अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना: दो रोज़ पहले उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में मंदिर में प्रवेश करने पर एक दलित दम्पत्ति की जलाकर हत्या कर दी गई. भारत के राजनीति की अगड़ों को अपने मंदिर में दलितों का आना पसंद नहीं, लेकिन जब बात वोट लेने की आती है तो वो यह कहने में भी नहीं झिझकते कि अगला सीएम-पीएम तो कोई दलित या पिछड़ा ही होगा.
सच तो यह है कि बिहार की चुनावी राजनीति में जो शब्द बार-बार आ रहे हैं, वे हैं – दलित, महादलित या पिछड़ा. इनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति चाहे जो भी हो, लेकिन राजनीति के केन्द्र में इस समय सिर्फ यही हैं. सबकी नज़र इन्हीं के वोटों पर टिकी हुई हैं, क्योंकि मामला लगभग 22 फ़ीसदी वोटों का है.
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दरअसल, समाज में सबसे कमज़ोर माना जाने वाला यह तबक़ा अब तक कई नेताओं की राजनीतिक बाजुओं में ताक़त भर चुका है. कई चेहरों को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचा चुका है. “तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” के नारे के साथ जब मायावती ने दलित पॉलिटिक्स की शुरूआत की तो कांग्रेस व बीजेपी जैसी पार्टियों के सारे समीकरण बिगड़ गए. मुलायम सिंह को भी दलितों की ताक़त का एहसास 1992 में हुआ. तब उन्होंने कांशीराम के साथ मिलकर नारा दिया, “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गया जय श्रीराम”. उस समय ये सिर्फ नारा नहीं, बदलाव था.
लेकिन अब स्थिति काफी बदल चुकी है. नारों के साथ दलित नेताओं की राजनीति करने वालों के चाल भी बदलें, चेहरा भी बदला और चरित्र भी. “तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.” जैसे नारों की जगह “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है.” ने ले लिया. तो वहीं समाजवादी मुलायम सिंह यादव को भी अब “जय श्रीराम” से कोई खास समस्या नहीं है. बिहार में भी दलितों की राजनीति करने वाले नेता मंत्रिमंडल का मज़ा लेने के लिए लगातार पार्टी बदलते रहे हैं.
ऐसे में यदि ग़ौर किया जाए तो इस समय भारत की कोई भी राजनीतिक पार्टी दलितों के लिए काम नहीं कर रही है. बल्कि दलितों की बात करने वाली पार्टियां उन्हें उकसाकर अपनी चुनावी दुकान चला रही हैं. कभी कांशीराम की राजनीति शुरू हुई थी ब्राह्मणवाद के विरोध से. लेकिन अब दलित नेताओं को सत्ता के लिए किसी से भी समझौता करने में कोई परहेज़ नहीं है. यह भी राजनीति ही है कि वोटों का सबसे बड़ा स्त्रोत होने के बावजूद दलित सत्ता के मामले में पिछड़ा ही है.
ख़ैर बिहार में दलित पॉलिटिक्स के आंकड़ों का आकलन करें तो बिहार विधानसभा में कुल 38 आरक्षित सीटें हैं. इसमें से 2010 में जदयू को 19 सीटें मिली थीं. हालांकि यह याद रखना निहायत ही ज़रूरी है कि इस चुनाव में मांझी जदयू के साथ थे. वहीं भाजपा के खाते में 18 सीटें आई थी. यानी एनडीए गठबंधन ने 2010 चुनाव में 38 में से 37 सीटें जीती थीं. आरजेडी सिर्फ एक सीट पर अपना क़ब्ज़ा जमा पाई थी जबकि 2005 में 6 सीटें मिली थीं. 2005 में 2 सीट जीतने वाली लोजपा तो 2010 में इन सीटों पर खाता तक नहीं खोल पाई. कांग्रेस का भी यही हाल रहा.
