‘मुस्लिम इस देश के नए वंचित समुदाय हैं’ – अजय गुडवर्ती

By मिशब इरिक्कुर और अभय कुमार,

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, बीते लोकसभा चुनाव और उसके परिणामों को लेकर एक बहुत व्यापक बहस सम्भव तो है, लेकिन यह भी ज़ाहिर है कि उस बहस से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना लगभग असंभव है. किसी भी निष्कर्ष के लिए ज़रूरी है किसी क़ाबिल और जानकार व्यक्ति से इस मसले पर बात करना. देश में साम्प्रदायिक हिंसा की खबरों का दायरा बड़ा होता जा रहा है और सत्ता पर क़ाबिज़ भाजपा पर अन्य पार्टियां इन दुरभिसंधियों में शामिल रहने के आरोप लगा रही है. इन बिंदुओं को समेटते हुए अजय गुडवर्ती से बात की. अजय गुडवर्ती जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत है. उत्तर-मार्क्सवाद, उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन, सिद्धांतों में खुद की गहरी रूचि के अलावा भारतीय राजनीति की गति और उसके विकास पर भी अजय की गहरी दृष्टि है.


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गुडवर्ती का मानना है कि मातहतों, दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों का भगवाकरण हो जाने से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ़ की जाने वाली हिंसा में बढोतरी हुई है. इस बारे में वे कहते हैं, ‘भारत में तो साम्प्रदायिक हिंसा का एक बहुत लंबा इतिहास है लेकिन अभी जो कुछेक घटनाएँ हुई हैं, वे अपने आप में अनोखी घटनाएँ हैं. यह जो अनोखापन है, वह इन घटनाओं की तासीर में मौजूद है जो कि ज्यादा तनावपूर्ण माहौल में भी कम झड़प के साथ होती हैं. इनमें मुख्यतः दलित बनाम मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग बनाम मुस्लिम की झड़पें होती हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है कि भाजपा और संघ इन लोगों का भगवाकरण करने में सफल हो रहे हैं. मातहतों और वंचितों का भी एक बड़ा हिस्सा इनके कब्ज़े में है.’ अजय आगे कहते हैं, ‘मैं अभी किसी काम से तेलंगाना गया हुआ था. वहां मैनें देखा कि पिछड़ी जातियां भाजपा, जिसने तेलंगाना मूवमेंट को समर्थन दिया था, में तेज़ी से शामिल हो रही हैं. यदि ऐसा चलता रहा तो लगभग दस सालों में पूरे देश के पिछड़े वर्ग का भाजपा में विलय हो जाएगा. इसके परिणाम भयावह होंगे जिसकी बानगी हम मुज़फ्फरनगर दंगों के दौरान देख चुके हैं.’


Prof. Ajay Gudavarthy, JNU
Prof. Ajay Gudavarthy

कारण पूछने पर अजय कहते हैं, ‘भारत की जातीय व्यवस्था सीढ़ीनुमा है. यहां हमेशा एक कम पिछड़ा हुआ वर्ग दबाने की स्थिति में और एक ज़्यादा पिछड़ा हुआ वर्ग खुद को कम पिछड़े वर्ग द्वारा दबाये जाने की स्थिति में होता है. देश के समूचे गैर-जातीय आंदोलनों ने उसी ऊपरी पिछड़े वर्ग से संवाद स्थापित किया और साथ ही निचले वर्ग से जातीय वर्चस्व का मिसरा व्यक्त किया. दो पिछड़ी जातियों के बीच के पिछड़ेपन के बजाय ऊंची-जाति बनाम निचली जाति और ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण की गुत्थमगुत्थी इन आंदोलनों के मुद्दों के रूप में हावी रही. इस उपेक्षा का ही कारण था कि इन दलितों और पिछड़ों का एक बड़ा समूह मुस्लिमों के खिलाफ़ खड़ा होता गया, जिसे मैं समाज का सबसे ज़्यादा भेद्य और सुलभ लक्ष्य मानता हूं. दुर्भाग्य से वामपंथियों और प्रगतिशीलों के समूहों ने इस बारे में कोई सुध नहीं ली, जिससे यह अंतर और विकट होता गया.’

