उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 1990 में एक दर्जन गांवों ने अपने क्षेत्र में इंटर कॉलेज के लिए मुहिम चलाई, ताकि इस इलाके के लोगों खासकर बच्चियों को शिक्षा के लिए भटकना न पड़े। गांव वालों ने सरकार को 20 बीघा ज़मीन भी उपलब्ध कराई मगर सरकार ने स्कूल की इमारत बनाने में करीब 25 साल लगा दिए हालात यह है कि बजट के अभाव में 4 साल से फिनिशिंग बाकी है। सहारनपुर से यह पढ़िए यह रिपोर्ट
सिमरा अंसारी। Twocircles.net
15 वर्षीय निशा सुबह जब बोर्ड का पेपर देने निकली होगी तो उसे इस बात का बिल्कुल भी इल्म नहीं होगा कि वो फिर कभी घर नहीं लौट पाएगी। निशा पेपर देने के बाद ऑटो से अपने गांव लौट रही थी। हाईवे पर ऑटो और टैक्टर ट्रॉ़ली की टक्कर हुई। इस हादसे में ऑटो पलट गया और उसमें सवार सभी स्कूली बच्चियां ज़ख्मी हो गईं। 12वीं की दो छात्राओं की रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आईं, जिन्हें ठीक होने में दो वर्ष से ज़्यादा का वक्त लगा। इस हादसे में हाई स्कूल में पढ़ने वाली निशा की मौके पर ही मौत हो गई। इस हादसे को हुए अब कोई 8 साल बीत चुके हैं, लेकिन निशा के गांव में करीब तीन दशक से चला आ रहा इंटर कॉलेज के लिए संघर्ष जारी है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले के सरसावा विकासखंड क्षेत्र के गांव कुतुबपुर की रहने वाली निशा शायद आज इस दुनिया में होती, अगर सरकार ने यहां के लोगों की मांग पर गांव में ही इंटर कॉलेज खोल दिया होता।
एक दर्जन गांव वाले 1990 से यहां इंटर कॉलेज खोलने के लिए सरकार से गुहार लगा रहे हैं, लेकिन आज 32 वर्ष बीतने के बाद भी यह सपना पूरा नहीं हो सका है। 1990 में कुतुबपुर, समसपुर, डिक्का, वाजिदपुर समेत करीब 12 गांव के ज़िम्मेदारों ने मिलकर बच्चों के लिए स्कूल बनवाने की सोची थी और इसके लिए एक कमेटी बनाई। इस कमेटी को 5 साल संघर्ष के बाद स्कूल के लिए कुतुबपुर गांव में ज़मीन आवंटित कराने में सफलता मिली और तमाम संघर्ष के बाद अगले पांच साल में सिर्फ तीन कमरे ही बन सके और पांचवी तक स्कूल चलाने की मान्यता मिली। थोड़ा समय बीतने के बाद स्कूल के कमरों की संख्या बढ़ी तो जूनियर हाई स्कूल के लिए मान्यता मिली और स्कूल चलाने की ज़िम्मेदारी कमेटी को दे दी गई और आज भी स्कूल संचालन की ज़िम्मेदारी कमेटी के पास ही है। कमेटी के सदस्यों का कहना है कि स्कूल का संचालन काफी मुश्किल काम है, स्टाफ को सैलरी देने में तमाम दिक्कतें आती हैं। लेकिन अपने बुज़ुर्गों की पहल को हम नहीं छोड़ सकते।
इन संघर्षों के बीच इंटर कॉलेज की मांग अभी तक अधूरी है। चार साल पहले इंटर कॉलेज के लिए बिल्डिंग बनकर तैयार हो गई थी। गांव वालों को लगा कि बिल्डिंग बन गई है तो इंटर कॉलेज भी जल्द शुरू होगा और आसपास के गांव के बच्चों को पढ़ाई के लिए इधर-उधर नहीं भटकना पड़ेगा। साथ ही, निजी स्कूलों की भारी-भरकम फीस का बोझ भी कम हो जाएगा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि गांव वालों का इंतज़ार बढ़ता ही जा रहा है। इसकी वजह यह है कि बजट के अभाव में बिल्डिंग का बुनियादी काम बचा हुआ और खाली पड़ी बिल्डिंग रखरखाव के अभाव में तबाह हो रही है। अब इसकी बानगी देखिए। जैसे टॉयलेट बन गया है, लेकिन उसमें नल की फिटिंग बाकी है। बिजली के लिए पाइप डल गए हैं, लेकिन उसमें वायरिंग का काम अधूरा पड़ा है। पानी का इंतज़ाम नहीं है और कॉलेज के चारों तरफ बाउंड्री भी नहीं बनी है। इतना ही नहीं, रखरखाव के अभाव में कमरों में लगे दरवाज़े उखड़ चुके हैं। फर्श से टाइल्स उखड़ने लगी हैं और कई जगहों पर फर्श बैठ रहा है। सरकार की लेत-लतीफी के चलते गांव वालों के लिए स्कूल चांद से तारे तोड़कर लाने जैसा हो गया है।
