मीना कोटवाल, Twocircles.net
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने एक पत्रकार के रूप में भी काम किया है, ये काफ़ी कम लोगों को ही पता है। दुनियाभर में बाबा साहेब को एक आदर्श के रूप में माना जाता है। बाबा साहेब हमेशा महिलाओँ के साथ उस समाज को जागरूक करना चाहते थे, जो सदियों से वंचित रहा। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के दिखाए रास्ते पर बहुजन समाज आगे तो बड़ा, लेकिन इस दौड़ में महिलाएं काफ़ी पीछे छूट गई।
31 जनवरी, 2020 को उनके मराठी पाक्षिक पत्र ‘मूकनायक’ को 100 वर्ष पूरे हुए. देशभर में इसकी खुशी दिखाई दी। देशभर के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 176 कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। जहां कई आंबेडकारियों के साथ बहुजन चिंतक, पत्रकार, समाज सेवक आदि शामिल हुए। सबके बीच उत्साह जोश और अपने समाज के लिए कुछ करने का जज़्बा दिखाई दिया। अपनी बातों से सभी वक्ता सबका दिल मोह रहे थे। लेकिन चौंकाने वाली बात ये थी कि ज्यादातर कार्यक्रमों में महिलाओं की उपस्थिति सामान्य से भी कम लगी, चाहे वो वक्ता के रूप में हो या दर्शक के रूप में।
बाबा साहेब ने हर क्षेत्र में महिलाओं को आगे रखा है, उनका हर फैसला और नीति महिलाओं के बिना अधूरा था। लेकिन उनकी विचारधारा से जुड़े कार्यों में महिलाओं की उपस्थिति आज भी कम दिखाई देती है। आख़िर क्या कारण है कि महिलाएं आज भी अपने विचार रखने में पीछे हैं?
बीते 31 जनवरी को ‘मूकनायक’ के लिए जगह-जगह कार्यक्रम हुए तो उनमें भी यही स्थिति दिखाई दी। दिल्ली में भी ‘मूकनायक’ के 100वीं वर्षगांठ की खुशी में विशाल आयोजन रखा गया। दिल्ली जैसे शहर में भी महिलाएं अपनी जगह इन कार्यक्रमों में क्यों नहीं बना पाई हैं, इसपर दलित दस्तक पत्रिका के संपादक और इस आयोजन को करवाने वाले अशोक दास का मानना है कि इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा की कमी होना है।
वे कहते हैं, ‘‘ये कार्यक्रम पत्रकारिता से जुड़ा है, जहां महिलाओं की भागीदारी आज भी कम है। लेकिन हमने पूरी कोशिश की हम महिलाओं को अधिक से अधिक कार्यक्रम में शामिल करें, चाहे वो डिस्ट्रब्यूटर के रूप में हो, वक्ता के रूप में हो या दर्शक के रूप में हो। इसके साथ ही महिलाओं के पास घरों की जिम्मेदारी ज्यादा होती हैं और वो दूसरों पर आश्रित होती हैं, जिसके कारण वो घर से बाहर निकलने में आज भी असहज है।’’
दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में लगभग 15 प्रतिशत भागीदारी ही महिलाओं की दिखाई दी। वक्ताओं और एंकर के रूप महिलाएं मौजूद थी। पत्रकारिता से जुड़ी आरफ़ा खानम, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर कौशल पवार, पत्रकारिता से जुड़ी मीना कोटवाल और एंकर के रूप में थी डॉ. पूजा राय। दिल्ली के अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि शहरों में भी इसे आयोजन के रूप में मनाया गया। लेकिन वहां भी महिलाओं की उपस्थिति निराशाजनक ही रही।
दिल्ली विश्वविद्यालय की एड-हॉक प्रोफेसर डॉ. माली सावरिया का इस पर कुछ अलग ही कहना है। उनका मानना है कि आज के समय में शिक्षा का अभाव नहीं बल्कि संसाधनों का अभाव है। शिक्षित व्यक्ति भी अपनी जिम्मेदारी सही से नहीं निभा पा रहे हैं। जैसे वे खुद तो पढ़ लेते हैं लेकिन वो आगे इस समाज के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं।
वे कहती हैं, “इस समाज की महिलाएं पढ़ लिख कर आगे तो बढ़ रही हैं लेकिन उनको समझने के लिए एक अच्छा गाईड या शिक्षक नहीं मिल रहा, जो उनके होने के वज़ूद को समझे और समझाए। इस समाज को एक लेबल मिल चुका है और उस लेबल (जाति) को छुपाने के कारण भी वो अपने कदम पीछे कर लेती हैं।”
