कैप्टन अब्बास अली- एक शख्स जिसने सियासत के मेयार को बुलंद रखा

By शेष नारायण सिंह,

कैप्टन अब्बास अली 94 साल की उम्र में अलविदा कह गए। कप्तान साहेब एक बेहतरीन इन्सान थे। आज़ाद हिन्द फौज का यह कप्तान जब अपनी बुलंदी पर था तो उसने किसी तरह का समझौता नहीं किया। और यह बुलंदी उनकी ज़िंदगी में हमेशा बनी रही। उनकी एक ही तमन्ना थी कि ज़िंदगी भर किसी पर आश्रित न हों। उम्र के नब्बे साल पूरे होने पर उनकी आत्मकथा को दिल्ली में प्रकाशित किया गया था। शायद इस किताब का शीर्षक यही सोच कर रखा गया होगा। शीर्षक है, “ न रहूँ किसी का दस्तनिगर” और 11 अक्टूबर को कप्तान साहेब ने आख़िरी सांस ली उसके एक दिन पहले तक अपने हाथ पाँव से चलते रहे और शान से चले गए। 94 साल की उम्र में कप्तान साहेब जब गए तो किसी के सहारे नहीं रहे। उनके बेटे कुर्बान अली हमेशा उनको अपने साथ दिल्ली में रखना चाहते थे लेकिन कप्तान साहेब अपनी कर्मभूमि अलीगढ़ और बुलंदशहर को कभी नहीं भूलते थे। मौक़ा लगते ही अलीगढ़ चले जाते थे। उनकी ज़िंदगी के बारे में शायद बहुत कुछ नहीं लिखा जाएगा क्योंकि वे डॉ राम मनोहर लोहिया की उस राजनीतिक परंपरा के अलमबरदार थे जिसमें सरकारी ओहदे के लिए राजनेता को कोशिश न करने की हिदायत है। लेकिन इस बहादुर इंसान की ज़िंदगी को कलमबंद होना चाहिए ताकि आने वाली नस्लों को मालूम रहे कि खुर्जा कस्बे के पास के गाँव कलंदर गढ़ी में एक ऐसा इंसान भी रहता था जिसने मानवीय आचरण की हर बुलंदी को नापा था।


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समाजवादी विचारक स्वर्गीय मधु लिमये उनकी बहुत इज्ज़त करते थे। 1988 में पहली बार मधु लिमये के पंडारा रोड वाले फ़्लैट में कप्तान साहेब से मुलाक़ात हुयी थी। राजीव गांधी का राज था और विश्वनाथ प्रताप सिंह उनको चुनौती दे रहे थे। उत्तर प्रदेश में सब कुछ कांग्रेसमय था, कांग्रेस के विरोध के नाम पर कुछ नहीं था लेकिन कप्तान साहेब को भरोसा था कि सब कुछ बदल जाएगा। कांग्रेस की हार की इबारत उनको साफ़ नज़र आ रही थी। कैप्टन अब्बास अली को एक ऐसे इंसान के रूप में याद किया जाना चाहिए जिसने कभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी और उसी रास्ते पर चले जिसको सही समझते रहे। शायद इसी लिए उन्होंने नौजवानों से अपील की थी। अब्बास अली को नौजवान पीढ़ी से बहुत उम्मीदें थीं। आपने फरमाया था, “बचपन से ही अपने इस अजीम मुल्क को आजाद व खुशहाल देखने की तमन्ना थी, जिसमें जाति-बिरादरी, मजहब व जबान या रंग के नाम पर किसी तरह का शोषण न हो। जहां हर हिंदुस्तानी सिर ऊंचा करके चल सके। जहां अमीर-गरीब के नाम पर कोई भेद-भाव न हो। हमारा पांच हजार साल का इतिहास जाति-मजहब के नाम पर शोषण का इतिहास रहा है। अपनी जिंदगी में अपनी आँखों के सामने अपने इस अजीम मुल्क को आजाद होते हुए देखने की ख्वाहिश तो पूरी हो गई, लेकिन अब भी समाज में गैर बराबरी, भ्रष्टाचार, ज़ुल्म-ज्यादती व फिरकापरस्ती का जो नासूर फैला हुआ है, उसे देखकर बेहद तकलीफ होती है। दोस्तों, उम्र के इस पड़ाव पर हम तो चिराग-ए-सहरी (सुबह का चिराग) हैं, न जाने कब बुझ जाएं। आपसे और आने वाली नस्लों से यही गुजारिश और उम्मीद है कि सच्चाई व ईमानदारी का जो रास्ता हमने अपने बुजुर्गों से सीखा, उसकी मशाल अब तुम्हारे हाथों में है। इस मशाल को कभी बुझने मत देना।”



