शैतान की ख़ाला अस्मा अंजुम ख़ान का कॉलम है. अस्मा अंग्रेजी की अध्यापक हैं और बहुत बातें करती हैं.
असमा अंजुम ख़ान, TwoCircles.net
भाईयों और बहनों, क्या मई महीने के बीच आई आपदा से उबर पाए? मैं तो उबर गयी. छुट्टियों, किताबों और आम ने मेरी ख़ासी मदद की. तो अब क्या? क्या हमें अब आगे की तैयारी करनी चाहिए?
क्यों नहीं? जैसा मैल्कम एक्स ने कहा है कि भविष्य उनका होता है जो उसके लिए अभी से तैयार रहते हैं. हमें अभी से शुरुआत करनी होगी. अगले पाँच साल हमारे देश और हमारी जनता के लिए कठिन होने वाले हैं. हमारा या हमारे राष्ट्र,हिन्दुस्तान, इंडिया या भारत. आप अपने हिसाब से कोई भी चुनाव कर सकते हैं, लेकिन सनद रहे कि आप जो भी चुनाव करें उसके लिए अपना रचनात्मक योगदान करें. विश्लेषण, दोषारोपण, कलपना और छाती पीटना – जहां छाती केआकार (जो 56 इंच का है या कितने का) का कोई फ़र्क नहीं पड़ता – बस अब बहुत हो चुका .
इस उदास दौर में रचनात्मक चीज़ों के बारे में सोचते हुए मुझे सबसे पहला ख़याल अंग्रेज़ी भाषा का कौंधता है. वह अंग्रेज़ी भाषा, जिसकी सुंदरता मेरे दिमाग के सभी रास्तों को खोल देती है. अपने विचारों को ज़ाहिर करने का जो तरीका अंग्रेज़ी में मुमकिन है, वह कहीं और नहीं, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. इस दिशा में ध्यान दें तो क्या आपने गौर किया कि हमारे ईसाई और पारसी साथियों ने इन सालों में क्या खूबसूरतविकास किया है? समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उनका अगुआ होना एकदम लाजवाब है. उनकी इस क़ामयाबी के पीछे सबसे बड़ा कारण अंग्रेज़ी का उनके संवाद का प्रमुख माध्यम होना है. मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि उन्होंने कॉन्वेंट स्कूल खोलकर या अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजकर रोज़मर्रा के जीवन को अंग्रेज़ी से जोड़ा है. अंग्रेज़ी उनके पास एक प्राकृतिक संपदा की तरह मौजूद है. जब मैकाले ने 1937 के आसपास फ़ारसी को ब्रिटिश अंग्रेज़ीसे बदला था तो बंगालियों ने अंग्रेज़ी से ऐसे साथ जोड़ लिया था, जैसे बत्तख पानी से साथ जोड़ लेती है. ठीक इसी तरह इन दो संप्रदायों ने अंग्रेज़ी से बेहतरीनी से साथ जोड़ लिया है और यह दिखता भी है.
और हमारे बारे में क्या? क्या हम मुस्लिम अंग्रेज़ी सीखने के प्रति गंभीर हैं या हम अपनी चली आ रही हालत से ही खुश हैं? या इधर-उधर थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी झाड़ कर ही खुश हैं? इतिहास की तरफ़ देखें तो, जब जवाहरलाल नेहरू लोगों कोअंग्रेज़ी पद्धति से रहन-सहन करने देने की सलाह दे रहे थे और जब महात्मा गांधी ‘हिन्दुस्तानी’ को राष्ट्रीय भाषा के तौर पर देखना चाहते थे, उस समय सुभाषचन्द्र बोस ने ‘राष्ट्रीय भाषा’ के मुद्दे को रेखांकित करते हुए कहा था, भाषा?लेकिन मुझे पता था कि बहुत सारे भारतीय गरीब और अनपढ़ हैं. क्यों न अंग्रेज़ी सीखी जाए?
