सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
नई दिल्ली: कन्हैया कुमार से यह बातचीत कुछ दिनों पहले जेएनयू में हुई. अनिर्बन भट्टाचार्य और उमर ख़ालिद से हुई बातचीत आप पहले पढ़ चुके हैं. मौजूदा वक़्त में कन्हैया कुमार को जान से मारने की धमकी मिली हुई है. उनके साथ उनके दो-तीन साथी लगातार मौजूद रहते हैं. वामपंथी संगठनों ने कहा है कि कन्हैया उनके लिए चुनाव प्रचार करेंगे, लेकिन कन्हैया किसी भी विश्वविद्यालय में वक्तव्य देने जाते हैं तो हमलों के शिकार हो जाते हैं. नीचे पढ़िए कन्हैया कुमार से बातचीत –
TCN: इस देशकाल से कैसे परिणाम की आशा आप कर रहे हैं?
कन्हैया: वैज्ञानिक रूप से हम कहें तो ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती है, उसका बस रूप बदल जाता है. संख्यात्मक रूप से तो पता नहीं चल रहा है कि हम किस स्टेज में हैं, लेकिन गुणात्मक रूप में हमें पता चल रहा है कि एक स्वतंत्र मास मूवमेंट इस देश में डेवलप कर रहा है, जिसके तीन सेगमेंट हम देख पा रहे हैं. एक, स्टूडेंट मूवमेंट. दो, दलितों के सवाल और तीन, किसानों और गरीबों के सवाल. ये तीन सेगमेंट मूवमेंट में दिख रहे हैं. अब पूरी जिम्मेदारी इस मूवमेंट के झंडाबरदारों पर है कि वे इस ऊर्जा को चैनलाइज़ कैसे करते हैं और इस चेंज को ला पाने में उनकी क्या भूमिका रही है? फासिज़्म के खिलाफ हमारी जो लड़ाई है, उसमें हमें ऐसे देखना होगा कि उसके खिलाफ हम एक न्यूनतम रिसोर्स के साथ कितनी बड़ी यूनिटी खड़ी कर पाए हैं? हां, हमारे जो मतभेद हैं, वे रहेंगे. लेकिन ये नहीं चलेगा. हम गैर-लोकतांत्रिक ताकतों को नहीं बर्दाश्त करेंगे. गैर-लोकतांत्रिक शक्तियों से मेरा साफ़ मतलब उन शक्तियों से है, जो सोशल डेमोक्रेसी के खिलाफ़ हैं, जो पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के खिलाफ है और जो आर्थिक डेमोक्रेसी के भी खिलाफ़ है. आर्थिक डेमोक्रेसी उन अधिकारों की वकालत है, जिसके तहत सरकार इस देश की जनता को उसका न्यूनतम आर्थिक अधिकार मुहैया कराती है. शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी भत्ता, ये न्यूनतम आर्थिक अधिकारों की बातें हैं. राजनीतिक लोकतंत्र में भी वही बात है. सबका अपना मत है, आप किसी पर अपने विचार थोप नहीं सकते. सामाजिक लोकतंत्र का मतलब यह है कि तरह-तरह के पहचान वाले लोगों के जो संवैधानिक अधिकार हैं, वे बिना किसी संघर्ष के बने रहें. संविधान में कहा गया है कि वन पर्सन इज़ इक्वल टू वन वोट…आप उसको जाति और धर्म के आधार पर घटा नहीं सकते. फासिज़्म एक बार में नहीं आता है, वह धीरे-धीरे आता है. पहले सोशल नैरेटिव आता है, फिर उसके आधार पर राजनीतिक रूप से अधिकार कटने लगते हैं. फिर सोशल और पॉलिटिकल नैरेटिव एक हो जाते हैं तो आर्थिक लोकतंत्र पर उनका एकाकी हमला होता है. तो रिज़ल्ट इन सभी मूल्यों पर हमलों के खिलाफ खड़ा है.
TCN: तो जिस रिज़ल्ट की ओर आपका इशारा है, क्या सचमुच में सभी छात्र ऐसा चाह रहे हैं कि गैर-लोकतांत्रिक ताक़तें संस्थानों में न घुसें? उनका दख़ल कम से कम हो? यानी आप युवाओं को देखिए, आधे तो जाने-अनजाने तरीक़े से उन्हीं ताकतों के साथ खड़े हैं, जिनके खिलाफ आपकी पूरी मुहिम केन्द्रित है.