बातचीत के दौरान अजय बताते हैं कि जब तक इस ओर ध्यान दिया गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, ‘ऐसा नहीं है कि सेकुलर राजनीति में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया. बात आगे बढ़ी लेकिन शुरुआती सफलता के बाद ही देखा गया कि भाजपा और संघ ने बहुजन वर्ग का हिन्दुत्वीकरण कर रहे हैं. भाजपा और संघ की सफलता का कारण यही था कि गैर-जातीय आंदोलनों का इन अंतर्जातीय प्रभावों की ओर कोई ध्यान नहीं था कि आरक्षण का लाभ किसे मिल रहा है, या दलित राजनीति का झंडा किसके हाथों में है या उस राजनीति का सबसे अधिक लाभ किसे मिल रहा है?’. अजय इस अंतर्जातीय विरोधाभास को लक्षित करते हुए कहते हैं, ‘जिन-जिन राज्यों में पिछड़े वर्ग की राजनीति सक्रिय है, आप देख लीजिए कि वहां किस किस्म के मुद्दे उठाये गए. क्या आजतक किसी ने संपेरों का मुद्दा उठाया है? अब इस लिहाज़ से जो पीछे छूट रहे हैं, वे मुख्यधारा में आने की कोशिशों के तहत संघ और भाजपा से सांठ-गांठ में लगे हुए हैं. भाजपा और संघ इनका स्वागत भी कर रहे हैं कि वे उनके हिंदूवादी एजेंडे में फ़िट बैठें और गैर-हिन्दू तत्वों को निशाने पर लेना आसान हो जाए. इनके दक्षिणपंथी ताकतों से जा मिलने का कारण ही है कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश में जिन जातियों ने पिछड़ों की राजनीति का झंडा थाम रखा था, वे धीरे-धीरे बौद्ध, ईसाई अथवा मुस्लिम होते जा रहे हैं.’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीते दिनों हुए दंगों के बारे में पूछने पर अजय कहते हैं, ‘केंद्र की मोदी सरकार गुजरात के नवउदारवादी विकास के एजेंडे पर चल रही है. अब भाजपा के लिए पुराने तरीके से, जैसे उन्होंने 2002 में किया था, कामकाज़ करना कठिन है क्योंकि मध्यवर्ग के साथ-साथ निवेशकों की भी निगाहें उन पर टिकी हुई हैं. संघ और भाजपा के नेतृत्व में बड़े क़त्ले-आम को अंजाम दे पाना बहुत कठिन होगा. इसलिए वे अब छोटे-छोटे स्तर के क़त्ले-आम को अंजाम दे रहे हैं. मुस्लिम अब एक झटके में नहीं खत्म किये जा रहे हैं, वे रोज़ाना धीरे-धीरे खत्म किये जा रहे हैं.’ मुस्लिम समुदाय को चुनावी एजेंडे के तौर पर देखने के सवाल पर अजय कहते हैं, ‘अब तो कांग्रेस भी मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देने से बच रही है, क्योंकि वह अपनी छवि घोर मुस्लिम-समर्थक या एंटी-हिन्दू की नहीं बनाना चाहती. पंजाब में मतदान के दौरान मैनें एक दलित से पूछा कि उसके लिए जाति क्या मायने रखती है? तो उसने कहा कि वह क़ाबिल आदमी को वोट देगा लेकिन मुसलमान को कभी नहीं, क्योंकि वह बाहरी है.’

लगभग बीते छः महीनों में देश में 300 से भी ज़्यादा छोटी-बड़ी साम्प्रदायिक झड़पें हुईं, इनमें से 50 से ऊपर तो सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में हुईं. फैज़ाबाद तो अभी भी साम्प्रदायिक तनाव झेल रहा है. दूर से देखने पर मोदी सरकार के सुशासन और विकास के नारे फेल होते दिख रहे हैं. इस बाबत पूछने पर अजय कहते हैं, ‘एक बात दिमाग में बैठानी होगी कि पुराने मोदी अब जा चुके हैं, उनके बुरे कामों को सम्हालने का काम अब उन्हें दाएं हाथ और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह कर रहे हैं. मोदी साम्प्रदायिक हिंसा पर चुप्पी साधकर ‘सुशासन’ के शुभंकर बने हुए हैं, लेकिन अमित शाह ठीक उसके उलट काम करेंगे.’ चुनाव में मिली सफलता के मद्देनज़र अजय कहते हैं, ‘गांधी परिवार और यूपीए के शासनकाल में जो असंतोष लोगों में आया, उसे भुनाने के लिए संघ को मोदी से बड़ा कोई खिलाड़ी नहीं मिला. अन्ना हज़ारे और ‘आप’ के लगभग दिशाहीन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों का भी सीधा असर भाजपा के वोट-बैंक पर पड़ा. यह भी सुनने में आया था कि भाजपा ने 300 करोड़ फर्जी मुस्लिम प्रत्याशियों को खड़ा करने में लगाए थे, जिससे मुस्लिम समुदाय के वोट बँट जाएं. यही कारण थे कि भाजपा सिर्फ़ 31 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ 282 सीटों पर कब्ज़ा कर गयी.’