लेकिन अब स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है. नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन को लात मारकर अब महागठबंधन में हैं तो वहीं रामविलास पासवान अपने दोस्त लालू यादव का साथ छोड़कर भाजपा से हाथ मिला चुके हैं. जदयू का एक बड़ा दलित चेहरा जीतनराम मांझी भी अब एनडीए गठबंधन में हैं.
अब देखना दिलचस्प होगा कि क्या रामविलास पासवान जिस 4.5 फीसदी पासवान वोट पर पकड़ का दावा करते हैं, उनमें कितने प्रतिशत पासवान को अपना नेता मानते हैं क्योंकि खबरें बता रही हैं कि लोजपा का सहयोगी संगठन ‘दलित सेना’ एनडीए के सभी उम्मीदवारों का विरोध करने का ऐलान कर चुकी है. वहीं मांझी 5.5 फीसदी मुसहर जाति के वोट पर असर रखने का दावा करते हैं, लेकिन जानकारों का मानना है कि गया व जहानाबाद के मुसहर समुदाय ही उन्हें वोट दे दे, यही बड़ी बात होगी.
दूसरी तरफ़ जदयू में भी कई दलित चेहरे हैं. यहां उदयनारायण चौधरी, मंत्री श्याम रजक और रमई राम है. इसके अलावा नीतीश भी खुद को दलितों का हमदर्द बताकर वोट मांगते नज़र आ रहे हैं. वहीं कांग्रेस में दलितों के बड़े नेता बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार उनकी विरासत संभाल रही हैं. हालांकि उनके बारे में जानकारों का कहना है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल और लोकसभा की स्पीकर रहने के बावजूद उनकी पकड़ दलितों पर नहीं रह सकी है.
लेकिन लालू यादव को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण वाले बयान के बाद बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया है. और लालू एक बार फिर से खुद को दलितों-पिछड़ों का नेता मानकर मैदान में कूद पड़े हैं. इनके दलितों व पिछड़ों की राजनीति का गांव के लोगों में काफी हद तक असर भी हो रहा है. इसी असर को देखते हुए भाजपा को अब बोलना पड़ रहा है कि पार्टी आरक्षण के ख़िलाफ़ नहीं है.
खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता कहने वाली उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी बिहार की जंग में लगभग सारी सीटों पर अपने सिपाहियों को उतार दिया है. उनका दावा है कि बिहार का दलित इस बार हाथी को ही अपनी सवारी बनाएगा. लेकिन शायद मायावती को नहीं मालूम कि बिहार के दलित उत्तर प्रदेश के दलित वोटरों से राजनीतिक तौर पर ज्यादा परिपक्व है.
ऐसे में अभी यह कहना काफी मुश्किल है कि दलित वोट बैंक इस बार किसके साथ जाएगा. लेकिन इतना तो तय है कि दलित वोटर इस बिहार चुनाव में अहम किरदार ज़रूर निभाएगा. सच पूछे तो इस बार दलित वोट बैंक सत्ता की दिशा और दशा दोनों तय करने की कुव्वत रखता है. शायद यही वजह है कि सवर्ण पार्टी के सवर्ण नेता भी यह बोलने लगे हैं कि बिहार में अगला मुख्यमंत्री यादव, पिछड़ा या अति पिछड़ा ही होगा. तो वहीं विजन डॉक्युनमेंट में गरीबों को हर साल धोती और साड़ी के साथ ही दलित और महादलित परिवारों को रंगीन टीवी देने का वादा भी किया जा रहा है. लेकिन सच यह है कि अछूत कही जाने वाली इन जातियों ने अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ लड़ाई ज़रूर लड़ी, मगर अपनी पहचान के सवाल को कभी दबने नहीं दिया. अब चुनाव का नतीजा ही बताएगा कि बिहार पिछड़े-दलित किसके चेहरे को दिल में बैठाएंगे और किसके चेहरे को आईना दिखाएंगे.