कन्हैया:यूनिवर्सिटी के कैम्पसों में साफ़ तौर पर ध्रुवीकरण हुआ है और वह ध्रुवीकरण बीजेपी के खिलाफ़ हुआ है. कैम्पसों के बाहर स्थिति थोड़ी अलग है. कैम्पसों के बाहर भी ध्रुवीकरण हो रहा है, लेकिन उसमें बीजेपी को ज़्यादा फ़ायदा हो रहा है. उसमें उन्हें फायदा इसलिए हो रहा है क्योंकि ग्राउंड पर उनकी एकता अभी तक नहीं बन पायी है. कैम्पसों के बाहर का ध्रुवीकरण सोशल मीडिया से चल रहा है, उस जमीन पर बीजेपी मजबूत है. इसके साथ-साथ एंटी-फाशिस्ट ताकतों का जो कैडर है, वह भी ज़मीन पर उस मजबूती से नहीं खड़ा है, जिस तरह से उसकी ज़रुरत है. मैं नहीं कह रहा हूं कि उतरे नहीं हैं. वे हैं और डटे हुए हैं. लेकिन जिस तरह से उन्हें पूरे जोश के साथ आगे आना चाहिए, वह नहीं हो रहा है. यही वजह है कि कैम्पस के बाहर के संसार में फाशिस्ट ताकतें ज्यादा मजबूत हैं, और युवा भी उनकी ओर ज़्यादा खिंचते नज़र आ रहे हैं.
TCN: तरह-तरह के कैम्पेन चल रहे हैं देश में. जस्टिस फॉर रोहित, सेव जेएनयू, सेव नॉननेट फेलोशिप, लेकिन हमारे पास इन सभी कैम्पेनों की परिभाषाएं कम हैं. मानी रोहित को न्याय कब मिलेगा, या जेएनयू कब बचेगा? रोहित को न्याय मिलने से क्या दलितों को भी न्याय मिलेगा और जेएनयू के परिदृश्य में दूसरे विश्वविद्यालय भी आएंगे? आम जनता इस आन्दोलन को कैसे समझे?
कन्हैया: देखिए, ये एक बड़ी बहस का हिस्सा है. ये एक लार्जर डिस्कोर्स है. हम कह रहे हैं कि सबको शिक्षा सबको काम. और इस पूरी बहस में हमारा मुख्य एजेंडा है कि आप रोहित एक्ट को पास कीजिए. ये हमारी मांग है. चाहे जस्टिस फॉर रोहित वेमुला हो या जस्टिस और डेल्टा मेघवाल हो, ये सारे कैम्पेन रोहित एक्ट को लागू करने की नीयत से लाए जा रहे हैं. उस एक्ट में हम भेदभाव के प्रश्न का जवाब दे रहे हैं. उसे हल कर रहे हैं. अभी चूंकी रोहित एक्ट पूरी तरह से अपनी काया में नहीं आया है, इसलिए इन सारे आंदोलनों की कोई क्लियर तस्वीर नहीं बन पा रही है. हम उस प्रक्रिया में हैं. हर जगह जो स्वतःस्फूर्त आंदोलन खड़े हो रहे हैं, हम उनके संपर्क में हैं. उनसे अपनी नियमितता बैठाने की कोशिश में हैं. कई लोग हमें सुझाव दे रहे हैं. हम लोग इसे कर पाएंगे या नहीं, इसके बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन हमारी कोशिश पूरी है.
TCN: आपकी राजनीति जनवादी है. फिर भी एक आरोप उठ खड़ा हो रहा है कि कुछ प्रश्नों पर आपकी तरफ से कोई बात नहीं आयी. समलैंगिकता को लेकर इतनी बड़ी बहस पूरे यूरोप में हुई है, अपने यहां तो इसे बीमारी ही साबित किया जा रहा है. इस पर आप लगभग चुप रहे?
कन्हैया: जब भी कोई आंदोलन खड़ा होता है तो उसकी अपनी सीमाएं होती हैं. अपने ही डायनैमिक्स होते हैं. बड़ी बहस के दौरान तो चीज़ें कही ही गयीं हैं, बोला ही गया है. अपने भाषणों और नारों में भी मैंने कहा है कि भारत की माता की भी जय, पिता की भी जय, स्त्री की भी जय, पुरुष की भी जय और ट्रांसजेंडर की भी जय. बाक़ायदा बोला है. लेकिन हर आन्दोलन में किसी मुद्दे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है और किसी मुद्दे पर कम ध्यान दिया जाता है. वैसा ही यहां भी हुआ है.
