Nasiruddin Haider Khan for TwoCircles.net
कोई नारा, कोई शख्स या संगठन यूं ही नहीं लगाता. नारों का मुकम्मल दर्शन होता है. वे दर्शन, महज़ चंद शब्दों के ज़रिए विचारों की शक्ल में ज़ाहिर होते हैं. ये मौजूदा हालात पर टिप्पाणी करते हैं. अक्सर ये आने वाले दिनों का ख़ाका भी ज़ाहिर करते हैं. इसलिए कुछ लोग या संगठन कुछ नारों पर ज़ोर देते हैं और कुछ, कुछ नारों से दूर रहते हैं. इसलिए नारों के पीछे छिपे विचारों को जानना, उनके इतिहास को समझना ज़रूरी होता है.
आज 23 मार्च है. 1931 में आज ही के दिन सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह को फांसी दी गई थी. ऐसे वक़्त में जब नारों के ज़रिए खेमेबंदी हो रही हो, यह देखना दिलचस्प होगा कि आज़ादी के आंदोलन की सबसे मज़बूत क्रांतिकारी धारा ने अपने लिए क्या नारे चुने थे.
इतिहासकार बताते हैं कि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) की ओर से जब भगत सिंह और बटुकेश्वदर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका तो उन्होंने तीन नारे लगाए. ये नारे थे- ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ और ‘दुनिया के मज़दूरों एक हों’…
भगत सिंह और उनके साथियों का एक और संगठन था, नौजवान भारत सभा… इरफ़ान हबीब बताते हैं कि वह (नौजवान भारत सभा), साम्प्रदायिक सौहार्द्र को राजनीतिक कार्यक्रम का एक अहम हिस्सा मानती थी. लेकिन कांग्रेस के विपरीत वह न तो अलग-अलग धार्मिक मतों के तुष्टिकरण में यक़ीन करती थी और न ही सेक्यूलरिज़्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए ‘अल्लाहो अकबर’, ‘सत श्री अकाल’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाती थी. इसके विपरीत वह ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ और ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाती थी.
इंक़लाब ज़िन्दाबाद
यानी अगर भगत सिंह और उनके साथियों के ख्याल को समझना है, तो इन नारों को समझना ज़रूरी है. इन नारों में सबसे अहम नारा है, ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’
बम कांड में गिरफ्तारी के बाद सबसे ज्यादा इसी नारे पर चर्चा हुई. ज़िन्दगी के आख़िरी दो साल, भगत सिंह के विचारों की पुख्तगीक के भी साल हैं. इसलिए इस नारे का ज़िक्र कई मौक़ों पर वे करते हैं.
उनमें इंक़लाब और बाकी नारों का खाका, परत दर परत साफ़ होता जाता है. इंक़लाब शब्द के आधार पर जब इन्हें घेरने की कोशिश हुई तो वे एक सम्पादक को लिखते हैं, ‘…‘इंक़लाब’ शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए. इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगों के हितों के आधार पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न विशेषताएं जोड़ी जाती हैं. क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है.’
…क्रांति (इंक़लाब) का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आंदोलन नहीं होता. बम और पिस्तौल कभी-कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं… केवल इस कारण से बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हो जाते. …क्रांति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा है.’ लोग साधरणतया जीवन की परंपरागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से ही कांपने लगते हैं. यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है.
दुनिया के मज़दूरों एक हों
सवाल यह भी था कि इंक़लाब क्यों होना चाहिए और इंक़लाब के बाद क्या होगा?
भगत सिंह जवाब देते हैं, ‘क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है. वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है –अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन. समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जाता है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं. दुनिया भर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैय्या कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढ़कने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है. सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर जाते हैं. इसके विपरीत समाज के शोषक पूंजीपति ज़रा-ज़रा सी बात के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं.’
भगत सिंह के विचार के मुताबिक़ इंक़लाब समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों के लिए होगा.
साम्राज्यवाद मुर्दाबाद यानी साम्राज्यवाद का नाश हो
दुनिया के मज़दूर क्यों एक हों? एक होकर क्या करेंगे?
