रमज़ान का साथी रूह अफ़ज़ा…और क्या चाहिए

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

रूह अफ़ज़ा, ये कोई पेय या महज़ शरबत नहीं है. एक सभ्यता का नाम है. एक पूरे त्यौहार का नाम, एक पूरी क़ौम का नाम, एक आराम का नाम, अव्वल तो यह कि यह एक मौसम का नाम है.


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यह तलब का भी नाम है. शीशे की पारदर्शी बोतल में भरा लाल गाढ़ा द्रव. देखने में गुलाब का जीता-जागता अर्क. सूंघो तो लगता है कि गुलाब का रस नाकों के भीतर निचोड़ दिया गया हो.


Rooh Afza 1987
साल 1987 में छपा रूह अफ़ज़ा का एक विज्ञापन

मूलतः गाज़ियाबाद से ताल्लुक रखने वाले हक़ीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद ने जब पहली बार रूह अफ़ज़ा का फार्मूला बनाया होगा तो उन्हें भी नहीं पता होगा कि उन्होंने किस नशे की खोज की है. भारत की बात ही कर सकता हूं, रूह अफ़ज़ा ने भारत की गर्मियों में बच्चों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कोला और सोडे से दूर रखा. निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों ने थोड़ी-सी भुजिया के साथ रूह अफ़ज़ा परोसा तो मेहमानों के सामने उनकी इज़्ज़त बच आयी.

गिलास में गिरता एक ठंडा ख्वाब, रूह को ठंडी करती एक इबादत.

साल 1906 में यूनानी चिकित्सक हाफ़िज़ अब्दुल मजीद ने हमदर्द दवाखाना खोला तो रूह अफ़ज़ा बनायी. रूह अफ़ज़ा मूलतः यूनानी पद्धति से बनाया गया पेय था. देश आज़ाद हुआ तो विभाजन की कालिख़ भी दक्षिण एशिया को भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश नाम से तीन बड़े देश दे गयी.

तब तक अब्दुल हमीद तो चल बसे थे, उनके दो बेटे थे. बड़ा बेटा यहीं रुक गया, छोटा चला गया पाकिस्तान. ‘हमदर्द(वक़्फ़) दवाखाना’ तो यहां चल ही रहा था, छोटे भाई ने कराची के दो कमरों में भी हमदर्द शुरू कर दिया. फिर क्या, विभाजन के दर्द के बाद जिस चीज़ ने सीमा के दोनों ओर बसे मुसलमानों को जोड़ा, वह थी रूह अफ़ज़ा.


Rooh Afza 1989
साल 1989 में प्रकाशित हुआ रूह अफ़ज़ा का विज्ञापन

एक अदृश्य धागा बनाया रूह अफ़ज़ा ने, जिसका ज़िक्र इतना कम है कि नहीं है.

मोटा होने/ करने में रूह अफ़ज़ा ने बहुत मदद की. दूध में डालो एक टुकड़ा बर्फ और एक ढक्कन रूह अफ़ज़ा. एक गिलास पानी में एक चम्मच रूह अफ़ज़ा और चीनी ने तो कई रमज़ान की इफ्तारी की ठंडक लाने का कम किया.

रोज़े के दौरान रूह अफ़ज़ा के इस्तेमाल पर पूरी इबारत लिखी जा सकती है. कांच के गिलास की दीवार से सटाकर रूह अफ़ज़ा उड़ेलो, तो रौशनी में देखने पर लगता है कि ख़ुराक में कोई रूहानी आफ़ताब मिलने आ रहा है. पानी में घुले रूह अफ़ज़ा के शरबत की ओर देखो, तो प्यास का बड़ा हिस्सा मुस्कुराते-मुस्कुराते चुप होता रहता है. केले, सेब और अनार को काटकर एक साथ रखो और उन पर गिराओ दो ढक्कन रूह अफ़ज़ा, तैयार एक बेमिसाल ‘डेज़र्ट’. मीठे की तलब है तो बस यूं ही क्यों नहीं पी लेते एक ढक्कन रूह अफ़ज़ा, प्यास भी बुझेगी और तलब भी.