इसके साथ ही वे कहती हैं, “लड़कियों में शुरू से ही एक ये सोच विकसित कर दी जाती है कि उन्हें पढ़ना है लेकिन पढ़-लिखकर भी शादी करनी है। यानि अगर वे ग्रेजुएशन के तीन साल पढ़ने आई है तो कई लड़कियां बहुत क्लियर होती है कि अब शादी करनी है और घर में बैठना है। इसके अलावा महिलाओं को पीछे रखने का कारण हमारा डिजिटल मीडिया भी है। इसके कारण वो किताबों से दूर और सोशल मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म पर दिखती हैं।”
सावरिया इसी में जोड़ती हैं, “इसलिए महिलाएं अपने आप को ऐसे कार्यक्रमों में जाने पर ज्यादा विचार नहीं करती। इसके साथ ही उन्हें ये भी डर लगा रहता है कि अगर वे खुलकर बोलेंगी या ऐसे कार्यक्रमों में भागीदारी दिखाएंगी तो लोगों को पता चल जाएगा कि वो किस वर्ग की महिला हैं। आज भी जाति हमारे समाज में जाति को छिपाकर रखा जाता है। 21वीं शताब्दी में होने के बावज़ूद भी बहुजन समाज को अपनी जाति और सरनेम छिपाने की जरूरत पड़ती है। चूंकि अगर जिस समूह में वो लोग रह रहे हैं तो उन्हें डर हैं कि वो समूह उन्हें फिर नहीं अपनाएगा। चाहे वो शिक्षा के क्षेत्र में हो, कार्य के क्षेत्र में हो या सो-कोल्ड समाज में हो। यहां सावरिया का कहना है कि हमारे समाज में संगठन की भी कमी है। अगर एक अच्छा संगठन हो तो लोगों को जोड़ना आसान हो जाता है।”
बाबा साहेब ने महिलाओं के साथ-साथ हर वंचित समाज के लिए आवाज़ उठाई है। इसके लिए वे हर तबके को शिक्षित करना चाहते थे। इसी के संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया का मानना है कि हमारा समाज आज भी मूर्ति पूजन का चलन नहीं छोड़ पाया हैं।इसलिए बाबा साहेब को विचार के रूप में नहीं बल्कि मूर्ति के रूप में पूजा जा रहा है।
चमड़िया कहते हैं, “इन कार्यक्रमों में लाने के लिए सबसे पहले महिलाओं को आगे करना चाहिए। अगर कोई महिला घर के कार्यों में व्यस्त है तो पहले महिलाओं को उन कार्यों में भेजा जाए और अगर वे खुद जा रहे हैं तो अपनी महिला को साथ में लेकर जाए।”
बिना महिलाओं की भागीदारी के बाबा साहेब के सपनों और उनके विचारों को पूरा नहीं किया जा सकता है। देश की पचास प्रतिशत आबादी आज भी अपने विचार और अधिकार रखने में पीछे हैं। महिलाओं के उत्थान के लिए माने जाने वाले बाबा साहेब के कार्यक्रमों और आयोजनों में महिलाओं की उपस्थिति में कमी है। ये रिपोर्ट ‘मूकनायक’ के 100वीं वर्षगांठ पर किए गए आयोजनों को ध्यान में रखकर की गई है।
‘मूकनायक’ अर्थात बे-ज़ुबान लोगों का हीरो। बे-ज़ुबान यानि वो तबका जो जनसंख्या में तो सबसे ज्यादा है लेकिन उनकी जुबान मौजूद कुछ प्रतिशत समाज को बनाया गया है। उनकी इस चालाकी को बाबा साहेब ने समझा और खुद का मराठी अखबार निकाला, जो वंचितों और बहुजनों की आवाज़ बना। उस समय वंचितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए बहुत कम लोग ही उपलब्ध हो पाते थे इसलिए बाबा साहेब ने सवर्णों से भी अपनी आंबेडकरी पत्रकारिता में काम लिया। ‘मूकनायक’ 1920 से 1956 तक ही छप पाया क्योंकि आगे की पढ़ाई को जारी रखने के लिए बाबा साहेब को विदेश जाना पड़ा, जिसके चलते ‘मूकनायक’ बंद करना पड़ा।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने भारत में जाति और महिला समस्या को जोड़कर देखा। भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए सर्वप्रथम आंदोलन सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख ने चलाया था। ज्योतिबा फुले ने स्कूल खोला था जिसमें सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा दिया करती थीं। महिलाओं को कानूनी रूप से अधिकार दिलाने और खासकर पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने की बात बाबा साहेब आंबेडकर ने की।