जनता परिवार लालू-नीतीश तक सीमित नहीं, यह 85% जनता का प्रतिनिधित्व है: डॉ. एजाज अली

अभय कुमार

एजाज अली पेशे से डॉक्टर हैं मगर सियासत में उनकी पहचान एक दलित और पिछड़े नेता के तौर पर रही है, जो वर्षों से दलित मुस्लिमों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. पिछड़े और दलित राजनीति की विरासत उन्हें अपने ससुर गुलाम सरवर से मिली जो समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर की अगुवाई में बनी सरकार में शिक्षा मंत्री (1977-79) और लालू प्रसाद यादव की सरकार में विधानसभा के सभापति (1990-1955) थे. आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में बढ़ रही गहमागहमी के बीच, जनाब अली ने अपने दिल्ली दफ्त़र पर एक मुलाक़ात के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा कि लोगों के पास भाजपा को रोकने के लिए जनता परिवार के समर्थन के सिवाय और कोई चारा नहीं है क्योंकि अगर भाजपा को खुला छोड़ दिया गया तो वह लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर सकती है.


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1994 में ऑल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा (2001 में जिसका का नाम बदलकर ‘ऑल इंडिया यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा’ कर दिया गया) के संस्थापक एजाज अली ने आगे कहा कि चूंकि कांग्रेस अपने वर्षों की गलत नीतियों की वजह से गड्ढे में गिरी हुई है और आने वाले दस से पंद्रह साल तक कांग्रेस में नेतृत्व (लीडरशीप) का संकट छाया रहेगा, इसलिए बिहार की जनता को संविधान, न्यायपालिका, संसद, ट्रेड यूनियन, अल्पसंख्यकों के बचाव के लिए जनता परिवार को समर्थन देना चाहिए.

जहां एक तरफ भाजपा और संघ परिवार को देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बता रहे हैं छोटे कद के अली यह बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि जिस जदयू ने उन्हें राज्यसभा में भेजा उसने भाजपा के साथ तकरीबन 17 साल तक गठबंधन बनाए रखा. हमें यह फरामोश नहीं करना चाहिए कि बाबरी मस्जिद मामलों को अपनी रथयात्रा के जरिए उठाने वाले शीर्ष भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के 2009 के लोकसभा चुनाव प्रचार का शुभारंभ जदयू नेता और बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया था. आज अगर जदयू भाजपा से रुठ बैठी है तो जनता परिवार के दीगर नेतागण जैसे रामविलास पासवान, कुशवाहा, जीतनराम मांझी, भाजपा के हिंदुत्व रथ को बड़ी ताकत लगाकर खींच रहे हैं. इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए क्या जनता परिवार से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे भाजपा के हिंदुत्व के अश्वमेघ घोड़े को रोक पाएंगे?


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इन तमाम आकांक्षाओं से परे अली को विश्वास है कि जनता परिवार जो ‘भीमवादी’ व्यवस्था लाना चाहती है वह भाजपा के ‘मनुवादी’ व्यवस्था पर भारी पड़ेगी. अपनी दलील में अली ने कहा कि जनता परिवार लालू, नीतीश, शरद, मुलायम, पासवान और मांझी तक सीमित नहीं है. डॉ. एजाज अली के मुताबिक, बावजूद इसके कि जनता परिवार के कई नेताओं ने हाल में ही सियासी पाले बदले हैं, जनता परिवार असल मायनों में हिंदुस्तान की 85 फीसद जनता की नुमैन्दिगी (प्रतिनिधित्व) करता है. अली के अनुसार, जहां जनता परिवार लोकतंत्र के मूल्यों पर आधारित है वहीं संघ परिवार ‘मनुवाद’ की बुनियाद पर टिकी हुई है.

जब एजाज अली से जब यह पूछा गया कि क्या वे जनता परिवार का गैरवाजिब बचाव नहीं कर रहे तो उन्होंने पलटकर जबाब दिया कि आज बिहार के मतदाता के पास जनता परिवार को समर्थन देने के बजाय और कोई चारा नहीं है. उन्होंने कहा कि जब एक बार जनता परिवार चुनाव में संघ परिवार को धूल चटा देगा तो इन्हीं सारी प्रक्रियाओं से एक नया नेतृत्व उभरेगा जो जनता परिवार के आदर्शों को अमली जामा पहनाएगा.

