अकथ कहानी कनहर की

By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

सोनभद्र: उत्तर प्रदेश का ऊर्जांचल कहे जाने वाले राज्य सोनभद्र से जब आप लम्बी दूरी का सफ़र तय करके दुद्धी गाँव पहुंचते हैं, तो दुद्धी से ही एक रास्ता फूटता है जो छत्तीसगढ़ और झारखंड के गांवों की ओर जाता है. इस रास्ते पर मुड़ते ही लगभग हरेक किलोमीटर पर ‘प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना’ की तख्तियां दिखाई देती हैं. लगभग 10 किलोमीटर के बाद पक्की सड़क कच्चे रास्ते में बदल जाती है. इस सड़क से उतरते रेत पर बने रास्तों से एक नदी से सामना होता है, इस नदी का नाम है ‘कनहर’. कनहर सोन की सहायक नदी है. उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े जिले सोनभद्र का क्षेत्रफल 6788 वर्ग किलोमीटर है, जिसके आधे से भी ज़्यादा हिस्सा घने जंगलों से घिरा हुआ है. यहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है. इन आदिवासियों को रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट के अनुच्छेद 4 व 20 ने उनके मूलभूत वनाधिकारों से वंचित रखा है.


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छत्तीसगढ़ से बह चली आ रही नदी कनहर की एक सहायक नदी ‘पांगन’ के किनारे एक बड़ा लेकिन उजड़ा-सा शामियाना लगा हुआ है. हम नदी के बीचों-बीच मोटरसाइकिल चलाते हुए उस पार पहुँचते हैं. इस शामियाने में कई पुरुष-स्त्री, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, प्रधान-पूर्वप्रधान, छोटी जात-बड़ी जात सब बैठे हुए हैं. ये यहां आज से नहीं 23 दिसम्बर 2014 से बैठे हुए हैं. गिरती हुई शाम के बीच एक शराब के नशे में झूमता हुआ आदिवासी अपने बदन को झटका देते हुए पास से चिल्लाता गुज़रता है, ‘कुछ नहीं होगा. बांध बनेगा. पैसा भी नहीं मिलेगा. ज़मीन भी नहीं मिलेगी. सब लोग यहीं धरना देते-देते डूब जाओगे….कुछ नहीं होगा.’


अकथ कहानी कनहर की / Photos o Kanhar story
कनहर नदी, जिस पर बाँध का निर्माण हो रहा है

कनहर परियोजना उत्तर प्रदेश की एन.डी. तिवारी सरकार द्वारा 1976 में पास की गयी परियोजना है. कई सालों से बंद पड़ी इस परियोजना पर 2014 के आखिरी दिनों में अचानक कार्य शुरू कर दिया गया. उसके बाद आसपास के गाँवों में रह रहे आदिवासी इस बाँध के बनने पर आपत्ति जताने कार्यस्थल पर पहुंचे तो उन्हें खदेड़ दिया गया. उसके बाद से 23 दिसम्बर से लेकर आजतक गांववाले इस परियोजना के विरोध में बैठे हुए हैं. इस परियोजना पर कई दिनों से कार्य बंद रहा. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 2010 में कार्य को फ़िर से शुरू करने के लिए नई आधारशिला राखी, लेकिन काम नहीं शुरू हो सका. उसके बाद 2012 में शिवपाल सिंह यादव ने भी इस कार्ययोजना को शुरू करने के लिए आधारशिला रखी, लेकिन फ़िर भी काम शुरू नहीं किया जा सका.

इस मामले को पूरी तरह से समझने के लिए मामले के इतिहास को समझना आवश्यक है. 1976 में नारायण दत्त तिवारी द्वारा बाँध के कार्य का शिलान्यास किया गया था. उस दौरान बाँध के ‘जलमग्न’ क्षेत्र के भीतर अपनी ज़मीन खोने वाले किसानों से वादा किया गया कि सभी किसानों को 5-5 एकड़ कृषियोग्य भूमि और सरकारी नौकरी दी जाएगी.


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धरने पर बैठे आदिवासी

परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण का कार्य साल 1978-1982 तक किया गया. असल धांधली यहां से शुरू होती है. पांच किसानों को ही मुआवजे का पूरा भुगतान किया गया. प्रतिकर का भी भुगतान सिर्फ़ 80 प्रतिशत किसानों को किया गया. इसे बाकी किसानों पर लागू नहीं किया गया. इस बाँध के बनने से झारखंड और छत्तीसगढ़ के भी गाँव बाँध के डूब या जलमग्न क्षेत्र में आएंगे. अब तीन राज्यों के बीच असहमति का पेंच फँसा तो साल 1989 से इस बाँध का कार्य बंद कर दिया गया. उसके बाद से पिछले 25 सालों के भीतर इस परियोजना पर कोई कार्य नहीं हुआ.