भगत सिंह लिखते हैं, ‘…देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यक/ता है. …जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य तथा राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को उसके क्लेरशों से छुटकारा मिलना असंभव है. …क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है…. स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है. …क्रांति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाए हैं…’
हिन्दोस्तां ज़िन्दाबाद
भगत सिंह और उनके साथियों का एक अहम दस्तावेज़ है, क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा. ये इनके उन नारों के दर्शन का निचोड़ है, जिसे उन्होंने नया मुल्क बनाने के लिए अपनाया था. इनका हिन्दोस्तां, महज़ नक्शा नहीं है. इसमें भारत में रहने वाले किसान और मज़दूर हैं.
इस मसौदे की चंद बातें देखें तो यह बात साफ़ हो जाती है. जैसे- ‘इंक़लाब का सिर्फ़ एक ही अर्थ हो सकता है, जनता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना. क्रांति जनता के लिए होगी. इंक़लाब के बाद साफ़-साफ़ निर्देश होंगे –सामंतवाद की समाप्ति. किसानों के कर्जे ख़त्म करना. क्रांतिकारी राज्य की और भूमि का राष्ट्रीयकरण ताकि सुधरी हुई व साझी खेती स्थापित की जा सके. रहने के लिए आवास की गारंटी. किसानों से लिए जाने वाले सभी खर्च बंद करना. सिर्फ़ इकहरा भूमिकर लिया जाएगा. कारखानों का राष्ट्रीयकरण और देश में कारखाने लगाना. आम शिक्षा. काम करने के घंटे ज़रूरत के अनुसार कम करना.’
कुल मिलाकर यह मुकम्मल जीता-जागता समाज बनाने का खाका है.
इस मौसेदे को अमली जामा पहनाने के लिए वे नौजवानों से मुख़ातिब होते हैं और कहते हैं, ‘इंक़लाब का अर्थ मौजूदा सामाजिक ढांचे में पूर्ण परिवर्तन और समाजवाद की स्थापना है.’
विचार की सान पर इंक़लाब
और दुनिया भर के विचारों को मथते हुए, वे इस नतीजे पर पहुंचते हैं, ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था, जो आमतौर पर ग़लत अर्थ में समझा जाता है. पिस्तौल और बम इंक़लाब नहीं लाते, बल्कि इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है… हमारे इंक़लाब का अर्थ पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है. मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया समझे बिना किसी के सम्बंध में निर्णय देना उचित नहीं है. ग़लत बातें हमारे साथ जोड़ना साफ़-साफ़ अन्याय है.’
भगत सिंह ने असेम्बली में बम के साथ जो पर्चा फेंका, उसमें लिखा था, ‘…व्यक्तियों की हत्या करना तो सरल है, किंतु विचारों की हत्या नहीं की जा सकती’
ज़ाहिर है, भगत सिंह और उनके साथियों ने जैसा मुल्क देखने या बनाने का ख्वाब देखा था, वैसा हुआ नहीं. लेकिन क्यां वे ख्याल और ख्वाब मर गए?
अगर ऐसा है तो फिर आज इंक़लाब ज़िन्दाबाद या हिन्दोस्तां ज़िन्दाबाद का मतलब क्या होगा? भगत सिंह ने फांसी से 20 दिन पहले अपने भाई को एक खत लिखा और उसमें एक गज़ल लिखी. इसकी आखिरी दो लाइनें हैं,
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे!
तो क्या भगत सिंह के ख्याल की बिजली अब भी कौंध रही है?
नोट : इन किताबों से मदद ली गई है-
1. बहरों को सुनाने के लिए, पेज़- 58-59, एस. इरफ़ान हबीब, राहुल फाउंडेशन,
2. इंक़लाब जिंदाबाद क्या है, मॉर्डन रिव्यू के सम्पादक को भगत सिंह-बीके दत्त का लिखा पत्र, 22 दिसम्बंर 1929, पेज़ 362-363 और बम कांड पर हाईकोर्ट में बयान, पेज़ 296, भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़, सम्पादक –जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन
3. बम कांड पर सेशन कोर्ट में बयान, 6 जून 1929, भगत सिंह के राजनीतिक दस्तावेज़, पेज़ 76-77, सम्पादन -चमनलाल, नेशनल बुक ट्रस्ट