सहारनपुर और आजमगढ़ में हुई हिंसात्मक झड़पों के मद्देनज़र अजय के पास कारण स्पष्ट हैं, ‘सहारनपुर में हुए दलित बनाम मुस्लिम दंगों में संघ ने सिखों की बंटवारे की समय की भावना को तीली दिखाई, और आजमगढ़ में दलित बनाम मुस्लिम की लड़ाई के बारे में मैं पहले ही कह चुका हूं कि पिछड़ों की राजनीति ने दक्षिणपन्थ का रुख कर लिया, उसी वजह से ऐसा हुआ.’

उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की बागडोर मुस्तैदी से न सम्हाल पाने के कारण अखिलेश यादव की सरकार को तीखी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. यह विरोधाभासी ही है कि जिस सरकार को विधानसभा चुनाव के दौरान इतना बड़ा जनमत समूह प्राप्त हुआ हो और जिसका मुख्य चुनावी मुद्दा मुस्लिम और पिछड़े लोग हों, वह साम्प्रदायिक हिंसा से प्रभावित हरेक जिले में मुख्य आरोपितों को पकड़ने में असफल रही हो. वहीं दूसरी ओर दलितों की सबसे बड़ी हितैषी कही जाने वाली बसपा लोकसभा चुनाव में औंधे मुंह गिर गयी. बज़रिए उत्तर प्रदेश की इन दो प्रमुख पार्टियों के, अजय का कहना है, ‘बसपा अभी नीचे से ऊपर की दिशा में कार्य कर रही है. वह पहले पिछड़ी जातियों से शुरुआत करती है, फ़िर ऊंची जातियों तक जाती है. इसके उलट भाजपा का क्रम ऊपर से नीचे का है, भाजपा ऊपरी जाति और सवर्णों से शुरुआत कर दलितों और पिछड़ों तक जाती है. भाजपा को इसी का फायदा हुआ है. बसपा के ये दो-तीन दशक पुराने तरीके अब कुछ ख़ास करने की स्थिति में नहीं है. सपा की हालत यह है कि वह प्रदेश में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों को भुनाने के प्रयास लगातार लगी हुई है. वे देखते हैं कि मुस्लिमों पर अत्याचार हो रहा है, और मुस्लिम अपने सबसे बड़े हितैषी समाजवादी पार्टी के पास आएंगे. लेकिन अभी के मामलों में यह कूटनीति फेल कर गयी और चीज़ें अखिलेश सरकार के हाथ से भी बाहर निकल गईं और उन्हें इसका परिणाम भुगतना पड़ा.’

बातचीत के आखिरी दौर में आते हुए अजय कहते हैं, ‘मुस्लिमों को तो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक – तीनों ही क्षेत्रों में पूर्णरूपेण हाशिए पर धकेल दिया गया है. वे देश के नए सबअल्टर्न यानी वंचित हैं. यहां तक कि हाशिए के दूसरे वर्गों भी इतने बुरे रूप से विपन्न नहीं हैं, जितने मुस्लिम हैं. मुस्लिम तो हिन्दुओं की सबसे निचली जातियों के निशाने भी पर हैं. इन विचारों के साथ मैं मुसलमानों के लिए 10-12 प्रतिशत आरक्षण का समर्थन करता हूं. जहां तक इस आरक्षण के विरोध की बात है, मुझे इसमें कोई पुख्ता तथ्यात्मक विरोध नहीं दिखता. मुस्लिमों को सार्थक प्रयासों की ज़रूरत है. मैं सही नीतियों के तहत आरक्षण की बात कर रहा हूं, यहां भी क्रीमी लेयर को अलग को कर दिया जाए, ठीक वैसे ही जैसे दलितों और पिछड़ी जातियों के साथ होता है. इसके अलावा, मुस्लिमों में भी एक मध्यवर्ग बनाने की ज़रूरत है.’

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