दिल्ली में मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारियों के ख़िलाफ़ एकजुट हुए सामाजिक कार्यकर्ता और वकील

TCN Staff Reporter

नई दिल्ली। राजधानी दिल्ली में लॉकडाउन के बीच सीएए के विरोध और दिल्ली हिंसा के नाम पर जामिया के छात्रों और मुस्लिम नौजवानों की अंधाधुंध  गिरफ़्तारियो के ख़िलाफ़ अब कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने वकीलों ने एकजुट होकर आवाज़ उठाई है। दिल्ली पुलिस ने सफ़ूरा ज़रगर, मीरान हैदर और शिफ़ा उर रहमान के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया के एक और छात्र आसिफ़ इक़बाल को गिरफ्तार किया है।


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दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने आसिफ़ इक़बाल को 16 मई को पूछताछ के लिए बुलाया था। लेकिन 17 मई को दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच, चाणक्यपुरी ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 15 दिसंबर को जामिया के पास हुई हिंसा से जुड़े मामले में उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। ग़ौरतलब है कि आसिफ़ जामिया के उन छात्रों में शामिल था जिन पर दिल्ली पुलिस ने जामिया परिसर और लाइब्रेरी में घुस पर लाठिया बरसाईं थीं।

आसिफ़ की गिरफ़्तारी के बाद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, राज्य सभा सदस्य मनोज कुमार झा, दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद, जमाअत इस्लामी हिन्द के उपाध्यक्ष  प्रोफेसर सलीम इंजीनियर, सीजेपी की सचिव तीस्ता सीतलवाड़, मुस्लिम मुशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद और सामाजिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन ने एक साझा प्रेस कांफ्रेस करके दिल्ली पुलिस के दमनकारी चेहरे को बेनक़ाब किया। प्रेस कांफ्रेस में जारी किए गए एक साझा बयान में कहागया है कि दिल्ली पुलिस कोरोना महामारी के बीच सीएए का विरोध करने वालों सामाजिक कार्यकर्ताओं का दिल्ली हिंस से लिंक जोड़कर दुर्भावना पूर्ण तरीक़े मुस्लिम नौजवानों को गिरफ़्तार कर रही है।

इस साझा बयान में कहा गया है कि पुलिस ने आसिफ़ को गिरफ्तार किया और पुलिस हिरासत की मांग की। न्यायाधीश ने पुलिस कस्टडी से इनकार कर दिया क्योंकि आसिफ़ से पहले ही कई दिनों तक पुलिस ने पूछताछ की थी। जिस मामले में आसिफ़ को गिरउतार किया गया है उस मामले में पहले ही आरोप पत्र दायर किया जा चुका है। आरोप पत्र में पुलिस ने बताया है कि आसिफ़ की भूमिका के बारे में अभी भी पता नहीं चला है। इसलिए उसके खिलाफ चार्जशीट दाख़िल नहीं की गई है।

बयान मे बताया गयी है कि न्यायाधीश ने आसिफ को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजा है। कपड़े देने के लिए क्राइम ब्रांच में उनसे मिलने गए आसिफ़ के दोस्तों ने बताया कि आसिफ़ को स्पेशल सेल पुलिस ने 16 मई को पीटा था। आसिफ़ ने अपने एक क़रीबी दोस्त को बताया है कि तिहाड़ जेल में एक मुंशी ने उसे सिर्फ़ड इस लिए पीटा कि वो ‘जामिया का छात्र’ है।

बयान में चौंकाने वाली जानकारी देते हुए बताया गया है कि दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने आसिफ़ को 19 मई को दोबारा गिरफ़्तार किया। अब उसे एफ़आईआर नंबर 59 के तहत उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों से जोड़ा जा रहा है। उसे 7 दिनों की पुलिस हिरासत में ले लिया गया है। यह पहली इस तरह की घटना नहीं है। यह पैटर्न बन गया है। पहले एक केस में गिरफ्तार करो जब अभियोगी की ज़मानत की संभावना दिखे तो उसे एफ़आईआर नंबर 59 में भी मुजरिम बना दिया जाए। यह काम दिल्ली पुलिस सीएए कार्यकर्ताओं के साथ लगातार कर रही है।

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क्या है एफआईआर 59 का मामला!

