आख़िर कैसे चम्पारण में जीत सकी भाजपा?

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

चम्पारण: बीजेपी बिहार में हार गई, मगर चम्पारण में उसका दबदबा क़ायम रहा. चम्पारण में भाजपा का न सिर्फ़ वोट शेयर बढ़ा है, बल्कि दूसरे ज़िलों की तुलना में अच्छी-ख़ासी सीटों पर सफलता भी मिली है.


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यह राजनीतिक विश्लेषकों के लिए हैरानी की बात हो सकती है. सूबे में चारों ओर मात खाने वाली पार्टी आख़िर एक विशेष हिस्से में क्यों तन कर खड़ी हो गई?



लेकिन चम्पारण के स्थानीय राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि इसकी वज़ह इस इलाक़े में भाजपा को मिला संघ का आशीर्वाद है. संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने चम्पारण के इलाक़े में अरसे से एक उपजाऊ ज़मीन तैयार की है. ऐसे में भाजपा को सिर्फ़ ज़मीन पर पौधा लगाना था और नतीजे में वोटों का लहलहाता खेत उसकी झोली में आ गया.

पश्चिम चम्पारण में रहने वाले पन्नालाल राकेश कुमार का मानना है कि भाजपा के ‘कम्यूनल कार्ड’ ने यहां काफी अच्छे से काम किया. एक सचाई यह भी है कि चम्पारण के लोगों में साम्प्रदायिकता काफ़ी तेज़ी से बढ़ी है. संघ व उसके सहयोगी संगठन यहां हमेशा से सक्रिय रहे हैं. दूसरा कारण यहां कई जगह महागठबंधन का अपने उम्मीदवार का सही चयन न कर पाना भी है. कई सीटों पर महागठबंधन के बाग़ी उम्मीदवार ही उनके हार का कारण बने हैं.

वहीं अरविन्द कुमार मानते हैं कि खासतौर पर राधामोहन सिंह की टीम ने यहां काफी मेहनत की थी. उनका बूथ मैनेजमेंट काफ़ी ज़बरदस्त रहा. महागठबंधन अति-आत्मविश्वास के कारण यहां बेहतर नहीं कर पाई. बूथ मैनेजमेंट काफ़ी कमज़ोर रहा. जबकि इस मैनेजमेंट के लिए संघ व सहयोगी दल पिछले एक-डेढ़ साल से यहां लगे हुए थे. लोगों को ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर एकजुट करने की कोशिश काफी हद तक यहां कामयाब दिखी.

पूर्वी चम्पारण में रहने वाले पत्रकार अक़ील मुश्ताक़ का भी मानना है कि महागठबंधन कई सीटों पर जातीय समीकरण समझने में पीछे रह गई. जहां महागठबंधन ने एक मुस्लिम उम्मीदवार उतारा था, वहां यादव ने उन्हें वोट नहीं दिया क्योंकि वहां दूसरे पार्टी से एक यादव उम्मीदवार भी मैदान में था. यादवों ने उसे ही वोट किया.

वह बताते हैं कि मोतिहारी शहर का उम्मीदवार मोतिहारी का रहने वाला भी नहीं था. उसे किसी और जिले से लाकर यहां का उम्मीदवार बनाया गया था. उसके अलावा यहां भाजपा का ‘साम्प्रदायिक कार्ड’ जमकर चला. अख़बार में छपी पाकिस्तानी झंडा लहराने वाली ख़बर का इन्हें खूब लाभ मिला.

यदि आंकड़ों की बात करें तो भाजपा इस बार पूरे बिहार में सिर्फ़ 53 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई है और इन 53 सीटों में 12 सीटें भाजपा को चम्पारण में मिली हैं. उसी प्रकार लोजपा को सिर्फ़ दो सीटों पर ही सफलता मिली है, जिसमें उसे एक सीट चम्पारण से ही मिली है.

पश्चिम व पूर्वी चम्पारण जिले में कुल 21 सीटें हैं. इन 21 सीटों में 12 बीजेपी व एक लोजपा को मिली है. वहीं एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चुनाव जीता है. जबकि जदयू सिर्फ़ एक सीट पर जीत दर्ज कर पाई है. हालांकि राजद को यहां 4 सीटें मिली हैं तो वहीं 2 सीटों पर कांग्रेस भी कामयाब रही है. अगर बात 2010 विधानसभा चुनाव की करें तो यहां 21 सीटों में से 10 सीटें बीजेपी को मिली थी. 8 सीटों पर जदयू की जीत हुई थी और 3 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों के झोली में गई थी.

स्पष्ट रहे कि कभी गांधी का कर्मभूमि रहा यह चम्पारण हमेशा से राजनीतिक रूप से समृद्ध रहा है. हमेशा से यहां के लोग वैचारिक स्वतंत्रता से अपनी महत्वाकांक्षा के आधार पर फैसले लेते रहे हैं. चम्पारण का चप्पा-चप्पा ऐतिहासिक, पौराणिक और आज़ादी के आंदोलन के स्वर्णिम अध्यायों से अटा पड़ा है. कभी इस धरती से मुस्लिम इंडीपेंडेन्ट पार्टी के टिकट से हाफ़िज़ मुहम्मद सानी पहले विधायक बने थे और 1937 की मो. युनूस की सरकार में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पीर मुहम्मद मुनिस जैसे लोग यहां आज़ादी के पूर्व भी साम्प्रदायिकता का विरोध करते रहे हैं.

लेकिन अब चम्पारण की ज़मीन इन दिनों अजीब साज़िश की शिकार हो चुकी है. यह साज़िश यूं तो बेहद ही चुनावी थी, लेकिन थी घातक. चुनावी मौसम में यहां हिन्दू-मुसलमान के नाम पर इस ज़मीन को सुलगाने की जमकर कोशिश की जाती रही. हाल में हुई कई घटनाएं इस बात का ज़िन्दा सबूत हैं. पिछले एक महीने में यहां छोटी-छोटी बातों को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की लागातार की जाती रही हैं. अब यह तमाम कोशिशें इस तथ्य की ओर इशारा करती हैं कि ये छिटपुट या अनायास घटनाएं नहीं थी, बल्कि एक संघटित तरीक़े से हिन्दू-मुसलमानों को आमने-सामने कर वोटों की मोटी फसल काटने की तैयारी थी, जिसका फ़ायदा भरपूर ढंग से इस चुनाव में यहां भाजपा को मिला है. यहां यह भी बताते चलें कि पश्चिम चम्पारण कभी जनसंघ का भी गढ़ रहा है, लेकिन जनसंघ कभी कामयाब नहीं हो सकी थी, लेकिन उन्हीं के राह पर बीजेपी आज ज़रूर कामयाब है.

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