कमेटी के अध्यक्ष शेर सिंह राणा TwoCircles.net से बात करते हुए कहते हैं कि हमारा इलाका हर तरह से संपन्न है। लेकिन शिक्षा के मामले में अभी भी पिछड़ा है। इस स्कूल के लिए संघर्ष करते हुए उम्र हो गई। हम मेरठ से लेकर लखनऊ तक गए। अधिकारियों ने स्कूल के लिए तीस बीघा ज़मीन मांगी थी, 20 बीघा ज़मीन हमने उपलब्ध करा दी। स्कूल करीब छः बीघा ज़मीन पर बनना है। हम लोग चाह रहे हैं कि इंटर कॉलेज शुरू जो जाए और बाकी बची ज़मीन में डिग्री कॉलेज बन जाए। इससे बच्चों को काफी सहूलियत होगी। कमेटी के कोषाध्यक्ष शौकत अली कहते हैं कि आस–पास जो भी प्राइवेट स्कूल-कॉलेज हैं वो सब हम लोगों को लूटने के लिए बैठे हैं। मोटी फीस ले रहे हैं और पढ़ाई के नाम पर कुछ नहीं है। इसलिए हम सरकारी स्कूल के लिए कोशिश कर रहे हैं।
कमेटी द्वारा संचालित स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर अश्विनी चौहान कहते हैं, “राजकीय इंटर कॉलेज अल्पसंख्यक आयोग से पास हुआ था। उस समय सपा सरकार में आज़म खान मंत्री थे। सरकार बदली आज़म खान के खिलाफ भाजपा सरकार में जांच शुरू हुई और उनके द्वारा शुरू किए गए सभी कामों पर रोक लगा दी गई। इस स्कूल का काम भी रुक गया। काम फिर से शुरू करने के लिए बहुत कोशिश की। डिस्ट्रिक इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल (डीआईओएस) के पास गए। उन्होंने कहा प्रोजेक्ट मैनेजर के पास जाइए। प्रोजेक्ट मैनेजर कहते हैं कि सरकार फंड नहीं देगी तो काम कैसे करें। बिल्डिंग बनी हुई है। खाली पड़ी है। कोई देखने वाला नहीं है। कुछ लोग यहां नशा करते हैं और जुआं आदि खेलते हैं। मौके पर मौजूद साइट सुपरवाइज़र कहते हैं कि बजट के अभाव में काम लटका पड़ा है। फंड आ जाए तो दो से तीन महीने में काम पूरा हो जाएगा।
गांव की ही एक छात्रा शालू फिलहाल बोर्ड परीक्षा की तैयारी में लगी हुई है। बोर्ड परीक्षा की तैयारी के साथ ही उसे और परिवार को यातायात के साधन की फिक्र है। गांव से सरसावा करीब 12 किमी• दूर है। सरसावा जाने के लिए कोई भी साधन आसानी से नहीं मिलता है। शालू कहती हैं कि पहले रोडवेज़ बसें सरसावा से सभी गांव तक चलती थीं तो लोगों को आसानी रहती थी। लेकिन एक दशक से रोडवेज बसें इन रूट्स पर नहीं चल रही है। ऐसे में लड़कियों को एग्ज़ाम सेंटर तक पहुंचने में बहुत दिक्कत आती है। हम उसी को लेकर परेशान हैं कि कैसे जाएंगे। दसवीं क्लास की कशिश कहती हैं कि वे आगे की पढ़ाई को लेकर परेशान हैं। कशिश गांव के ही महार्षि चाणक्य पब्लिक स्कूल में पढ़ती है, जो केवल दसवीं तक है। उसका कहना है कि उसके आगे दो समस्याएं है। पहली यह कि उसे आगे क्या सब्जेक्ट लेना चाहिए। दूसरी यह कि किस स्कूल में एडमिशन लेना चाहिए ? क्योंकि गांव में तो बारहवीं तक का कोई भी स्कूल नहीं है।