यह एफ़आईआर नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में हुए दंगों के संबंध में दायर की गई थी। इसमें शुरुआत में 23-27 फरवरी के बीच सभी ज़मानती धाराएं थीं। 12 मार्च को गिरफ्तार किए गए तीन लोकप्रिय मोर्चा कार्यकर्ताओं मोहम्मद दानिश, परवेज़ आलम और मोहम्मद इलियास को 14 मार्च को ज़मानत दी गई थी। न्यायाधीश प्रभादीप कौर ने गिरफ्तारी के दिन थाने से  ज़मानत नहीं देने के लिए आईओ को फटकार लगाई थी। तब उन्होंने कहा था, “यह एक सुलझा हुआ सिद्धांत है कि ज़मानती अपराधों में, प्रथम दृष्टया आरोपी व्यक्तियों को ज़मानत देना IO का कर्तव्य है। IO द्वारा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है कि उसने आरोपी व्यक्तियों को ज़मानत क्यों नहीं दी थी।” अदालत ने कहा कि संवैधानिक और प्रक्रियात्मक जनादेश के अनुसार पहला उदाहरण है।

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इस विशेष एफ़आईआर को उस समय रद्द कर दिया गया था जब खुरेजी से गिरफ्तार एक वकील इशरत जहां को पिछले मामले में 21 मार्च को ज़मानत मिल गई थी। लेकिन कुछ दिन बाद ख़ालिद सैफ़ी के साथ उसे इस विशेष प्राथमिकी के तहत फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार 302 जैसे कुछ और कड़ी धाराएँ एफ़आईआर में जोड़ दी गयीं। इशरत की ज़मानत भी बाद में ख़ारिज कर दी गई।

13 मार्च को जामिया मिलिया इस्लामिया की एक छात्रा सफ़ूरा ज़रगर को ज़ाफराबाद में हिंसा के लिए गिरफ्तार किया गया। जब उसे इस मामले में ज़मानत दी गई तो पुलिस ने उसे इस एफआईआर 59 में फिर से गिरफ्तार कर लिया। इसी तरह, छात्र और एंटी-सीएए कार्यकर्ता गुलफ़िशा को ज़ाफराबाद में हिंसा के संबंध में गिरफ्तार किया गया था और उस मामले में ज़मानत मिलने के बाद उसे इस एफ़आईआर 59 प्राथमिकी में फिर से शामिल किया गया था।

अब आसिफ़ इकबाल के साथ भी हमने यही पैटर्न देखा है। एफआईआर 59 में सफ़ूरा और मीरान हैदर की गिरफ्तारी के बाद, पुलिस ने आगे खुलासा किया कि उन्होंने इस प्राथमिकी में बर्बर यूएपीए की चार धाराएँ ओर जोड़ दी हैं, हालांकि वो यह बताने के लिए भी तैयार नहीं हैं कि सभी को यूएपीए के तहत फंसाया गया है या कुछ एक को।

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इस एफ़आईआर के तहत सभी बंदियों को अब संभावित रूप से यूएपीए के तहत फंसाया जाता है। जामिया एलुमनी एसोसिएशन के शिफ़ा उर रहमान को भी इस एफ़आईआर के तहत गिरफ़्तार किया गया था। इसलिए घटनाक्रम से बहुत स्पष्ट है: पहले किसी व्यक्ति को किसी मामले के तहत गिरफ्तार किया जाता है, और जब वह मामले में ज़मानत पाने वाला होता है या होती है, तो उन्हें एफ़आईआर 59 विशेष प्राथमिकी में फंसा दिया जाता है।

यह प्राथमिकी जो सभी ज़मानती अपराधों के साथ शुरू हुई थी, अब लगभग एक आतंकवाद-रोधी मामले में बदल गई है। पुलिस विशेष रूप से CAA विरोधी कार्यकर्ताओं और छात्रों को निशाना बना रही है। और उन्हें ‘खूंखार आतंकवादी’ के रूप में आरोपित ठहरा रही है, जो उत्तरपूर्व दिल्ली के दंगों के लिए ‘ज़िम्मेदार’ थे। इसके अलावा, एफ़आईआर सबसे अस्पष्ट शब्द है और व्यापक सामान्यीकरण और आरोप लगाता है जिससे किसी के ख़िलाफ़ भी इसका इस्तेमाल करना आसान हो जाता है।