Late Captain Abbas Ali

डॉ राम मनोहर लोहिया ने एक बार कप्तान साहेब से कहा था कि “कैप्टन, आने वाली नस्लों के लिए खाद बनो”। उन्होंने पूरी ज़िंदगी इस बात को पकड़े रखा। शायद इसीलिये जब इमरजेंसी के बाद वे जेल से बाहर आये और चौधरी चरण सिंह ने कहा कि बुलंदशहर से लोकसभा चुनाव लड़ जाओ तो उन्होंने मना कर दिया क्योंकि उनको तो औरों को लड़ाना था और जिताना था। 1977 में कप्तान साहेब उत्तर प्रदेश जनता पार्टी के अध्यक्ष थे।

उनकी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब भी उनसे मुलाकात हुयी एक बात बिलकुल साफ़ समझ में आती थी कि उनको नौजवानों से बहुत उम्मीद थी। जब वे खुद नौजवान थे और गुलाम देश के नागरिक थे तब भी उन्होंने इन्हीं सपनों के साथ ज़िंदगी जीने का फैसला किया था।

मार्च 1931 में जब सरदार भगत सिंह को अंग्रेजों ने लाहौर में फांसी दे दी तो पूरे देश में उसकी राजनीतिक धमक महसूस की गयी थी। बालक अब्बास अली उन दिनों खुर्जा में पढ़ते थे। खुर्जा में भी सरदार भगत सिंह की फांसी पर लोगों ने अपने गम-ओ-गुस्से का इज़हार किया था और जुलूस निकाला था। 9 साल के अब्बास अली उस जुलूस में शामिल हो गए। और मन में मुल्क को आज़ाद कराने का सपना पाल लिया। बाद में वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने गए जहां उनकी मुलाक़ात कम्युनिस्ट नेताओं से हुयी। उस दौर के मशहूर कम्युनिस्ट नेता कुंवर मोहम्मद अशरफ से मुलाकात हुयी। वहीं पर साम्राज्यवाद के विरोध की ट्रेनिंग ली और कुंवर साहेब की प्रेरणा से 1939 में फौज में भर्ती हो गए। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। ब्रिटिश इन्डियन आर्मी के अधिकारी के रूप में उनकी तैनाती मलाया में हुयी। मलाया में तैनाती के समय जापानियों द्वारा युद्धबंदी बनाए गए। बाद में जब जनरल मोहन सिंह ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया तो उसमें शामिल हो गए और अंग्रेज़ी हुकूमत को चुनौती देने के अभियान में लग गए। ऐसा करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश सेना से बगावत की और आजाद-हिन्द-फौज के अधिकारी बन गए। जब दूसरा युद्ध खत्म हुआ तो अंग्रेजों ने इन लोगों को युद्ध बंदी बना लिया और देशद्रोह का केस बनाया, जबकि सच्चाई यह है कि आज़ाद हिन्द फौज के लोग देशद्रोही तो कतई नहीं थे। हाँ उनको ब्रिटश साम्राज्यवाद का द्रोही ज़रूर कहा जा सकता है। बहरहाल ब्रितानी फौज ने उनको 1946 में युद्धबंदी बनाया और पंजाब के मुल्तान ( अब पाकिस्त्तान ) के किले में बंदी बनाकर रखा। ब्रिटिश सेना द्वारा कोर्टमार्शल किया गया और सजा-ए-मौत सुनाई गई। लेकिन इस बीच देश आज़ाद हो गया और 1947 में देश का विभाजन होने के बाद जेल से रिहा किए गए। लेकिन इस बहादुर इंसान की ज़िंदगी में मुसीबतों ने डेरा डाल दिया था। भारत के बंटवारे के साथ साथ उनका परिवार भी बंट गया। उनके पिताजी, मां, भाई और बहन पाकिस्तान चले गए। उन पर भी दबाव था कि पाकिस्तान जाएँ लेकिन उन्होंने कहा कि अपना देश नहीं छोड़ूँगा क्योंकि इसकी आज़ादी के लिए हमारी पीढ़ी ने कुर्बानी दी है और अपना गाँव नहीं छोड़ूँगा क्योंकि यहाँ हमारे बुजुर्गो की हड्डियां दफ़न हैं और उनकी हिफाज़त के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ और यह कर्त्तव्य भी पूरा करूंगा।

परिवार बिखर चुका था लेकिन कैप्टन अब्बास अली टूटे नहीं। ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया। आधे परिवार के पाकिस्तान चले जाने के बावजूद अपनी जन्मभूमि भारत में ही रहना पसंद किया।