इस सबके बाद बारी आती है भूमि अर्जन अधिनियम 2013 की. इसे यदि मोटी-मोटी भाषा में समझें तो यह अधिनियम कहता है कि किसी परियोजना के शुरू होने के पांच सालों के भीतर तक यदि भौतिक रूप से भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया है, तो अधिग्रहण वहीं समाप्त हो जाता है. इसके बाद भी यदि सरकार उस परियोजना को फ़िर से शुरू करना चाहती है तो उसे फ़िर से भूमि का अधिग्रहण करना होगा. फ़िर से पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का आंकलन करते हुए आवंटन और मुआवज़े का पैमाना बनाना होगा. यानी पुराना अधिग्रहण किसी भी सूरत में मान्य नहीं होगा. इसके साथ इस अधिनियम का यह भी पक्ष जानने योग्य है कि किसान परिवार की तीन पीढ़ियों को पृथक समझकर मुआवजे व भूमि का आवंटन किया जाए ताकि भविष्य में उनके गुजर-बसर में कोई भी रुकावट न आए. इसके साथ यह भी कि परियोजना कमांड क्षेत्र यानी मुख्य क्षेत्र में भी विस्थापित किसान को ढाई एकड़ का भू-भाग दिया जाए.


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बाँध का निर्माण कार्य

2013 में आए इस अधिनियम की अनदेखी करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने बाँध के निर्माण का कार्य फ़िर से शुरू करा दिया. 5 दिसम्बर 2014 को पूरे पुलिसिया अमले के साथ बाँध का निर्माण शुरू किया गया और ऐसा शुरू किया गया कि निर्माण क्षेत्र से 1.5 किलोमीटर की दूरी तक कोई भी व्यवधान न पैदा हो. धरने के पहले ही दिन एसडीएम अभय कुमार, सीओ देवेश कुमार शर्मा और कोतवाल जीतेंद्र सिंह धरना स्थल अपर धरना कुचलने की हैसियत से पहुंचे. गांववाले बताते हैं कि शुरूआती मनुहार के बाद जब आदिवासी अपनी मांगों से टस से मस न हुए तो पुलिसवालों ने जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल कर गाली देना और भगाना शुरू कर दिया. इस पर गाँव वाले उग्र होने लगे तो पुलिस पीछे भागने लगी. और भागने में कुच्छ सिपाही चोटिल हो गए. अब इसके लिए पुलिस ने उलट गांववालों पर ही मुकदमा दर्ज कर दिया कि गाँव के नागरिकों के हमले के चलते पुलिसकर्मी घायल हो गए.

जाहिरा तौर पर पुलिस अधिकारी इन आरोपों को नकार देते हैं. इसके बाद गांववालों की एक आमसभा के बीच पीएसी की एक टुकड़ी आ गयी और गाँववालों को मारना-पीटना शुरू कर दिया. मुख्य कार्यस्थल पर धरना दे रहे लोगों को खदेड़ दिया गया और कहा गया कि धरना करना है तो अपने गाँवों में जाकर करो.

इस बाँध से उपजने वाली दिक्कतों का सामना करने के लिए ग्राम स्वराज समिति से जुड़े एक्टिविस्ट महेशानन्द और विश्वनाथ खरवार के संयुक्त प्रयास के तहत ‘कनहर बचाओ आंदोलन’ की शुरुआत हुई. विश्वनाथ खरवार कहते हैं, ‘हमारे आदिवासी भाई-बंधु चाहते हैं कि गाँव बने विकास को. मुआवज़ा मिले, ज़मीन मिले. हम सब भी यही चाहते हैं कि गाँव का विकास हो. लेकिन प्रश्न है कि विकास की परिभाषा क्या होनी चाहिए? इन कीमतों पर विकास होगा तो वह कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.’


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बाँध से प्रभावित होने वाले गाँवों के सभी बाशिंदों में एकता है

विश्वनाथ खरवार आगे कहते हैं, ‘मेरी राय है कि बाँध नहीं बनना चाहिए. बाँध बन जाएगा. बहुत संघर्ष होगा तो घर, ज़मीन और मुआवजा भी मिल जाएगा. लेकिन बनी-बनाई पूरी सभ्यता और प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट हो जाएगा.’ हम इन्सान तो जगह बदल भी लेंगे लेकिन जर-जंगल-ज़मीन-जानवर कहां जाएंगे? और क्या गारंटी है कि बाँध बनने के बाद हमारा संघर्ष कम हो जाएगा? कल को बांध की ऊँचाई बढ़ाने की बात उठेगी तो हमें फ़िर से पीछे भगाया जाएगा.’

