Poonam Masih, TwoCircles.net
देश आजाद होने के बाद संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने वंचित समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करते हुए इसे संवैधानिक रुप देने की पहल की। इसमें वह सफल भी रहें।
इसके बाद साल 1992 में मंडल कमीशन की सिफारिश पर ओबीसी आरक्षण लागू किया गया। लेकिन समय-समय पर आरक्षण में कई तरह के बदल भी हुए हैं। जिनमें पिछड़ों के आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान लाना।
अब इसी क्रीमीलेयर औऱ आरक्षण में जाति आधारित वर्गीकरण को लेकर एससी-एसटी समुदाय के लोग सड़कों पर हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 21 अगस्त को भारत बंद का आह्वान किया गया। जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों में लोगों ने बंद का समर्थन करते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग, ट्रेनें और दुकानों बंद कराई।
वर्गीकरण जरुरतमंद के लिए
दरअसल, एससी-एसटी आरक्षण पर अपना रुख साफ करते हुए एक अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच ने छह एक की बहुमत से आरक्षण को जाति के आधार पर वर्गीकृत करने का फैसला सुनाया।
जिसमें राज्य सरकार को यह आदेश दिया गया कि दलित और आदिवासी जातियों के भीतर वर्गीकरण कर जरुरुतमंद जाति समूह के लोगों को ऊपर उठाया जा सकें।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा “कि सभी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियां एक सामान वर्ग की नहीं है। इनमें कुछ जाति अति पिछड़ी भी हैं। उदाहरण के तौर पर बुनकर, सीवर की सफाई करने वाली ये दोनों जातियां अनुसूचित जाति में आती हैं। लेकिन इनकी स्थिति बाकियों के मुकाबले अत्यधिक पिछड़ी है। इनके लिए राज्य सरकारें अलग से वर्गीकरण कर कोटा निर्धारित कर सकती हैं। ऐसा करना संविधान की धारा 341 के विरुद्ध नहीं है।
वहीं दूसरी ओर जस्टिस बेला त्रिवेदी जातीय आधार पर राज्य सरकार द्वारा अधिकार देने के पक्ष में नहीं थी।
कुछ पार्टियां समर्थन में तो कुछ विरोध
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही बसपा, लोजपा(आर) सपा, कांग्रेस, जेएमएम, आजाद समाज पार्टी समेत कई सामजिक संगठन इसका विरोध कर रहे हैं।
केंद्र सरकार भी इस फैसले के विरोध में हैं। लेकिन तमिलनाड़ू के मुख्यमंत्री एम.के स्टालिन, आंध्रप्रदेश के एन चंद्रबाबू नायडू, बिहार के नीतीश कुमार, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी समेत भाजपा के कई नेता इसके समर्थन में हैं।
भारत बंद का व्यापक असर
विरोध के तौर पर 21 अगस्त को भारत बंद का आह्वान किया गया। जिसका व्यापक असर बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान में देखने को मिला। बिहार की राजधानी पटना में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठी चार्ज भी किया।
वहीं दूसरी ओर भीम आर्मी के सुप्रीमो और नगीना से सांसद चंद्रशेखर आजाद ने एक वीडियो जारी कर कहा है ‘यह तो आंदोलन का प्रथम चरण है दूसरे चरण में 11 सितंबर को हम दिल्ली आएंगे’।
संगठनों की मांग
दलित और आदिवासी संगठनों की मांग है कि सुप्रीम कोर्ट एससी-एसटी जातियों में वर्गीकरण खत्म करें। कोलेजियम सिस्टम बंद हो। भारत में जातीय जनगणना कराई जाए। साथ ही एससी-एसटी आरक्षण को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरोध और समर्थन में कई संगठन और लोग भी आए हैं।
