घर वापसी



इरतक़ा* समझा जिसे, ज़िल्लत का एक सामान है,
बाप-दादा का तरीक़ा ही तेरी पहचान है,
अब ज़रूरी है के हो घर वापसी ‘इंसान’ की,
बंदरों ने एक जलसे में किया एलान है!!


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‘डार्विन’ कहता है सच, हैं पूर्वज हम ही तेरे,
जाने क्यों अपनों से फिर तू हो के बेगाना फिरे,
अशरफ-ए-मख़लूक़**, होने का ये सौदा छोड़ कर,
लौट आ जंगल के सबज़ह-ज़ार में ओ सरफिरे!

सुन के अब बेताब हैं आंसू निकलने के लिए,
‘ज़ुल्म’ जो तूने सहे ‘इंसान’ बनने के लिए,
तू दरख़्तों पर छलाँगें मर सकता था कभी,
आज है मजबूर दो टाँगों पे चलने के लिए!!

दुम कटाई, और खोए तन, बदन के बाल सब,
बंदरों की नस्ल की इज़्ज़त हुई पामाल सब,
बोलियाँ, कपड़े तेरे, तहज़ीब का जंजाल सब,
मिल गई मिट्टी में अपनी ‘अस्मिता’, इक़बाल सब!

बात से समझे तो क्यों जीना करें तुझ पे हराम?
लौट आ जंगल में ‘अपना राज है’ अपना निज़ाम,
हाशिए पर आज तक तारीख़ ने रख्खा जिन्हें,
हम दिलाएंगे हर एक “लँगूर” को उसका मुक़ाम!

आदमी बन कर कहाँ फिरता है ओ शरणार्थी,
फिर से तू बन्दर बने तो यह हुई “घर-वापसी”

(डॉक्टर नदीम ज़फर जिलानी, मेनचेस्टर, इंग्लैंड)

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