By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,
जैसे-जैसे समाज विकास की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रहा हैं, साथ-साथ विकास की नुमाईश से दूर छिटक रहे लोग हाशिए पर और ज़्यादा धकेले जा रहे हैं. इन लोगों की फ़ेहरिस्त और इनका दायरा, दोनों ही इतने बड़े हैं कि आगे बढ़ने को लालायित भारतीय तंत्र इस समाज की कोई सुध नहीं ले पा रहा है. इनके बहुत सारे नाम हैं, बहुत सारे सम्प्रदाय और लगभग उतनी ही विविधता इनके साथ है. इस फ़ेहरिस्त में एक बेहद कम प्रचलित कहानी है शेख मदारी समुदाय की.
शेख मदारी कहां से आए, कब आए और कितनी संख्या में आए? इन प्रश्नों का उत्तर तो उन्हें भी नहीं पता, लेकिन कुछ टूटी-फूटी कड़ियों को जोड़ने पर थोड़ा अंदेशा होता है कि ये लोग अफ़गानिस्तान से आए हैं. जैसा इनके नाम से ही पता चलता है कि इनका मूल पेशा मदारी का ही है. बहुत समय तक गाँवों, कस्बों और कुछेक नगरों में डुगडुगी बजाकर बंदर का खेल दिखाकर इन्होंने काफ़ी दिनों तक गुजर-बसर किया. बाद में कुछ अन्य बिलकुल छोटे स्तर के व्यवसायों की ओर मुड गए. कुछ ने सब्जी बेचना शुरू कर दिया, कुछ ने खिलौने बेचने का और किसी ने कुछ और बाक़ी किसी ने कुछ. इनके बारे में और जानकारी प्राप्त करने पर पता चलता है कि इनके घर के बच्चे स्कूल नहीं जाते, वे घूम-घूमकर प्लास्टिक के खिलौने और दूसरे सामान बेचते हैं. शेख मदारी समुदाय के लोगों के जीवन के लिए यदि कोई सही संज्ञा इस्तेमाल में लानी हो तो ‘खानाबदोश’ वह सही शब्द होगा, जिसकी आड़ में शेख मदारी समुदाय को परिभाषित करना किंचित आसान होगा.
शेख मदारियों के साथ लगी हुई संस्था खुदाई खिदमतगार केप्रमुख सदस्य और समाजसेवी फैसल खान भी यही कहते हैं, ‘इनके बारे में हमने पता करने की बहुत कोशिश की, अभी तक कोई पुख्ता सुराग नहीं मिला कि ये कहां से आए हैं, कब आए? लेकिन इन सबके बावजूद हम इनके साथ लगे रहते हैं. इनके रहने-खाने का पुख्ता इंतजाम हो जाए और इनके बच्चों के शिक्षा की अच्छी व्यवस्था हो जाए, यही हमारा प्रमुख ध्येय है.’
शेख मदारी समुदाय की मौजूदा स्थिति के बारे में बताते हुए फैसल खान कहते हैं, ‘शेख मदारी समुदाय के लोग आज भी खानाबदोशों की तरह ग्राम पंचायत या लोगों की खाली पड़ीज़मीनों पर रहते हैं. इनका प्रमुख रहवास हरियाणा स्थित करनाल और पानीपत के गढ़ी बरहल,गढ़ी मंगल,बल्देरा,मुल्दा गढ़ी,गढ़ी बेशक,नवादा, पथर गढ़,घरोंदा,जैनपुर कैरवा और कुछेक अन्य गाँवो में हैं.’ फैसल खान आगे बताते हैं, ‘इनके बारे में यह कहना कि ये बुनियादी ज़रूरतों से वंचित हैं, ज़्यादा मुफ़ीद होगा यह कहना कि इन्हें पता ही नहीं कि बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं? इन्होंने अपने चारों ओर विकसित समाज को उसी तरह से समझा है, जैसे वह इतिहास से रहा है. उनके बच्चे आज भी स्कूलों से महरूम है और उनकी लड़कियों का शादी-ब्याह इसी समुदाय के बीच होता है.’
अपने प्रयासों के बारे में बताते हुए फैसल कहते हैं, ‘खुदाई खिदमतगार इनके साथ शुरू से लगा रहा है. इनकी शिक्षा और इन्हें मुख्यधारा में लाने के प्रयासों को हम हमेशा तरज़ीह देते रहे हैं. खुदाई खिदमतगार के ही सदस्य मुरसलीन चौहान, इनके साथ बहुत दिनों से काम कर रहे हैं. उन्होंने लगभग अपना पूरा समय शेख मदारियों के विकास के नाम कर रखा है.’
मुरसलीन चौहान 8-10 सालों से शेख मदारी समुदाय के संपर्क में हैं. उनके लिए काम करते-करते उन्होंने एक लंबा अरसा गुज़ार दिया है. मुरसलीन चौहान से TCN ने इस विषय में बात की. वे कहते हैं, ‘मुझे तो अब ठीक से यह भी याद नहीं कि मैंने किस समय से इनके साथ काम करना शुरू किया था? लेकिन इतना ज़रूर याद है कि जब मेरी इनसे पहली मुलाक़ात हुई थी, उस समय इनके कैसे हालात थे. सभी लोगों का काम लगभग केंद्रित था, इनका सामाजिक दायरा भी इतना सिकुड़ा हुआ था कि इन्हें मूलभूत सुविधाओं के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी. शिक्षा प्राप्त करने की कोई ठोस बुनियाद भी नहीं थी, पहनावा एकदम अजीब-सा. ऐसे में मुझे लगा कि इस दिशा में कोई ठोस कार्य करने की ज़रूरत है, नहीं तो इस भागदौड़ में यह समुदाय पूरी तरह से खो जाएगा.’