क्या ये विचार बुद्धिमानी और गम्भीरता से लबरेज़ नहीं है?
यह बताते हुए कि अंग्रेज़ी विज्ञान, तकनीकी और अंतर्राष्ट्रीय संवाद की प्रमुख भाषा है, क्या मुझे अंग्रेज़ी की ज़रूरत और महत्त्व को अलग से परिलक्षित करने की कोई आवश्यकता है? यदि आप अंग्रेज़ी बोलना जानते हैं तो आपके लिएनौकरी की बहुत सारी संभावनाएं खुली हैं, और अगर आप नहीं जानते तो वे संभावनाएं बंद हैं. अंग्रेज़ी की ताक़त में मेरा पूरा भरोसा है. हमारे लोगों के लिए (और अन्य के लिए भी) अंग्रेज़ी उनकी ज़िंदगी और भविष्य में सफलता के लिए एकमौलिक आवश्यकता हो सकती है.
मार्टिन लूथर किंग (कनिष्ठ) के कथन को बदलते हुए मैं कहना चाहूंगी कि,
मेरा(भी) एक सपना है.
मेरा एक सपना है कि मैं अपने लोगों को साफ़ और शुद्ध तेज़ अंग्रेज़ी में पढ़ते, लिखते और सबसे आवश्यक बात करते देख सकूँ. केवल हमारे छात्र ही नहीं, हमारे साथी, हमारे व्यापारी और और हमारे कामकाजी तबके भी. यह कोईखूबसूरत, प्रेरणास्पद सपना नहीं है, ना ही कोई बचकाना ख़याल. यह ऐसी चीज़ है, जो बिलकुल हमारे हाथ में है. सर सैय्यद अहमद ख़ां वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इस भाषा को लेकर सपना देखा था. वह अपने लोगों को इस भाषा केआलोक से सजा हुआ देखना चाहते थे, बदले में उन्हें हँसी और आलोचना झेलनी पड़ी लेकिन यह सपना यूं ही बना रहा. सन् 1937 और मैकाले के बाद से हमारे लोगों ने इस सीधे और सरल गणित को समझने में काफ़ी देर कर दी. लेकिनउनकी भी अपनी आशंकाएं थीं. उन दिनों, अंग्रेज़ी सीखना ईसाई बनने सरीखा लगता था. उस समय के महत्त्वपूर्ण लोगों, जैसे दिल्ली कॉलेज के कुछ अध्यापक, ने यह रास्ता अख्तियार किया जो अन्य के लिए काफी चिंताजनक था. लोगोंके अंदर डर बैठने लगा ke अंग्रेज़ी सीखने पर मग़रीबी तहज़ीब की भी तालीम लेना आवश्यक हो जाएगा. हालांकि उनका भय पूरी तरह से निराधार तो नहीं था, लेकिन इस भय से जन्मा उनका व्यवहार पूरी तरह से निराधार था.
इस उधेड़बुन के बाबत मशहूर शाईर अक़बर इलाहाबादी ने बेहद खूबसूरती से कहा है,
درمیان کار دریا تخته بندم کاردا ای
بازمی گویی که دامان تار مکان هوشیار باش
यानी, तुमने मुझे लकड़ी से बाँध पानी में डूबा दिया और अब कहते हो कि मेरे कपड़े न गीले हों.
वे लोगों को अंग्रेज़ी सीखने से रहन-सहन के पश्चिमी तरीकों की चपेट में आ जाने के प्रति लोगों को आगाह कर रहे थे.
लेकिन अब मामला दूसरा है,
हम हुए, तुम हुए कि मीर हुए,
उसकी जुल्फों के सब असीर हुए.
यानी, हम सब उसकी खूबसूरत जुल्फों की गिरफ़्त में हैं.