इसके एक विज्ञापन में दीवार पर लिखे ‘लालच बुरी बला है’ को काटकर ‘लालच एक कला है’ कर दिया जाता है. दिल्ली के कई हिस्सों में रबड़ी के साथ जब फलूदा दिया जाता है तो उस पर एक चम्मच रूह अफ़ज़ा डाली जाती है.

एक और विज्ञापन में लाइनें आती हैं, हम से हैं ये महफिलें, हम से दिल लगाना है/ और क्या है चाहिए, हम से ही ज़माना है. पूछना ज़ाहिर है कि रूह अफ़ज़ा है तो और क्या चाहिए.


Rooh Afza
…और क्या चाहिए

रूह अफ़ज़ा के बने शरबत की महक सूंघो तो लगता है जैसे हिमालय की गोद में बैठकर तुमने कोई चश्मे का पानी चख लिया हो.

रूह अफ़ज़ा के साथ-साथ एक हरे रंग का द्रव और आया, नाम था ‘खस’. ‘खस’ लाने का प्रयोजन रूह अफ़ज़ा को दूर करना और आयुर्वेद की विचारधारा को और पास लाना था. इस शरबत को लाने का प्रयोजन जितना संदिग्ध था, उतनी ही संदिग्ध इसकी प्यास बुझाने की ताक़त.

कुछ गर्मियों पहले तक भारतीय बाज़ार में खस और रूह अफ़ज़ा के बीच जंग चलती रही. यह विदेशी बनाम स्वदेशी की जंग तो थी ही, कुछ रूपों में यह हिन्दू बनाम मुसलमान की भी जंग होती गयी. कितना सुखद है कि इस जंग में रूह अफ़ज़ा के स्वदेशी और संस्कृति ने नहीं, उसकी सचाई ने उसका साथ दिया और खस ने घुटने टेक दिए.

बनारस के कचहरी के चौराहे पर रूह अफ़ज़ा की आदमकद बोतल बनायी गयी है, गर्मी की दोपहर में यहाँ से महज़ गुज़रते ही प्यास की हसरतें पूरी होने लगती हैं.


Rooh Afza Kachahari Banaras
बनारस में कचहरी पर लगा रूह अफ़ज़ा का विज्ञापन

रमज़ान में रूह अफ़ज़ा किसी वरदान की तरह है. बनारस और आसपास के कई लोगों से बात की कि रूह अफ़ज़ा का रमज़ान में कितना महत्त्व है. जवाब इतने मिले कि एक साथ रख पाना मुश्किल हुआ. नाम सबके लिए जा रहे. मुमताज, चांद, बरकत अली, शेर अली, नासिर, अशफ़ाक़ मेमन, मेहरुन्निसा, अंजुमन, बेग़म जान जैसे हज़ारों रोज़ेदार अपनी इफ्तारी के बीच का सबसे महत्वपूर्ण स्थान रूह अफ़ज़ा को देते हैं.

बाइक पर पीछे बैठा सलमान जब कचहरी पर लगे रूह अफ़ज़ा के विज्ञापन को देखता है तो कहता है, ‘गुरु! बाऊ बचपन में रमजान में लियात रहे रूह अफ़ज़ा. हम रोजा तो रहते थे नहीं, अलबत्ता रूह अफ़ज़ा धकेल मारते थे पूरा. फिर हमको बाऊ मारते थे.’

रोचक है कि एक पेय ने हिन्दू, मुसलमान, भारतीय, गैरभारतीय, अरबी, यूनानी, पाकिस्तानी, अफगानी, अमीर और गरीब के फ़र्क़ को कितनी चुप्पी के साथ मिटा दिया है. यही तो है, अपना, मेरा, तेरा और सबका रूह अफ़ज़ा.

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