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सूफ़ी परवीन Twocircles.net के लिए
बिहार के मिथिला क्षेत्र में मुस्लिम लड़कियों का एक समूह मधुबनी पेंटिंग की कला को सीखकर नई कहानी लिख रहा है। यह कला ऐतिहासिक रूप से ऊंची जाति की हिंदू महिलाओं की विशेषता रही है, जो हिंदू धार्मिक शख्सियतों जैसे राम और सीता की कहानियों को चित्रित करती थीं।
बिहार के मधुबनी जिले से निकली इस शैली में की गई पेंटिंग दुनिया भर में मशहूर हैं। बता दें महिलाओं के लिए मधुबनी पेंटिंग सीखने की एक परियोजना दिसंबर 2020 में एक मधुबनी कलाकार अविनाश कर्ण द्वारा शुरू की गई थी। दिलचस्प बात यह है कि प्रशिक्षण के लिए आने वाले ज्यातादातर छात्र मुस्लिम लड़कियां थीं। यह प्रशिक्षण आर्टरीच इंडिया और सीमा कोहली स्टूडियो के सहयोग से किया जा रहा है।
ऐतिहासिक रूप से, इस क्षेत्र के मुसलमान धार्मिक कारणों से इस कला को सीखने से परहेज करते रहे हैं। अतीत में इस समय पेंटिंग सीख रही साजिया बुशरा के दादा हाजी जमील अख्तर को ये कला सीखने से रोक दिया था। इस कला को मुसलमानो ने पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया था जिसके कारण वह इसे आगे नहीं बढ़ा सके। साजिया और उनकी छोटी बहन सालेहा को इस कला-रूप में दिलचस्पी हो गई और उन्होंने अपने दादा के सपने को पूरा करने के लिए इसे आगे बढ़ाने का फैसला किया।
आर्टबोले स्टूडियो में हिजाब पहन के बैठी 18 वर्षीय साजिया ने TwoCircles.net को बताया, “मधुबनी पेंटिंग सीखना हमारे लिए बहुत मायने रखता है क्योंकि हमारे दादाजी इस कला को सीखना चाहते थे, लेकिन कुछ धार्मिक और राजनीतिक कारणों से वह ऐसा नहीं कर सके। इसलिए जब हमने ऐसा करने की इच्छा जताई तो स्थानीय मुसलमानों की झिझक के बावजूद हमारे परिवार ने हमारा साथ दिया।” उसने अपनी एक पेंटिंग दिखाते हुए कहा, “जब भी हम घर पर पेंट करते हैं, तो हमारे दादाजी हमें देखते हैं। वह बहुत खुश हैं कि हम ऐसा कर रहे हैं। और यह हमारे लिए बेहद कीमती है”
साजिया ने अपने प्रशिक्षक और कलाकार अविनाश कर्ण को धन्यवाद देते हुए कहा कि उन्होंने मेरे दादाजी की अधूरी इच्छा को पूरा करने का अवसर प्रदान किया है। छोटी बहन सालेहा अपनी इस कला के माध्यम से अपने जीवन और समाज की कहानी को चित्रित करना चाहती है। उनमें से एक लैंगिक भेदभाव भी है। वो कहती है कि “हम अपने घर में लड़कियों को दिए जाने वाले अलग-अलग उपचारों को देखते हैं, जिन्हें मैं अपने चित्रों में उजागर करती हूं।”
आर्ट ग्रेजुएट, 20 वर्षीय सरवरी बेगम ने TwoCircles.net को बताया कि वह दहेज प्रथा और बाल विवाह जैसे सामाजिक मुद्दों को चित्रित करना चाहती थी। उनकी साथी प्रशिक्षु कलाकार रहमती खातून ने कहा, “मैंने दहेज प्रथा के कारण घरेलू हिंसा के कई मामले देखे हैं। और मैं इसे अपने चित्रों में प्रतिबिंबित करना चाहती हूं। मधुबनी पेंटिंग काफी हद तक ब्राह्मण महिलाओं का एक डोमेन है”
ऐतिहासिक रूप से, उच्च जाति की हिंदु महिलाओं द्वारा इस कला के रूप का अभ्यास किया जाता था। बहुत बाद में अन्य जातियों और दलितों की महिलाओं ने ये कला सीखना शुरू की। पिछले कुछ दशकों में ही इस कला ने दलित समुदाय के चित्रकारों को वैधता दी है। आरोप लगते हैं कि कला में महारत हासिल करने वाली कायस्थों और ब्राह्मण महिलाओं ने दलित महिलाओं को इसे सीखने या अभ्यास करने से रोका। उनका मानना था कि वह रामायण या महाभारत के देवताओं की कहानियों को उच्च जाति के चित्रकारों की तरह नहीं बता सकती । उन्हें प्रकृति और अपने आस पास ही प्रेरणा ढूंढनी चाहिए। दुसाध जाति के और अधिक चित्रकारों के साथ, प्रसिद्ध कलाकारों की रचना बदल गई है लेकिन दृष्टिकोण नहीं बदला है। एक लोकप्रिय राय यह है कि दलित कलाकारों के साथ भेदभाव व्याप्त है और उनकी सफलता का जश्न नहीं मनाया जाता है।
“आम तौर पर संसाधनों की कमी होती है, लेकिन मैं आर्ट बोले स्टूडियो के माध्यम से इस कला को सामुदायिक स्तर पर ले जाना चाहता हूं,” अविनाश कर्ण ने TwoCircles.net को बताया , कर्ण ने कहा कि सरवरी बेगम, सालेहा शेख, साजिया बुशरा और रहमती खातून की पेंटिंग, जो ‘आर्ट बोले’ स्टूडियो में देखी गईं, भले ही कलात्मक रूप से परिपक्व न हों, लेकिन इस कला रूप के साथ मुस्लिम समुदाय का जुड़ाव सकारात्मक विकास है। अविनाश के अनुसार, पेंटिंग शुरू करने से पहले अखबारों से यादृच्छिक स्थानीय समाचार चुनना पहला महत्वपूर्ण कदम है। उन्होंने कहा, “समाचारों को क्लिप करना और कागज पर चित्रित करने के लिए अंक लिखना कहानी के दृश्य में अगला कदम है, मधुबनी पेंटिंग में युवा आवाजों और नए प्रयोगों की जरूरत है, जो इस सदियों पुरानी कला को एक नई पहचान दे सकें।”
(सूफी परवीन टीसीएन सीड प्रोग्राम से जुड़ी हुई है)