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ग़ौरतलब है कि दिल्ली की हिंसा में पीड़ितों में से अधिकांश, जो अपनी जान और आजीविका खो चुके थे, मुस्लिम थे, इस प्राथमिकी के तहत अब तक गिरफ्तार सभी लोग भी मुस्लिम हैं। यह स्पष्ट रूप से दिल्ली पुलिस के पूर्वाग्रही व्यवहार को दर्शाता है और कैसे वे दिल्ली के दंगों के बहाने सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने, फंसाने और शिकार करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

दिल्ली पुलिस की असंवेदनशीलता इस तथ्य से स्पष्ट है कि उन्होंने तीन महीने की गर्भवती सफ़ूरा को गिरफ्तार किया और उसे रिहा करने से मना कर रही है। महामारी और तालाबंदी के दौरान, दिल्ली पुलिस जामिया के छात्रों और सीएए के अन्य विरोधी कार्यकर्ताओं को पूछताछ के लिए बुलाती रही। लॉकडाउन के दौरान बार-बार इसे रोकने की अपील की गई थी।

दिल्ली पुलिस ने अपने हेड कांस्टेबल को कोरोना पॉज़िटिव पाए जाने के बाद भी बाहर से विशेष सेल कार्यालय में कार्यकर्ताओं को बुलाना जारी रखा। हमें यह भी पता चला है कि दिल्ली पुलिस लगातार कार्यकर्ताओं पर दबाव बना रही है और उन्हें परेशान कर रही है ताकि वे पुलिस की तरफ़ से झूठी गवाही देने को तैयार हो जाएं। जिन्हें वायदा माफ गवाह कहा जाता हैं। इससे पता चलता है कि उनके पास इन गिरफ्तारियों के लिए कोई सबूत नहीं है और वे नक़ली कहानी को सच बताने के लिए सीएए के खिलाफ मुखर लोगों को डरा-धमका कर गवाह बनाना चाहती है।

साझा बयान में एंटी-सीएए कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और बेवजह फंसाने  की कड़ी निंदा की गई है। आगे कहा गया है, ‘दिल्ली पुलिस का लोगों से कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करने या एप्रोवर बनने के लिए दबाव डालना उसकी हताशा को दर्शाता है। यह पूरी तरह ग़ैरकानूनी है। इससे पता चलता है कि दिल्ली पुलिस हिंसा के केस का इस्तेमाल केवल कार्यकर्ताओं को तंग करने के लिए कर रही है। हम इन सभी छात्रों और कार्यकर्ताओं की तत्काल रिहाई की मांग करते हैं।’

साझा बयान में शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन के छात्रों और कार्यकर्ताओं को डराने के लिए यूएपीए जैसे भयानक कानून का उपयोग घृणित और अत्यधिक निंदनीय बताते हुए दिल्ली दंगों की जाँच के लिए स्वतंत्र आयोग की मांग की गई है जो निम्न बिंदुओं पर जांच करे

१. दंगा जिस दिन हुआ उस दिन बंद ओर सड़क की अपील किसने की थी? क्या उस संगठन से कोई पूछताछ हुई?

२. सौ दिन से शांतिपूर्ण तरीक़े से चल रहे सीएए विरोधी आंदोलन को दंगा जैसी हिंसा कि ज़रूरत ही नहीं थी तो वे कौन लोग थे जिन्होंने भीड़ को उकसाया

३. सोशल मिडिया के सभी वीडियो की जांच हो, उनको बनाने वालों से समय स्थान ओर उसमें शामिल लोगों के चेहरे पहचानने का उपक्रम हो

४ छात्रों ओर कार्यकर्ताओं को झूठा फंसने की साजिश में शामिल पुलिस व अन्य लोगों के ख़िलाफ़ जांच हो

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