लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाली पूजा शर्मा को अपनों ने ठुकरा दिया, आसपास के लोग भी नहीं रखते कोई वास्ता

पूनम मसीह/ TwoCircles.net
“अब मेरे मोहल्ले के लोग भी मुझसे बात नहीं करते हैं. मेरे दोस्तों ने मुझे छोड़ दिया है। लेकिन मैं अकेली खुश हूं”। यह कहना है 28 वर्षीय पूजा शर्मा का जो पिछले दो सालों से दिल्ली में लावरिस लाशों को जलाने काम कर रही हैं। वह रोज सुबह 10 बजे घर से शमशान घाट की तरफ निकलती हैं,और शाम तक घर वापस आती हैं। जबकि हिंदू मान्यताओं के अनुसार महिलाएं न तो श्मशान घाट जाती हैं और न ही लाश को जलाती हैं। पूजा के इस साहसी निर्णय के बारे में हमने उनसे बातचीत की हैं।

भाई के मौत से मिली प्रेरणा

पूजा ने अपने काम की शुरुआत का जिक्र करते हुए बताया कि आज से दो साल पहले उसके ही मोहल्ले में एक झगड़े के दौरान  भाई का मर्डर कर दिया गया था। मां का देहांत पहले ही हो गया था। इस खबर को सुनते ही मेरे पिता बेहोश हो गए और कोमा में चले गए। जिसके बाद घर में सिर्फ मैं और मेरी दादी ही बची थी। भाई को मुखाग्नि देने के लिए कोई पुरुष नहीं था। लाश का अंतिम संस्कार करने के लिए मोहल्ले वालों ने तरह-तरह की सलाह दी। अंत में मैंने निर्णय लिया कि मैं ही अपने भाई को आग दूंगी और मैंने ऐसा ही किया। इतने मुसीबत के वक्त मैं एकदम अकेली थी। भाई की चित्ता ठंडी होने के बाद मैंने उनकी अस्थियों को इकट्ठा किया और पास में रखे शिवलिंग को पकड़कर रोने लगी और बाद में अस्थियों की राख को अपने पूरे शरीर में लगा लिया। यह देखकर शमशान घाट में बैठे पंडित डर गए कि यह लड़की ऐसे क्यों कर रही है और यही से मेरी जिदंगी बदल गई। मेरे जहन में सिर्फ एक ही बात थी अगर मेरे भाई की हत्या कहीं बाहर हो जाती तो पता नहीं कोई उसका अंतिम संस्कार करता या नहीं? बस यही से शुरु हुआ अंतिम संस्कार करने का सिलसिला, जिसमें मैंने जाति-धर्म से ऊपर मानवता को प्रमुखता दी।


Support TwoCircles


रिश्तेदारों ने तोड़ा नाता

पूजा ने फिलहाल दो साल चार महीने में पांच हजार लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर दिया है। वह बताती हैं कि शुरुआती दिनों में मुझे काम करने में दिक्कत आई थी। लेकिन अब तो यह मेरे लिए सामान्य बात हो गई है। यह मेरे दिनचर्या का हिस्सा है। जैसे लोग नौकरी पर जाते हैं वैसे ही मैं भी पोस्ट मार्ट्म हाउस से एंबुलेंस से लाश को लाकर संस्कार करती हूं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई अगर मृत की पहचान हो जाए तो उसके धर्म के अनुसार उनका संस्कार करती हूं। शुरुआती समय में शमशान घाट और कब्रिस्तान में संस्कार करने को लेकर लोगों से बहुत बहस होती थी। कोई भी मुझे यह काम नहीं करने देना चाहता था। लेकिन मैंने धार्मिक ग्रन्थों के आधार पर बहस की और अंत में मृत का संस्कार किया। अब पूजा को यह काम करते हुए दो साल से अधिक का समय हो गया है। जिसमें उसकी जिदंगी पूरी तरह से बदल गई है। पूजा बताती हैं कि इन दो सालो में जिदंगी पूरी तरह से बदल गई है। खुशी की बात यह है कि मेरे पापा कोमा से वापस आ गए हैं। लेकिन दूसरी तरफ हमारे रिश्तेदारों ने हमसे सारे नाते तोड़ लिए हैं। यहां तक की मेरे बचपन के दोस्तों ने भी मुझसे दूरी बना ली, क्योंकि उनके माता-पिता का कहना था कि मैं भूत प्रेत के साथ रहती हूं।

अपने प्रतिदिन के संघर्ष के बारे में पूजा बताती हैं कि मेरे अपने मोहल्ले के लोग मुझे अघोरी कहते हैं, इतना ही नहीं मुझे कहा जाता है कि इसके साथ भूत-प्रेत रहते हैं। यह लड़की सही नहीं हैं। जिसके कारण सभी लोग मुझसे नहीं मिलना चाहते हैं।

लोग अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या आसपास के लोग आपको किसी कार्यक्रम में बुलाते हैं? पूजा का जवाब था-नहीं, लेकिन मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं और मेरा परिवार अकेला ही खुश है।

लोग हमारे घर भी नहीं आते-जाते हैं क्योंकि मैं घर पर मृत लोगों की अस्थियां रखती हूँ। मैंने अपने घर में एक कमरा इसके लिए ही रखा हैं। मैं प्रतिदिन कम से कम 15 से 20 और अधितकम 50 लाशों को जलाती हूं। इनकी अस्थियों को रोज गंगा में बहाना संभव नहीं है। इसलिए हर अमावस्या की रात हरिद्वार में अस्थि विसर्जन करने जाती हूं। ताकि किसी भी लावारिस लाश का कोई भी विधान अधूरा न रह जाए।

दादी देती हैं खर्च

लाशों को शमशान घाट में लाना और पूरे विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार में लगने वाले खर्च के बारे में वह बताती हैं कि मेरे दादा आर्मी में नौकरी करते थे।
जिसकी पेंशन मेरी दादी को मिलती है। मेरी दादी ही मुझे काम के लिए आर्थिक सहायता करती हैं। पहले पापा भी मेरी मदद करते थे। उनकी दिल्ली मेट्रो में अस्थायी नौकरी थी। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया में मेरे इस काम की खबर आने के बाद उन्होंने पापा को काम से ही निकाल दिया। पूजा यह पूरा काम अकेली ही करती हैं। उन्होंने सोशल वर्क में एम.ए कर रखा है।
बाद में एचआईवी काउंसलर की जॉब की है। वह बताती हैं कि यह काम शुरु करने से पहले मैं एलएलबी कर रही थी। मेरा जज बनाने का सपना था। लेकिन अब मैं इसी काम में खुश हूं।
SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE