मेडिकल फील्ड में आती तब्दीली में दाई का काम हो रहा बंद

Image: Creative commons

पूनम मसीह, TwoCircles.net

सावित्री (बदला हुआ नाम, 70) और सुनीता(55) अपने घर में दोपहर के वक्त आराम कर रही थीं। घर में 21 दिन पहले ही नन्हा मेहमान आया था। यह बच्ची सावित्री की परनातिन थी। जिसकी डिलीविरी घर पर ही हुई। लेकिन आजकल घर पर डिलीविरी के लिए सरकार ने रोक के साथ-साथ कई जागरुकता अभियान का भी आयोजन किया है।


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इस अभियान के बाद से ही घरों में होने वाली नॉर्मल डिलीविरी लगभग बंद  हो गई है। जिसके कारण पीढ़ियों से दाई का काम कर रही महिलाओं के सामने रोजी रोटी की भी दिक्कत आ गई है। कुछ को आशा वर्कर्स बनाया गया लेकिन कुछ ऐसी ही रह गईं।

धीरे धीरे खत्म हो रहा है दाई का काम

सावित्री और सुनीता का परिवार उसमें से एक है। सावित्री की चार पीढ़ियों ने यही काम किया है। जिसमें बच्चा डिलीविरी करवाने से लेकर बाद में बच्चे की तेल मालिश तक का काम किया जाता था। लेकिन मेडिकल जगत में आती जागरुकता ने इसे धीरे-धीरे पूरी तरह से खत्म कर दिया है।

सावित्री और सुनीता दोनों सास बहू अपने परिवार की आखिरी पीढ़ी हैं ,जो अब यह काम कर रही हैं। सावित्री ने हमसे बात करते हुए बताया कि पहले के दिनों में घरों में डिलीविरी होती थी। जिसके कारण हमें पैसों के साथ-साथ कई  बार समान भी मिल जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है।

मेरे दो बेटों की जवानी में ही मौत हो गई। दोनों की सात बेटियां थीं। अब मेरे घऱ में सिर्फ हम दोनों सास बहू हैं और कभी-कभी मेरी पोतियां आती हैं या उनकी बेटियां। घर पर हर महीने कोई न कोई मेहमान आता ही है। उनके रहने खाने का इंतजाम हम दोनों सास बहू को ही करना पड़ता है।

पहले डिलीविरी के वक्त हमें अच्छी कमाई होती थी। इससे ही मैंने अपनी सात पोतियों की शादी है। जो मेरे से बन पाया अपनी हैसियत के हिसाब से अच्छा करने की कोशिश की। अब कई बार पोतियों की बेटियों की जिम्मेदारी भी मेरे सिर पर आती है।

घर पर नहीं करवाते डिलीवरी

वह बताती हैं कि महंगाई बहुत बढ़ गई है। ऐसे में ऊपर वाले के भरोसे ही घर चल रहा है। घरों में डिलीवरी होने लगभग खत्म सा हो गया है।

यहां तक कि अब डॉक्टर डिलीविरी के बाद बच्चे की मालिश करने के लिए भी मना करते देते हैं। लेकिन कुछ लोग पारंपरिक तौर पर आज भी मालिश करवाते हैं।

सावित्री कहती हैं “मैं तो बूढ़ी हो गई हूं। मालिश के लिए बहू जाती है। जिसमें दो हजार मिल जाते हैं। बाकी हम दोनों को विधवा पेंशन मिलती है। इससे ही हमारा घर चलता है”।

इसके अलावा अगर कोई मालिश करवाता है तो 100 या 120 रुपए मिलते हैं। अब ऐसे मालिश करवाने वाले लोगों में भी कमी आ गई है। इसलिए सबकुछ ऊपर वाले के भरोसे पर है।