आज दुनिया अंग्रेज़ी के पीछे पागल है. पुराने लोग अपने नाती-पोतों को अंग्रेज़ी में बतियाता देख गौरवान्वित महसूस करते हैं. सारे लोग अपने या अपने पड़ोसियों के बच्चों को कॉन्वेंट या अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में भेजना चाहते हैं, जहांएडमिशन की कतार बहुत लम्बी है. मकडॉनल्ड्स होते जा रहे अंग्रेज़ी सिखाने वाली कोचिंगों के विज्ञापन जगह-जगह पर हैं, जिसका लाभ हर आदमी उठाना चाह रहा है. असल में तो ये सारे पूर्णकालिक उद्योग में बदल चुके हैं.
लेकिन कुकुरमुत्ते की तरह उगे ये गैर-सरकारी अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय, जहां आधुनिक दास या स्कूल टीचर घन्टों काम करते हैं, उस बदलाव को ला पाने में विफल रहे हैं जिसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी और है. ये सारे विद्यालयआपसी बोलचाल को सुधार पाने में असफल रहे क्योंकि उनके यहां शिक्षा की गुणवत्ता बेहद ख़राब है. पहले तो इन अंग्रेज़ी के अध्यापकों को ही अंग्रेज़ी की सही तालीम देनी होगी. अंग्रेज़ी में बात करने को छोड़ भी दें, तो जिन अध्यापकों को सही अंग्रेज़ी पढ़ने और लिखने की ही समझ नहीं है, वे इसे दूसरों को पढ़ा रहे हैं. इसकी कल्पना करना ही भयावह है कि उनके छात्र किस स्थिति में हैं या हो सकते हैं? हमारे युवाओं को अंग्रेज़ी बोलना ‘कूल’ लगता है और वे वैसा होना चाहतेभी हैं लेकिन हमारी गलत रणनीति और ज़्यादा भ्रम की स्थिति पैदा कर देती हैं, जिससे घबराहट का और प्रसार होता है. और जब आप किसी चीज़ से डरते हैं, तो आप खुद को खत्म मान लेते हैं.
अपने छात्रों को अंग्रेज़ी बोलने की शिक्षा देने के पहले मैं उनसे एक बात पूछती हूं कि क्या उन्होंने ‘शोले’ देखी है? कुछ अचकचाए चेहरे और आधे उठे हाथ दिखते हैं, दबी हुई हंसी भी सुनाई देती है. फ़िर मैं उन्हें इस फ़िल्म से एक मशहूरसम्वाद याद दिलाती हूं,
जो डर गया, समझो मर गया!
अंग्रेज़ी के साथ भी यही बात है. एक बार आप इससे डरना शुरू कर देते हैं, आप हमेशा डरते रहेंगे. इसके लिए आगे बढिए.
डर आपको भीतर से मार देता है. अब मैं उन असंख्य बारीकियों के बारे में बात करूँगी, जो इस भाषा से जुड़ी हैं. वही भाषा, जिसे विदेशी समझा जाता है लेकिन वह उसी भारत-यूरोपीय सभ्यता से निकली है जहां से हमारी उर्दू आती है. तोक्या उस भाषा को जो हमारी सरज़मीं पर पिछले २०० सालों से रहती आ रही है, विदेशी कहना सही है? चलिए अंग्रेज़ी को हम अपने घर का बना कर रखते हैं. और मुखर होते हुए कहूं तो घर की लड़की जैसी (जैसा हम उर्दू के बारे में कहते हैंकि उर्दू तो हमारे घर की लौंडी है). अंग्रेज़ी तो किसी भी दूसरी भाषा की ही तरह सीखने में आसान या कठिन है.