जहां एक तरफ एजाज अली को यह यकीन है कि पिछड़ा और दलित, राजद और जदयू के महागठबंधन को सामाजिक न्याय और सेकूलरिज्म के मुद्दे पर समर्थन करेगा वहीं यह भी एक कडवी सचाई है कि आज पिछड़ों का एक अच्छा खासा तबका मोदी समर्थक भी बन चुका है. इस बाबत अली ने कहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में दलित और पिछड़े ‘गुमराही’ का शिकार हो गए थे क्योंकि मोदी ने अपने पिछ़ड़े होने का जातीय सर्टिफिकेट लेकर चुनाव प्रचार किया था. इसके अलावा वे मोदी के कामयाबी के पीछे कांग्रेस की ग़लत नीति को भी बहुत हद तक जिम्मेदार मानते हैं.

यह गौर करने की बात है कि जहां अली भाजपा और कांग्रेस की नाकामयाबियों पर जमकर बरस रहे हैं वहीं वह यह मानने से इंकार कर रहे हैं कि लालू और नीतीश के दौरे-ए-हूकुमत में मुसलमानों की समस्या न सुलझाई गई. उन्होंने कहा कि लालू यादव ने मुसलमानों को दंगामुक्त बिहार बनाकर बड़ी राहत दी मगर नीतीश ने दंगामुक्त बिहार के अलावा हुनर और शिक्षा पर भी ध्यान दिया जिससे मुसलमानों को काफी फायदा हुआ.

अली कहते हैं कि मुसलमानों की भलाई और विकास के लिए उनके सामाजिक, आर्थिक और तालीमी अधिकारों के लिए लड़ना होगा. इसी से जुड़ा हुआ मामला है संविधान की धारा 341 जिसके तहत दलित मुसलमान और दलित ईसाइयों को आजादी से पहले अनुसूचित जाति का आरक्षण मिलता था मगर प्रेसिडेंशियल ऑर्डर 1950 के बाद एससी श्रेणी से मुसलमानों और ईसाईयों को बाहर कर दिया गया.

अली का मानना है कि जैसे ही धार्मिक आधार पर अनुसूचित जाति आरक्षण से भेदभाव खत्म हो जाएगा और दलित मुसलमान आरक्षण के हकदार हो जाएंगे वैसे ही उनकी सारी समस्या खुद-ब-खुद सुलझ जाएगी क्योंकि भारत में 95 फीसदी समस्याएं शिक्षा और रोजगार से जुड़ी हुई हैं.

अली इस पर अफ़सोस ज़ाहिर कर रहे हैं की असली मसले उठाने के बजाय कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां वर्षों से मुसलमानों को धार्मिक और जज्बाती मामलों में उलझाए रखती हैं. उन्होंने कहा कि इस तरह की गलतियां मुस्लिम धार्मिक और राजनीतिक नेतागण जैसे असद्दुदीन ओवैसी, शाही ईमाम बुखारी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से जुड़े रहनूमा भी करते हैं.

अली की दलित मुसलमानों को आरक्षण में शामिल करने की जद्दोजहत पर भारत में सेकूलर प्रगतिशील और इन्साफपसंद लोगों की सहमति भी बन रही है, मगर सवाल यह है कि वर्षों की लड़ाई के बाद भी आज दलित फिछड़ा मुस्लिम आंदोलन जिसे हम ‘पसमांदा’ तहऱीक के नाम से भी जानते हैं, को मनवाने में अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है. इसकी एक वजह शायद यह भी है कि दलित मुसलमानों का आंदोलन आज कई खेमों में बंट गया है और इनकी आपसी कलह व सत्ता में ‘सुख भोगने’ की लालसा ने इनके आंदोलन को कमजोर कर दिया है. अली भी दलित मुसलनमानों के आंदोलन की टूटने की बात को कबूल कर रहे हैं मगर उन्हें उम्मीद है कि आंदोलन को पीठ दिखाने वाले लोग और समझौते की राजनीति करने वाले नेतागण बहुत जल्द एक नए नेतृत्व के जरिए पाट दिए जाते हैं. उन्हें ऐसी आशा है कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे मील के पत्थर साबित होंगे जिससे सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की राजनीति पहले से और गहरी होगी.

[अभय कुमार जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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