मुरसलीन आगे बताते हैं, ‘हम लोगों ने इन्हें आगे बढ़कर दूसरे कामों की ओर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया. शुरुआत में हमारी इस पहल से उन्हें हिचकिचाहट तो हुई, लेकिन बाद में उन लोगों ने हमारे साथ चलना शुरू कर दिया. इन लोगों ने सब्जी बेचना शुरू किया. थोक भाव में मंडी से सब्जी खरीदकर उसे खुदरा भाव में बेचने से इन्हें जो मुनाफ़ा मिला, जो फ़िर भी थोड़ा ही है, उससे इनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ा. इसका असर यह हुआ कि इन लोगों ने दूसरे किस्म के रोज़गार की ओर भी रुख किया.’ सरकारी उपक्रमों में शेख मदारी समुदाय की हिस्सेदारी के बारे में पूछने पर मुरसलीन कहते हैं, ‘कोई व्यक्ति सरकारी योजनाओं और उपक्रमों का हिस्सा तभी बन सकता है, जब उसकी कोई सरकारी पहचान हो, या कोई अभिलेख हो जो यह सत्यापित करता हो कि अमुक व्यक्ति वही है. इन लोगों की कोई आधिकारिक पहचान तक नहीं थी. न बैंक खाता, न मतदाता पहचान पत्र, यहां तक कि राशन कार्ड भी इन लोगों के पास नहीं था. हमने इन लोगों को मतदाता सूची में शामिल कराकर इन्हें मतदाता पहचान पत्र से लैस किया. इनके लिए राशनकार्ड की व्यवस्था भी हमने की ताकि इन्हें सरकारी मूल्य पर खाने की ज़रूरी चीज़ें मिल सकें. बैंक में इनका खाता खुलवाया गया ताकि पैसे बचाने में सहायता मिले. इन लोगों का आत्मविश्वास दोगुना हो गया था जब इन्हें पता चला कि बैंकों के ज़रिए ये कितनी आसानी से पैसे बचा सकते हैं? अब जब इतना हो गया तो व्यापक तौर पर इन लोगों को नरेगा में काम मिलने लगा. पास में पैसा आया तो इन लोगों ने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया.’
इस दौर में आई कठिनाई के बारे में पूछने पर मुरसलीन कहते हैं, ‘हमने सोचा था कि सरकारी तंत्र इसमें रूचि लेगा तो चीज़ें आसानी से आगे बढ़ने लगेंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हमने प्रशासन से भी मदद की अपील की थी. हमारी अपील अन्य सभी अपीलों की तरह खाली चली गयी. प्रशासनिक स्तर पर सिर्फ़ एक व्यक्ति को छोड़कर अन्य किसी ने भी सुध नहीं ली. जिला उपायुक्त पी.एस. मलिक साहब वह व्यक्ति थे जिन्होंने हरसंभव स्तर पर हमारी मदद की. उन्होंने इस समुदाय की महिलाओं को आंगनबाड़ी में काम प्राप्त करने में बेमुरव्वत मदद की. साथ ही साथ अन्य क्षेत्रों में भी बढ़-चढ़कर साथ दिया. वे बाद में सेवा-निवृत्त हो गए.’
बातचीत के अंतिम दौर में आते हुए मुरसलीन कहते हैं, ‘अभी 15 अगस्त बीती है न, इस बार हमने स्वतन्त्रता दिवस इन लोगों के बीच ही मनाया था. जिन लोगों ने बहुत अच्छा काम किया, हमने उन्हें सम्मानित भी किया ताकि उनका आत्मबल ऊंचा बना रहे. आसपास बसे समाज से इनकी कितनी दूरी है, इसका अंदाज़ इसी बात से लग जाता है कि जब हमने तिरंगा फहराया तो ये पूछने लगे कि किस पार्टी का झंडा है? हमने इन्हें बताया कि यह किसी पार्टी का नहीं, आप सब लोगों के देश का झंडा है जहां आप सब रहते हैं. अभी हम इन लोगों के लिए एक स्कूल का निर्माण करवाने की दिशा में कार्य कर रहे हैं. सब कुछ ठीक रहा तो इन लोगों के पास भी इनका खुद का स्कूल होगा, जहां कम लागत में वे अपने बच्चों को शिक्षा के उद्देश्य से भेज सकेंगे. हम लोग तो लगे रहते हैं. अब बस हम इतना चाहते हैं कि इनके लिए आगे के रास्ते न रुकें, उसी दिशा में सारा कार्य करना है.’
शेख मदारी समुदाय के लोग आज भी हरियाणा स्थित करनाल और पानीपत के गढ़ी बरहल, गढ़ी मंगल, बल्देरा, मुल्दा गढ़ी, गढ़ी बेशक, नवादा, पथर गढ़, घरोंदा, जैनपुर कैरवा गाँवो में ग्राम पंचायत या लोगों की खाली पड़ी ज़मीनों पर बुनियादी ज़रूरतों से बेखबर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं. आज भी उनके बच्चे स्कूलों से महरूम है. अब हरियाणा खुदाई खिदमतगार ने इनके बच्चो के लिए बलेहरा में एक स्कूल खोलना तय किया है.
समाज की सचाई बस इतनी नहीं है कि वह हाशिए पर धकेल दिए गए तबके की कोई सुध नहीं लेती, उसने इन्हें भूलकर आगे बढ़ जाना भी अच्छे से सीखा है. खुदाई खिदमतगार और मुरसलीन चौहान के प्रयासों, जो अलग-अलग नहीं हैं, को मुहिम बनाकर आगे की राह तय की जा सकती है. सरकार की भागीदारी भी सुनिश्चित हो तो ऐसे प्रयासों की गति और पकड़, दोनों ही मजबूत होंगे.