समर्थन की बात करें तो कर्नाटक के 50 साल पुराने दलित संगठन ‘दलित संघर्ष समिति’ समर्थन में आगे आई हैं। लेकिन क्रीमी लेयर का विरोध किया। वहीं केंद्र सरकार भी एससी एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर के पक्ष में नहीं है।
दरअसल कई संगठन वर्गीकरण का तो समर्थन करते हैं लेकिन क्रीमी लेयर का नहीं।
क्रीमीलेयर क्या है
आरक्षण की दृष्टि से देखे तो क्रीमी लेयर का प्रयोग पिछड़ा वर्ग यानि ओबीसी समुदाय के उन लोगों की पहचान करने लिए किया जाता है जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर बाकी ओबीसी वर्ग की तुलना में समृद्ध् हैं। इन्हें नौकरियों और उच्च शिक्षा में आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाएगा।
क्रीमी लेयर की शुरुआत मंडल कमीशन लागू होने बाद साल 1993 में हुई। उस वक्त जिनकी आय एक लाख से अधिक थी वह सभी क्रीमी लेयर के दायरे में आते थे। लेकिन समय-समय पर इसमें तब्दीली होती गई। साल 2004 में 2.5 लाख, 2008 में 4.5 लाख, 2013 में 6 लाख और 2018 में 8 लाख कर दी गई है।
वर्गीकरण का समर्थन और क्रीमी लेयर का विरोध करते हुए पूर्व आईपीएस आर एस दारापुरी ने हमसे बात करते हुए कहा “कि उनका संगठन सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरा समर्थन करता है। लेकिन क्रीमी लेयर का नहीं क्योंकि आज भी प्रोफेशनल कोर्स में आरक्षण की सीटें पूरी नहीं होती हैं अगर क्रीमीलेयर को लाया जाएगा तो यह सारी सीटें सामान्य वर्ग में तब्दील हो जाएगी”।
उनका कहना है कि यह तो रिसर्च में भी पता चला है कि दलितों में कुछ जातियां ही शिक्षा और नौकरी पेशे में आगे आ पाई हैं। इनमें पिछड़ी दलित जातियों को हिस्सा मिला ही नहीं है।
यूपी में दलितों के नाम पर जाटव, चमार और पासी ही राजनीति और बाकी जगहों में नजर आते हैं। जबकि बाल्मिकी, डोम, मुसहर को अगर आरक्षण का लाभ मिला होता तो इनकी स्थिति भी अच्छी होती।
पंजाब में पहले वर्गीकरण हुआ था
पंजाब की बात करते हुए वह कहते हैं कि आरक्षण में वर्गीकरण पहली बार नहीं हो रहा है। पंजाब में अस्सी के दशक में दलितों के 25 प्रतिशत आरक्षण को दो भागों में बांटा गया था। जिसमें 11 प्रतिशत बाल्मीकी और मजहबी सिख और 14 प्रतिशत चमार एवं अन्य के लिए विभाजित कर दिया गया था। यह प्रक्रिया साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बंद कर दी गई।
दरअसल साल 2004 में ईवी चिनैया की पांच जजों की बेंच ने एससी-एसटी आरक्षण के वर्गीकरण पर यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि यह सभी समजातीय है। इनका वर्गीकरण नहीं हो सकता है।
दलितों में भी भेदभाव
समाजशास्त्री अरविंद एम शाह ने अपनी किताब में लिखा था कि दलितों में कुछ जातियों को पुजारियों की तरह माना जाता है। जैसा गरोड़ा। इन जातियों का अस्तित्व कुछ अनुसूचित जातियों से ऊपर देखा जाता है।
हालांकि जातीय भेदभाव की बात की जाए तो दलित जातियों में भी लोग एक दूसरे के यहां न तो खाना खाते हैं न पानी पीते हैं। कईयों के तो मंदिर भी अलग हैं।
डीयू के असिस्टेंड प्रोफेसर डॉ. कुलदीप कुमार इस बारे में हमें बताते हैं कि गांव में आज भी यही हाल हैं। जहां दलितों की बस्तियों में भी एक विभाजन है। यूपी में देखा जाता है कि जाटव आज भी डोमार के घर का पानी नहीं पीते हैं।
जातीय जनगणना के बिना यह संभव नहीं
इन सबके बावजूद दलित इतिहासकार प्रोफेसर एल.कारुण्यकार इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। दक्षिण भारत से ताल्लुक ऱखने वाले कारुण्यकार का कहना है कि जिन दलित और आदिवासियों के बीच वर्गीकरण की बात की जा रही है वह सभी मजदूर वर्ग से आते हैं। जहां तक बात है इसके समर्थन और विरोध का तो वह भी इन्हीं समुदायों से ताल्लुक रखने वाली राजनीतिक पार्टियां ही कर रही हैं।
