता है, लेकिन वन गुर्जर समुदाय बहुत पहले से इस लड़ाई में डटकर मुकाबला कर रहा है”
अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 जिसे बोलचाल कि भाषा में वन अधिकार अधिनियम भी कहा जाता है, ऐसे समुदाय जो वनों में पीढि़यों से निवास कर रहे है, लेकिन उनके अधिकारों को रिकॉर्ड नहीं किया जा सका है, वन अधिकारों और वन भूमि में दखल को मान्यता देने और निहित करने और वन गुर्जर जैसे आदिवासी समुदायों को अधिकार देने के लिए भारत सरकार द्वारा वन अधिकार अधिनियम, 2006 पारित किया गया, जो दिनांक 31 दिसम्बर, 2007 से लागू हुआ था
ऐसा पहली बार हुआ था जब वन गुर्जर समुदाय के बारे में इस कानून के ज़रिए कहीं कोई बात कही गयी, ना इससे पहले और ना आज तक कोई भी वन गुर्जर समुदाय के बारे में बात नहीं करता है, सरकार और उनके जंगल पर कब्ज़ा जमाने की जुगत में लगे पूंजीपति मित्र कभी नहीं चाहते हैं की जंगलों में बसने वाले आदिवासी समुदायों को किसी तरह का अधिकार मिल पाए, ये लेकिन समस्या ये है की जंगल में अपनी ज़मीन और परम्परा को बचाने का संघर्ष कर रहे इन लोगों की आवाज़ हम तक नहीं पहुँच पाती है, वन अधिकार अधिनियम ने वन गुर्जर समुदाय की एक पहचान स्थापित की लेकिन लागू होने के 16 साल बाद भी इस कानून का प्रभाव जमीन पर नहीं दिखता है। वनवासियों के वन अधिकार के दावों को बिना उचित कारण के निरस्त कर दिया जाता है” रोमा कहती हैं।
समुदाय के स्थायी हो जाने और प्रवास रुक जाने के सवाल पर गेंडी खाता, गुर्जर बस्ती में वन गुर्जर बच्चों के बीच शिक्षा पहुंचाने के लिए संघर्ष कर रहे तौकीर आलम (२६) बताते हैं, राजा जी नेशनल पार्क बनाए जाने के दौरान कुछ परिवारों को जंगल के उस हिस्से से निकाल दिया गया था जहाँ पार्क का निर्माण तय हुआ था, इन परिवारों को गेंडी खाता, गुर्जर बस्ती जैसी जगह पर ज़मीन दी गयी थी, तौकीर के मुताबिक़ यहाँ 1100 से ज़्यादा परिवार बस रहे हैं लेकिन इन परिवारों को भी स्थायी परमिट नहीं दिया गया है
तौकीर कहते हैं की समुदाय के सामने कई चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, हज़ारों परिवार ऐसे हैं जो अब भी जंगलों में रहते हैं लेकिन जंगल में उनका दायरा सीमित हो जाने और वन विभाग की अड़चनों के रहते वे बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं का पा रहे हैं इसका एक उदाहरण देते हुए वे कहते हैं की समुदाय का पहले बाज़ार से कोई वास्ता नहीं था, जंगल उनकी हर ज़रूरत पूरी करता था लेकिन अब हमें बाहर की ओर देखना पड़ता है, हमारे पास ना अस्पताल की सुविधा है, ना अपने बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने का कोई समाधान है जबकि ये ज़िम्मेदारी सरकार की है लेकिन सरकार इस समुदाय को नज़रअंदाज़ किये बैठी है.
