गाय से डरना मना है, यह हमारी भी अपनी है…

तरन्नुम सिद्दीक़ी

आज कल कोई भी न्यूज़ पेपर हो या कोई न्यूज़ चैनल… ऐसा लगता है कि जैसे हर तरफ़ एक अजीब सा खौफ़ का माहौल पनप गया है. कोई गाय को माता कहकर देशभक्त बन रहा है और कुछ डर के साये में जीने को मजबूर हैं.


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बेचारी गाय को यह पता भी नहीं होगा कि उसकी वजह से कुछ लोग उससे डर रहे हैं तो कुछ उस पर राजनीति का ‘खेल’ खेल रहे हैं.

गाय तो बहुत मासूम जानवर है, जिसे देखकर ही सभी को प्यार आता है. हम बचपन में जब गाय पर निबंध लिखते हैं, तभी से हम गाय के साथ एक अपनाईयत के रिश्ते से जुड़ जाते हैं.

हम लोग एक मुस्लिम परिवार से हैं. मेरे पिता एक हॉस्पिटल में  फिजिशियन थे और हमारी कॉलोनी में ऐसे ही सरकारी कर्मचारी रहते थे. हमारे पड़ोसी परिवार में एक पंडित जी थे. हम इस अपने पड़ोस में रहने वाले पंडित जी को मामा कहते थे. मामा के घर हमारा आनाजाना वैसे ही था, जैसे अपने मामा के यहां जाते हैं. उनके और हमारे घर के बीच एक दीवार थी. हमारे घर के बाहर बगीचा और एक बरामदा था.

मामा के उस बरामदे में एक गाय पली हुई थी. हम दोनों परिवारों के लिए एक ज़रूरी शख्सियत उसको जब सुबहशाम सानी (भोजन) देता तो दोनों परिवार के बच्चे उसके आसपास होते थे और हमें कभी उससे डर नहीं लगता था और ना ही गाय को. बल्कि वह हमें पहचानती थी.

जब हम उसके मुंह और पीठ पर हाथ फेरते तो वह अपने मुंह से खुशी से आवाज़ निकाल कर सर हिलाती रहती थी. जैसे कि वो अपनी खुशी का इज़हार कर रही हो. जब दूध निकालने की बारी आती तो अक्सर हम बच्चे वहीं पाए जाते और दूध निकालने वाले हमारे भाईयों की तरफ़ उस दूध की धार को कर देते. हमारे भाई  भी मुंह खोल देते और हम सब हंसने लगते. दूध निकालने वाला भी हंसने लगता. यहां कोई भी डर व भय नहीं था.

मुझे आज भी याद है कि जब गाय बीमार होती थी तो मामा और मेरे पिता उसके पास खड़े होकर उसकी बीमारी के बारे में बात करते और आपस में सलाह करके कुछ घरेलू नुस्खे से उसका इलाज करते. अगर इस उपचार से वह सही न होती तो जानवरों के डॉक्टर को बुलाया जाता था. हम सब बच्चों के चहरे उतर जाते थे. हम सोचते थे कि बेचारी गाय मुंह से तो कुछ कह नहीं पाती है तो यह बता कैसे बता पाएगी कि इसे क्या हुआ है और फिर डॉक्टर कैसे जानेगा इसकी तकलीफ़…

स्कूल जाने से पहले हमारा सबसे ज़रूरी काम होता था गाय को रोटी खिलाना. हम सब बच्चे एकएक रोटी उसे ज़रूर खिलाते. मगर इस बात से मेरी मां और मामी जिनकी रोटी की डलियां खाली हो जाती थी, उन्होंने एक बीच का रास्ता निकाला और वह यह था कि हम में से एक बच्चा ही गाय को रोटी खिलाएगा. उसके लिए हमारी ड्यूटी लगा दी गई. तब से हम अपना नंबर आने पर ही उसे रोटी खिलाते. 

जब बक़रीद आती तब हमारे यहां  बकरा आता और फिर, मामा की बेटियां और हम लोग उसकी रस्सी पकड़ कर सारे कैंपस में टहलाते और पहले हम उसे अपनी गाय से उसकी दोस्ती कराते.

मज़ेदार बात यह होती कि दूसरे दिन से इनमें दोस्ती हो जाती, और गाय और बकरा अपने सिर को आपस में लड़ाकर खेलते, जिसे हम सब बच्चे बिना भय व डर के खुशीखुशी देखते. क्योंकि हम भय मुक्त समाज में सांस लेने वाले लोग थे.

सबसे मज़ेदार बात तो तब होती जब गाय को बछड़ा होने वाला होता तब गाय को बरामदे में कर दिया जाता था. बरामदे के आगे एक तिरपाल डाल दिया जाता था. हमें वहां जाने नहीं दिया जाता. हम सब बच्चे बहुत बेचैन रहते कि हमे भी अंदर आने दिया जाए. अगर हम ज़रा सा भी तिरपाल हटाकर वहां झांकते तो हमें एक ज़ोर की डांट पड़ती और हम बाहर आ जाते.

मगर जब हम सुबह उठते तो एक मुन्ना सा, प्यारा सा दोस्त यानी बछड़ा हमारा इंतज़ार कर रहा होता था. जिसको देखने से लगता उसकी टांगों में बिल्कुल भी दम नहीं है. मगर वो लड़खड़ाते हुए उठता और फिर गिर जाता. फिर चलने की कोशिश करता और कुछ समय बाद तो वो आगेआगे उछलता हुआ चलता और हम सब उसके पीछेपीछे दौड़ रहे होते थे.

हमें उससे इतना प्यार हो गया था कि स्कूल से आते ही उसके पास आ जाते और उसके साथ खेलने लगते. अब उसका नाम रखने की होड़ होती. हर बच्चा एक नाम उस बछड़े का रखता.

आज भी जब उन यादों को मैं याद करती हूं तो एक अलग ही आनंद से भर जाती हूं, जिसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है. मगर क्या आज हमारे समाज के बच्चे इस आनंद की अनभूति को महसूस भी कर पाएंगे? क्या वह खेल पाएंगे —‘गाय, गाय का बच्चा गुड़ खाए गुप्प…’ या वह हमारी उम्र में गाय का नाम सुनते ही डर कर कांप जाएंगे? क्या वो भी बकरे और गाय का बंटवारा करेंगे?

क्या यह डर हमें हमारे रिश्तों से दूर तो नहीं कर रहा है? यह एक सोचने की बात है, केवल पुरूषों के लिए ही नहीं, बल्कि महिलाओं के लिए भी. अगर हमारे परिवार में पिता, बेटे, भाई या पति के साथ कोई घटना घटती है तो उस डर को निकालने की ज़िम्मेदारी हमारी (महिलाओं) भी बन जाती है. हम जैसे मिडिल क्लास के लोग जो क़स्बों मे रह रहे हैं या रह रहे थे, जो कि एक बहुत ही प्यारे और अपनाईयत के माहौल में रहे हैं, उनका यह फ़र्ज़ बनता है कि हम अपनी आने वाली नस्लों को वही अपनाईयत समाज को देकर जाए,नहीं तो इस डर वाले समाज के लिए ज़िम्मेदार हम हम सब होंगे.

(लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सेन्टर फॉर वूमेन स्टडीज़ में कार्यरत हैं.)

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