1948 में जब आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो अब्बास अली उसके संस्थापक सदस्य के रूप में उस पार्टी में शामिल हो गए। डॉ. लोहिया के बहुत करीबी दोस्त के रूप में काम करते रहे। अंगेज़ तो चले गए थे लेकिन 1948 से लेकर 1 मई 1977 तक सोशलिस्ट पार्टी में रहते हुए पचास से ज्यादा बार सिविल नाफरमानी आंदोलनों के तहत कांग्रेसी हुकूमत की जेलों की हवा खाई। जून 1975 में आपातकाल लगने के बाद मीसा के तहत बंदी बनाए गए और बुलंदशहर, बरेली तथा नैनी सेंट्रल जेल में 19 माह तक रहे। 1966 और 1974 में दो बार उत्तर प्रदेश संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के राज्य सचिव चुने गए। 1967 में संयुक्त विधायक दल का गठन किया। चौधरी चरण सिंह उन दिनों कांग्रेस पार्टी के विधायक हुआ करते थे। चौधरी चरण सिंह को तोड़कर उन्हें उत्तर प्रदेश का पहला गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनवाया। इस प्रोजेक्ट में कैप्टन अब्बास अली की खासी बड़ी भूमिका थी।

1977 में लोकसभा चुनावों के दौरान जनता पार्टी ने बुलंदशहर से आपको अपना उम्मीदवार बनाना चाहा, लेकिन मना कर दिया। इसी वर्ष आप उत्तर प्रदेश जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष बनाए गए। 1978 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए। 1984 में विधान परिषद से रिटायर हुए। आज़ाद भारत में कैप्टन अब्बास अली ने अगर कांग्रेस का साथ पकड़ लिया होता तो सरकारी पदों ओहदों की भरमार हो जाती लेकिन उन्होंने डॉ राम मनोहर लोहिया का साथ किया और उसको ज़िंदगी भर निभाया। डॉ राम मनोहर लोहिया के वे निजी मित्र भी थे और राजनीतिक मित्र भी थे। डॉ लोहिया की तरह कैप्टन अब्बास अली भी अपनी राजनीति कभी नहीं छोड़ते थे। एक बार इलाहाबाद के हिन्दू महासभा के नेता प्रभुदत्त ब्रह्मचारी मथुरा जेल में बंद थे। जेल में उन्होंने आमरण अनशन का फैसला किया। वे जवाहरलाल नेहरू के घोर विरोधी थे। 1957 में फूलपुर से नेहरू के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके थे। उनके अनशन को सरकार ने कोई तवज्जो नहीं दी। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने कहा वे अनशन तभी तोड़ेगें जब डॉ राम मनोहर लोहिया उनको मुसम्मी का जूस पिलायेंगे। डॉ लोहिया पहुंच गए लेकिन उन्होंने शर्त लगा दी कि किसी मुसलमान के हाथ से जूस पिलाऊँगा। कैप्टन अब्बास अली उनके साथ थे। इन दोनों ही नेताओं में राजनीतिक सिद्धांतों को ज़मीन पर लागू करने की अजीब बेचैनी थी।

अब्बास अली जीवन भर इंसानी बुलंदी और सामाजिक बराबरी की लडाई लड़ते रहे। उनका अपना परिवार राजपूतों की उस परम्परा से ताल्लुक रखता था जिसकी जड़ें अयोध्या के राजा रामचंद्र तक जाती थीं। उनका पालन पोषण सामन्ती माहौल में हुआ था। उनके अपने गाँव कलंदर गढ़ी में भी बहुत अधिक खेती थी लेकिन उन्होंने समाजवाद की लड़ाई का मन बनाया और आखीर तक उसी मुहिम में शामिल रहे। लेकिन उनकी राजनीतिक ज़िंदगी में सामन्ती संस्कारों के लिए कोई जगह नहीं थी।

कप्तान साहेब में राजनीतिक टैलेंट के पहचान की लाजवाब क्षमता थी। एक ही उदाहरण काफी होगा। 1967 में कप्तान साहेब अपनी पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के सेक्रेटरी थे। उन दिनों सेक्रेटरी के पास ही पार्टी के महत्वपूर्ण फैसले लेने की शक्ति होती थी। आजकल की तरह राजनीतिक पार्टियों में सैकड़ों की तादाद में सेक्रेटरी नहीं होते थे। टिकट देने का काम भी सेक्रेटरी को ही करना होता था। 1967 में इटावा में मुलायम सिंह यादव नाम के एक मामूली कार्यकर्ता को उन्होंने बरगद निशान वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ( संसोपा ) का टिकट दे दिया और अपने साथी राजनेताओं को बताया कि इस लड़के में वह चिंगारी है जो समाजवाद को आगे ले जायेगी। सभी जानते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के सभी हमलों में मुलायम सिंह यादव लड़ते रहे। कहीं हारे तो दूसरी जगह जीते लेकिन समाजवादी झंडे को हमेशा ऊंचा रखा।

इतने बुलंद इंसान के जाने के बाद आम आदमी की बराबरी की लड़ाई में एक खालीपन तो ज़रूर आया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वक़्त उसको कब पूरा करता है।

(Courtsey: Hastakshep.com)

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