अगली पीढ़ी नहीं सीख रही काम

सावित्री का कहना है कि अब उनके परिवार में वह और उनकी बहू आखिरी दाई हैं। इसके बाद किसी ने यह काम नहीं सिखा।
वह बताती हैं कि मैंने यह काम अपनी मां से सीखा था। यह हुनर का काम है। जो हमलोग अपने घर से ही सिखते हैं। लेकिन जैसे-जैसे मेडिकल जगत में तब्दीली आ रही है। वैसे-वैसे यह काम भी खत्म हो रहा है। जिन्हें आशा वर्कर्स का काम नहीं मिला। वह लोग अस्पतालों में आया का काम करती हैं।

मुझे उम्मीद है भविष्य में यह काम पूरी तरह खत्म हो जाएगा। इसलिए मैंने अपनी पोतियों के यह काम नहीं सिखाया है। सब शादीशुदा हैं। अपने-अपने घर में ठीकठाक स्थिति में हैं। बाकी जो पोतियों काम करती हैं वह दूसरे कामों में लग गई है। लेकिन दाई का काम किसी ने नहीं सीखा क्योंकि इसमें अब कोई भविष्य नहीं है।

सरकारी योजना

सरकार ने नवजात और गर्भवती महिलाओं की सुरक्षित डिलीविरी और स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर साल 2011 में जननी सुरक्षा कार्यक्रम परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत आयोजित किया। इस योजना के तहत शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में सरकारी स्वास्थ्य में सामान्य प्रसव और सीजेरियन परिचालन और बीमार और नए जन्म सहित गर्भवती महिलाओं की पूरी तरह से निःशुल्क और नकद रहित सेवाएं प्रदान की जाती है।

इतना ही नहीं डिलीविरी के लिए गर्भवती महिलाओं को सरकारी संस्थानों तक पहुंचाने का काम भी किया जाता है। इसके अलावा लोगों को अस्पताल में डिलीविरी के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ महिलाएं अस्पातल में आकर डिलीविरी कराएं इसके लिए लड़कियों की डिलीविरी के बाद छह हजार की प्रोत्साहन राशि भी दी जाती है।

इस प्रकार की योजना का मुख्य मकसद है जच्चा और बच्चा दोनों ही डिलीविरी के बाद सुरक्षित रहें। इसके साथ ही नवजात मृत्युदर में कमी लाई जा सकें।

कई बदलाव आए हैं

इस बारे में मेडिकल ऑफिसर स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ.शुष्मिता स्वाइका का कहना है कि आसनसोल नगर निगम के द्वारा हेल्थ वर्कर्स को नियुक्त किया गया है। जो अलग-अलग जगह जाकर लोगों को डिलीविरी के लिए जागरुक कर रही हैं। इसके साथ ही वह गर्भवती महिलाओं को हेल्थ सेंटर आऩे के लिए प्रेरित करती हैं।

डॉ. बताती हैं कि मैंने पिछले दस सालों में शहर में इसको लेकर बहुत बदलाव देखा है। दाई का काम करने वाली कई महिलाएं आशा वर्कर्स का काम कर रही हैं। जिसके कारण दाई का काम अब कम हो गया है। इतना ही नहीं लोगों में भी जागरुकता आई है। जिसके कारण महिलाएं खुद भी अस्पताल आती हं।

पिछले दस साल के अपने अनुभव को साझा करते हुए वह कहती हैं कि मैं यह कह सकती हूं कि महिलाओ की जांच कराने की संख्या में काफी बदलाव आया है। अब ज्यादातर महिलाएं दो ही बच्चे पैदा करती हैं। ऐसे में पिछले दस साल में जहां पहले एक दिन में मैं 40 से 45 गर्भवती महिलाओं को देखती थी आज यह संख्या 80 के पार चली जाती हैं।

सरकार ने बच्चों को सुरक्षित डिलीविरी के लिए कई योजनाएं शुरु की हैं। लेकिन इसके दूसरे तरफ जो समुदाय इस काम से जुड़ा था। वह इससे दूर होता गया। कईयों ने तो अपना अलग काम शुरु किया। कई आज भी थोड़े-थोड़े में अपनी जिदंगी गुजार रहे हैं।

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