दोपहिए पर हमने गाँव-गाँव होते हुए छात्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर प्रदेश के उन गाँवों का मुआयना किया, जो इस बांध के पूरा होने के बाद पूरी तरह से डूब जाएंगे. एक व्यापक भूभाग खतरे की घंटी के साए में है. झारखंड के झारा गाँव के उपसरपंच रामेश्वर प्रसाद यादव कहते हैं, ‘अब इस कदर हमारी मांगों की अनदेखी हो रही है कि आदिवासी सोचने लगे हैं कि बिना किसी लाभ के ही उनके घर-खलिहान डूब जाएंगे.’

आदिवासियों की यह समस्याएँ अब राजनीतिक रोटी सेंकने के काम में आ रही हैं. भाजपा बांध के पास होते वक्त सत्ता में रही कांग्रेस को जिम्मेदार बता रही है, जबकि कांग्रेस छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को दोष दे रही है. पास में ही सटे छत्तीसगढ़ के गाँव के रामेन्द्र खरवार कहते हैं, ‘भाजपा के लोग हम लोगों को कहते हैं कि केवल पांच गाँव प्रभावित होंगे लेकिन कांग्रेस दावा करती है कि 27 गाँव बाँध के डूब क्षेत्र में आएंगे. अब हमें सही जानकारी भी नहीं मिल रही कि लड़ाई को सही दिशा दी जाए.’ भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और छत्तीसगढ़ के पूर्व सिंचाई मंत्री रामविचार नेताम कनहर सिंचाई परियोजना के निर्माण का पूरा ठीकरा अविभाजित मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पूर्व मंत्री रामचंद्र सिंह पर फोड़ते हैं. उनके अनुसार उन्होंने रामचंद्र सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार से बाँध निर्माण के बाबत कोई भी समझौता करने से मना किया था.


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दांव पर लगी प्राकृतिक संपदा

इस विषय में राजनीतिक कैनन को और विस्तार देते हुए बात करें तो मालूम होता है कि समाजवादी पार्टी के लिए यह बांध हर हाल में महत्वपूर्ण है. उत्तर प्रदेश में दो सालों के बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. अखिलेश सरकार को जल्द ही अपना रिपोर्ट कार्ड सामने रखना होगा, उसके लिए यह बांध के एक बड़े सिक्के की तरह साबित होगा. दुद्धी विधानसभा क्षेत्र की विधायक रूबी प्रसाद भी इस खेल में अपनी चाल चल रही हैं. उन्होंने जून 2014 में गाँव में एक जनसभा में दावा किया था कि यहां के ग्रामीणों को पूरा अधिकार दिलाएंगे, उसके बाद ही बांध के निर्माण का कार्य पूरा होगा. लेकिन बिना अधिकार लिए-दिए कार्य शुरू हो गया. दिसम्बर में धरना शुरू होने के बाद वे फ़िर से आईं. जिन ग्रामीणों के अधिकारों के लिए वे मंच से बात कर रही थीं, उन्हीं से कहने लगीं कि आप सब बांध निर्माण में सहयोग कीजिए, धरना-प्रदर्शन से कुछ हासिल नहीं होगा.

बांध की शक्ल-ओ-सूरत पर नज़र डालें तो इन आदिवासियों का खौफ़ और भी ज़्यादा साफ़ हो जाता है. केन्द्रीय जल आयोग द्वारा सिंचाई की दृष्टि से पारित किए गए किस बांध की लम्बाई तीन किलोमीटर से भी ज़्यादा है. इसकी प्रारंभिक ऊंचाई 39.9 मीटर है, यदि इसे पास में स्थित रिहंद से भी जोड़ दिया गया तो ऊँचाई बढ़कर 52 मीटर से भी ऊपर जा सकती है. इस परियोजना के सही डूब क्षेत्र का आंकलन आजतक नहीं हुआ है. सरकारी मंसूबों का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि तीन बार हुए सरकारी सर्वे में आए परिणाम 2181, 2925 और 4143.5 हेक्टेयर हैं. यानी तीन बार हुए सर्वें में भूभाग के तीन ऐसे आंकड़े मिले हैं, जो बाँध बनने के बाद डूब जाएंगे. लगभग 27 करोड़ की अनुमानित धनराशि से शुरू हुई परियोजना की लागत अब 2250 करोड़ के ऊपर पहुंच गयी है.

अब पिछले चार महीनों में आदिवासियों के खिलाफ़ फर्जी एफआईआर फ़ाइल करने और गिरफ़्तार करने की घटनाएँ बेहद आम हो गयी हैं. यदि ज़मीनी हकीकत का रुख करें तो उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के लगभग 80 गाँव इस बांध के बनने के बाद डूब जाएंगे. इन 80 गाँवों के दस हज़ार से भी ज़्यादा परिवारों को विस्थापन का सामना करना होगा. लेकिन सरकारी सर्वे में कुल प्रभावित परिवारों की संख्या महज 1810 बतायी गयी है. आदिवासी कहते हैं कि सरकार ने दोबारा सही तरीके से सर्वे करने की कोई जहमत ही नहीं उठायी. उनकी मांग है कि फ़िर से सर्वे कराया जाए, नए तरीके से अधिग्रहण किया जाए और पुराने मुआवज़े के साथ-साथ भूमि के वर्तमान मूल्य को ध्यान में रखते हुए मुआवज़े का आवंटन किया जाए.