प्रोफेसर सुप्रीम कोर्ट के जज बीएस गवई के उस तर्क का खंडन करते हैं जहां उन्होंने कहा कि एससी-एसटी समुदाय की कुछ जातियां का रव्वैया ट्रेन में सामान्य कोच में बैठे लोगों जैसा हैं जो किसी और को अंदर नहीं आने देना चाहते हैं।
प्रोफेसर कहते हैं कि जातियों को लेकर दिया यह उदाहरण ही गलत है। जबकि सच्चाई है कि एससी-एसटी जातियां तो उस कोच तक भी नहीं पहुंच पाई हैं। कई शोध में ऐसा पाया गया है कि आरक्षण के बावजूद भी उसका लाभ दलित आदिवासी जातियों से ज्यादा बाकी लोगों ने लिया है। कई आरक्षित सीटें आज भी खाली हैं। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि किसी एक दो जाति के लोग ही आगे बढ़ पाएं हैं।
वह कहते हैं कि साल 2011 के बाद जनगणना नहीं हुई है। ऐसे में जातियों को किस आधार पर बांटा जाएगा। बिना जनगणना के यह कैसे मान लिया गया कि कुछ जातियों के लोग ही आगे बढ़े हैं और बाकी पिछड़ी रह गई हैं।
दलित आदिवासी समुदाय के लोगों को साढ़े 22 प्रतिशत का आरक्षण मिला है। आज तक इसमें भी कई जगहें पूरी तरह से भरी नहीं गई हैं।
सामजिक और आर्थिक अंतर साफ
द हिंदू में “Socio-economic differentials within SCs/STs” नाम से छपे लेख के अनुसार दलित और आदिवासी समुदाय की जातियों में सामाजिक और आर्थिक अंतर साफ दिखाई देता है।
लेख में आमुक जाति के शहर में रहने वाले लोग, दसवीं और ग्रेजुएशन तक पढ़ाई और काम के बारे में बताया गया है। यह डेटा साल 2011 की जनगणना के आधार पर प्रकाशित किया गया है।
जिसके अनुसार बिहार में कुल 7.4 प्रतिशत दलित हैं। जिसमें से 18.9 प्रतिशत पासी शहरों में रहते हैं जबकि मुसहर 3.4। पासी समुदाय से 15 साल की उम्र में 10वीं करने वालों की संख्या 9.4 और मुसहर समुदाय की 0.9 प्रतिशत हैं।
यही हाल देश के अन्य राज्यों का है। पंजाब में यह अंतर चमार और मजहबी, महाराष्ट्र में भम्भी और मांग, पश्चिम बंगाल में नामाशुद्र और बग्दी में देखने को मिलता है।
ऐसी स्थिति आदिवासी समुदाय में भी हैं। छत्तीसगढ़ में बड़ा अंतर हल्बी और बैगा, झारखंड में उरांव और माल पहाड़ियां, राजस्थान में मीणा और गरसिया में साफ दिखाई देता है।
सिर्फ फैसला नहीं लागू हो
डॉ. कुलदीप कुमार भी इस ही बात से सहमत हैं। वह कहते हैं कि देर से ही सही सुप्रीम कोर्ट ने स्वायता संज्ञान लिया है। यह स्वागत योग्य है। लेकिन इसका पालन भी उसी तरह से हो तब सही नहीं वरना सिर्फ लागू करने से कुछ नहीं होगा।
“मैं स्वयं अति पिछड़ी दलित जाति से ताल्लुक रखता हूं इसलिए हमलोगों के लिए खुशी की बात होने से साथ-साथ आगे बढ़ने की भी एक उम्मीद है। क्योंकि किसी भी कारण से जो जातियां आगे की ओर बढ़ी हैं वह अन्य को शिक्षा, रोजगार, राजनीति किसी में भी आगे नहीं आऩे दे रही हैं”।
स्थिति यह है कि दलितों में अछूतों में भी लोग अछूत हैं। यूपी में बाल्मिकी समुदाय की उप जातियां हेला, बसोर, धानुक, डोमार हैं। यह जातियां अछूतों में ही अछूत हैं। इनसे गालियों से बातचीत की जाती है। ऐसी स्थिति में यह लोग आगे कैसे ही आ पाएंगे।
स्थिति यह है कि उच्च शिक्षा में जिस जाति का व्यक्ति आगे आ गया वह आरक्षण के नाम पर अपने ही लोगों का आगे लेकर जा रहा है।
राजनीति का भी यही हाल है यूपी की राजनीति में मायावती पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनी। लेकिन उनके राजनीतिक जीवन को देखा जाए तो उन्होंने सिर्फ अपनी जाति के लोगों को ही आगे बढ़ाया है।