सीखने वालों को प्रोत्साहित करना और उनमें आत्मविश्वास भरना इस प्रक्रिया में पहला क़दम होना चाहिए. मुझे एक उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक की बात याद आती है, उन्होंने ब्रिटिश अंग्रेज़ी की ‘शेरनी के दूध’ से बराबरी की थी. मुझे दुःखऔर आक्रोश महसूस हुआ. मैनें उनसे पूछा कि क्या आप अंग्रेज़ी को इतना कठिन मानते हैं, यदि हां तो हममें से कौन ऐसा मूर्ख होगा जो इस शेरनी के पास तक जाना चाहेगा, उसका दूध पीने की बात तो छोड़ ही दीजिए. वैसे ही हमारे बच्चेअंग्रेज़ी से डरते रहते हैं, ऐसे कटाक्ष तो और डर पैदा करते हैं. अंग्रेज़ी में फेल होने वालों का प्रतिशत हमेशा ऊंचा रहता है. नक़ल के सबसे अधिक मामले अंग्रेज़ी की परीक्षाओं में मिलते हैं. अंग्रेज़ी के इस डर को जाना ही होगा और इसमें खुदके अलावा हमारी कोई मदद नहीं कर सकता. हमें फैसला लेना होगा. हमारे भीतर इच्छाशक्ति होनी चाहिए. अंग्रेज़ी पढ़ाने और सिखाने के लिए अलग से किसी भी संस्थान की ज़रूरत नहीं है. याद है कि मार्क ट्वेन ने क्या कहा था,
मैनें अपनी स्कूली पढ़ाई को अपनी शिक्षा के आड़े कभी नहीं आने दिया.
हमें अपनी परम्परागत और बासी शिक्षा पद्धति द्वारा खुद की भाषा को सीखने-समझने की क़ाबिलियत का क़त्ल नहीं होने देना चाहिए. शिक्षा को मनोरंजक होना चाहिए.
मेरी बात का मतलब अपने लोगों को सिर्फ़ अंग्रेज़ी में तालीम देना नहीं है, बल्कि मतलब है कि उनकी भाषा के लेखनीय और वाचाल पहलुओं को इस स्तर पर ले जाया जाए जिससे वे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ खड़े हो सकें. अपने साथ केसभी लोगों को शानदार अंग्रेज़ी में बात करते देखना कितना खूबसूरत अनुभव होगा? उनके काम कितने आसान हो जाएंगे.
कुछ सुझाव:
संकल्पित अंग्रेज़ी अध्यापकों के एक समूह (जो लिखने, पढ़ने और बोलने की एकदम सही अंग्रेज़ी जानता हो) को भिन्न-भिन्न स्कूलों में भेजकर वहां के अंग्रेज़ी अध्यापकों के लिए एकदिनी कार्यशाला संचालित की जा सकती है. इसकार्यशाला का मकसद उन अध्यापकों की कमज़ोरियों को चिन्हित कर उन्हें दूर करना और उनका व्याकरण, शब्दज्ञान और भाषिक स्तर पर सुधार करना हो. इस प्रक्रिया को साल में दो दफ़ा दुहराया जा सकता है जिससे शिक्षा औरअध्यापन की गुणवत्ता को बनाया रखा जा सके. हमारे अध्यापकों को अपने दायित्व और अपनी भूमिका के महत्त्व को समझना होगा और यह जानना होगा कि देश के निर्माण में वे कितना बड़ा योगदान कर रहे हैं. यह काम कठिन हैलेकिन क्लीशे का सहारा लेकर कहें तो, हां, हम कर सकते हैं.
एक और योजना के अंतर्गत नए-नए अंग्रेज़ी के स्नातकों की टीमों को तरह-तरह के इलाकों, कस्बों और मुख्यतः हमारी कच्ची बस्तियों में भेजा जाए जहां वे हफ़्ते में एक दिन वहां के बच्चों को इकट्ठा कर उन्हें अंग्रेज़ी की शिक्षा दें.
इसे अगर सही तौर पर समझ लिया जाए और मजबूती से निर्णय लिए जाएं तो यह हमारे नए युवा राष्ट्र, सर सैय्यद अहमद ख़ां के शब्दों में कहें तो ‘क़ौम’, के निर्माण में नींव का पहला पत्थर होगा. और ‘क़ौम’ से उनका मतलब सिर्फ़मुसलमान नहीं बल्कि हर वह शख़्स होगा जिसे इंग्लिश – विंग्लिश से प्यार है.