जो भी अधिकारी निर्माण कार्य देख रहे हैं, उनसे फ़ोन पर संपर्क करने पर वे या तो किस्म-किस्म के बहाने बताने लगे या ग्रामीणों पर दोष मढ़ने लगे. एक अधिकारी ने कहा कि ‘आईये, आराम से मिल-बैठकर बात करते हैं.’


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विश्वनाथ खरवार

मौजूदा तारीख में ‘कनहर को बहने दो, हमको जिंदा रहने दो’ और ‘जंगल हमारा-आप का, नहीं किसी के बाप का’ जैसे नारों से कनहर के आस-पास बसे इलाके गूँज रहे हैं. दुद्धी से कनहर की ओर जाते रास्तों पर भी ये नारे लिखे मिल रहे हैं. जब आदिवासी जब अपने नुकसानों की गिनती करना शुरू करते हैं, वह रोंगटे खड़े कर देने वाला सच है. सुंदरी गाँव के रामजीत गुप्ता कहते हैं कि उनकी 15 बीघा की जमीन में 13 बीघा का मुआवजा पुराने दर से मिला और बचा हुआ 2 बीघा अधिग्रहित कर लिया गया. रामजीत कहते हैं कि सरकारी अफसरों के लिए शादी-शुदा आदमी ही परिवारवाला है, गैर-शादीशुदा का कोई परिवार नहीं है. वह उनकी पीढ़ियों को मुआवजा के हकदारों में नहीं गिनना चाह रही है. ग्रामीण आरोप लगाते हैं कि मुआवजा आवंटन में धांधली हुई है. उनके अनुसार, जिस शादीशुदा के पास एक बिस्वा भी ज़मीन नहीं थी, उन्हें 50 लाख का मुआवजा दिया गया और 50 बीघा वाले गैर-शादीशुदा लोगों को 7 लाख का मुआवजा दिया गया.

पास के ही भीसुर गाँव के शिवप्रसाद खरवार कहते हैं, ‘हमारी संस्कृति और विरासत लुप्त होने जा रही है. मुझे खुद 75 बीघे का नुकसान हो रहा है. हम लोगों की जन्मभूमि पर हमारी ही ग्रामपंचायत को बाँट कर कार्य किया जा रहा है, ऐसे नागरिकों के बीच वैमनस्य फैलेगा.’ लोग कहते हैं कि ज़मीन की नापजोख में भी भयानक धांधली हुई है. यदि नापजोख में किसी भी व्यक्ति की जमीन में 4-5 फुट की ऊँचाई या 15-20 फुट की पहाड़ी आ जा रही है तो अधिकारियों ने उसे नहीं गिना. अधिकारियों की दलील है कि वह हिस्सा नहीं डूबेगा.

यह विकास का नया पैमाना है जहां कुछ भी किसी भी तरह अंक लिया जाता है. सोनभद्र बहुत दिनों से पूंजीपतियों और ऊर्जा के भूखे लोगों का शिकार इलाका रहा है. यहां की हवा भी ख़राब हो चुकी है और पानी भी. हवा में जलते हुए कोलतार की महक हमेशा मौजूद रहती है. आदिवासी बताते हैं कि अखबार वाले अधिकारियों से मिलने के बाद खबर नहीं छापते हैं. इसकी पूरी कहानी इक्का-दुक्का जगहों पर ही मौजूद है. लेकिन इस कहानी का भविष्य क्या होगा, इससे ही पता चल जाता है कि वहां आदिवासी चार दिनों से पुलिस की गोलियों और आंसू गैस के गोलों का सामना कर रहे हैं. लोकतंत्र को ऐसे किसी बाँध की ज़रूरत नहीं है जिससे अमूल्य जंगल और अमूल्य सभ्यता का नुकसान होता हो. सुन्दरी क्षेत्र के जंगल अपनी विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं, लेकिन ज़ाहिर है कि बांध के निर्माण के बाद ऐसी कोई भी विविधता नहीं बचेगी.साथ मौजूद जावेद बताते हैं कि बरसात के दिनों में झारखंड, छत्तीसगढ़ के जंगलों से तरह-तरह के जानवर आते हैं. पानी की तेज़ी इतनी होती है कि जिस नदी में आप गाड़ी चलाते हुए इधर आए हैं, उसके किनारे खड़े होने पर भी बह जाने का ख़तरा होता है.

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