वन अधिकार अधिनियम देश के आदिवासी समुदायों को अधिकार देता है लेकिन फिर भी इस कानून का ज़ोर धरातल पर क्यों नहीं दिखाई देता है ? इस सवाल का एआईयुएफडब्ल्यूपी के महासचिव अशोक चौधरी एक लाइन में जवाब देते हैं, “क्योंकि यह कानून देश के बड़े कॉर्पोरेट ओर जंगल की ज़मीन को हथियाने की नज़र से देखने वाले लोगों की नज़र में फिट नहीं बैठता है” अशोक चौधरी कहते हैं की सरकार ख़ास तौर पर वन गुर्जर समुदाय को जंगलों से भगाना चाहती है,ऐसे में वे कहाँ जाएंगे ? जम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में, वन गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया गया है, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में, उन्हें अभी भी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तहत वर्गीकृत किया गया है जोकि वन अधिकारों पर उनकी पहुंच में के बीच आ रही एक बड़ी समस्या है, राजा जी नेशनल पार्क के अधिकारियों द्वारा वन गुर्जर समुदाय के साथ दुर्व्यवाहर के भी कई मामले समय समय पर सामने आते रहे हैं
आल इंडिया फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (एआईयुएफडब्ल्यूपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक वन अधिकारियों ने गुलाम मुस्तफा चोपड़ा और नूर बख्श के परिवारों को धमकाया था जोकि वन गुर्जर समुदाय से हैं। उनके पूर्वज इस क्षेत्र में पांच शताब्दियों से अधिक समय से रहे हैं। कथित तौर पर, वन रेंजर 5 अगस्त को बिना किसी सूचना के उनके स्थान पर आया, और आसा रोधी रेंज में रहने वाले उनके परिवारों को यह कहते हुए धमकी दी कि या तो क्षेत्र खाली कर दें चाहिए उन्हें अपने घरों के विध्वंस का सामना करना पड़ेगा। जब गुलाम मुस्तफा ने बेदखली की अनुमति देने वाले हाईकोर्ट से इस तरह के किसी भी निष्कासन आदेश के लिए कहा, तो रेंजर ने यह कहते हुए जवाब दिया, “आप जाओ और निदेशक कार्यालय से आदेश ले लो। हम आपको नहीं दिखाएंगे,
“
गुलाम मुस्तफा ने इसका जवाब दिया कि वन गुर्जरों के पास भी उनके पक्ष में उच्च न्यायालय का आदेश है जो कहता है कि “जब तक वन गुर्जरों को एक खानाबदोश जनजाति वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत नहीं बसाया जाता है, तब तक कोई बेदखली नहीं हो सकती है।” गुलाम मुस्तफा की ओर से नैनीताल हाई कोर्ट की रिट नं. 998/2017 जहां न्यायालय ने वन गुर्जरों के अधिकारों को मान्यता दी है। यह एक मामला वन अधिकार अधिनयम ( एफआरए) जैसे मज़बूत कानून की अनदेखी का उदाहरण पेश करता है
“हमारा जीवन यहाँ जानवरों से भी बदतर है, सरकार जानवरों पर ध्यान देती है लेकिन हमारे ऊपर नहीं देती, हम अनपढ़ हैं, हमारे बाप-दादा अनपढ़ थे और अब बच्चे भी पढाई से दूर हैं लेकिन इससे किसे मतलब है ? ये सवाल पूछ रहे शख्स 68 वर्षीय अली शेर हैं.अली शेर सरकार से चाहते हैं की सरकार उनके बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करे, सोलर प्लांट के ज़रिए उनके गाँव तक उजाला पहुंचाए.
“हमारा दिल जंगल से बाहर की दुनिया को देखकर रोता है.हम सोचते हैं की अगर हम भी पढ़े-लिखे होते तो कितनी बढ़िया बात होती,हमारे बच्चो की ज़िंदगी ख़राब हो रही है, सरकार ध्यान दे या हमें स्थायी जगह पर बसा दिया जाए, अगर सरकार हमें स्थायी ज़मीन दे तो वहां जाकर बसने में एक घंटा भी ना लगाएं” ये कहना है 40 वर्षीय बिस्मिल्लाह का, वे एक वन गुर्जर महिला हैं और बचपन से जंगलों में पली बढ़ी हैं. उत्तराखंड इन जंगलों में हज़ारों ऐसे वन गुर्जर परिवार हैं जो आधुनिक जीवन से बहुत दूर जंगलों में अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिए जाने के खतरे के बीच लगातार संघर्ष कर रहे हैं.