TCN: इस पर मेरा एक और सवाल है. देश के कई पत्रकार आपके साथ खड़े रहे, कईयों ने तो आपकी मुहिम का समर्थन भी किया. यहां यह आपके समर्थन से ज़्यादा मुद्दे का, अभिव्यक्ति की आज़ादी का और लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन था. लेकिन वहीँ जब दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं, वे हिंसा के शिकार हो रहे हैं, गिरफ़्तार हो रहे हैं तब हमें कन्हैया की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही है.
कन्हैया: एक बात यहां बता देनी चाहिए. पता नहीं, हो सकता है कि समाज के हर कोने से लोग चाह रहे हों कि मैं हर चीज़ पर बोलूं लेकिन मैं हर उस चीज़ पर नहीं बोल सकता. न मेरे पास हर विषय पर बोलने की एजेंसी ही है, न मैं विशेषज्ञ हूं. लेकिन मैं कुछ प्राइमरी और मूलभूत चीज़ों पर हमेशा बात करता हूं. पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो सवाल है, उसके बारे में मैं कहना चाहूंगा कि 11 तारीख़ को यहां खड़े होकर जो मैंने भाषण दिया था, उसमें मैंने साफतौर पर कहा था कि पत्रकार भी पिटेंगे. फाशीवाद आएगा तो उसका इफेक्ट भी पत्रकारों पर पड़ता है. 15 तारीख़ को उनके साथ ऐसा हो गया. कुछ पत्रकार आए. उन्होंने कहा कि आपको कैसे पता कि हमारे साथ ऐसा होने वाला है? मैंने कहा कि मैं भविष्यवाणी नहीं कर रहा हूं. मैं फाशिज्म को समझने की कोशिश कर रहा हूं कि यह है क्या? उसकी संभावनाएं क्या-क्या हैं? उन संभावनाओं को मैंने आपके सामने रखा. मैंने उनसे कहा कि यह मेरे लिए भी ज्यादा आश्चर्यजनक है कि ये हमले ज्यादा जल्दी शुरू हो गए. तो कहीं भी ऐसा नहीं है कि पत्रकारों पर हमले होंगे तो मैं बोलूंगा नहीं. बोलूंगा ही लेकिन….
TCN: लेकिन आपसे यह आशाएं बहुत ज़्यादा बढ़ी हैं कि कैम्पस के बाहर यानी समाज के कमोबेश सभी मुद्दों पर आप बात करें. और ये मुद्दे ऐसे लोगों के हैं, जिनके लिए जेएनयू कुछ नहीं है, न राजनीति ही कुछ है, उनके मुद्दे तो हैं न.
कन्हैया: यहां दो लेवल बने हुए हैं. एक इनसाइड कैम्पस है, तो एक आउटसाइड कैम्पस है. आउटसाइड कैम्पस में यह तो हमेशा बना रहता है कि आपने इस पर बोला तो इस पर नहीं बोला. कैम्पस के अन्दर तो ये है कि केवल बाहर पर ही बोलता है. फाशिज्म रहेगा, इसलिए मैं कुछ फंडामेंटल चीज़ों की बात कर रहा हूं, जिसके अन्दर बहुत सारी बातें आ जाएंगी. हो सकता है मेरे पास जानकारी न हो, मुझे उसकी सूचना ही न मिली हो, मौक़ा ही न मिला हो या मैंने कहीं बोला हो तो वो सामने ही न आ पाया हो, ऐसी तरह-तरह की व्यावहारिक चीज़ों से भी बातें सामने आने से रह जाती हैं. लेकिन हम किसी मुद्दे से मुंह नहीं मोड़ रहे हैं. हमारे पास चुनाव का प्रश्न नहीं है कि इस पर बात करेंगे तो इस पर बात नहीं करेंगे. बस किन्हीं न किन्हीं वजहों से कुछ मुद्दे जगह नहीं बना पाते हैं और जहां तक oppression की बात है, दमन की बात है, उसके खिलाफ़ हमने आवाज़ उठायी ही है.
TCN: अब आपके बोलने की बात चल रही है. प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान आपके पास हॉस्टल के, इंटरनेट के, मेस के मुद्दे प्रमुख थे. पिछले डेढ़ महीनों में वे सारी बातें एक तरह से पीछे छूट गयी हैं और आपके भाषण का मुद्दा नेशनल हो चुका है. ये जम्प कैसे आया?
कन्हैया: देखिए, हमने उन मुद्दों को अभी तक छोड़ा नहीं है. कैम्पस के अन्दर के जो मुद्दे थे, उन मुद्दों को एक हद तक हमने सेटल किया है. चाहे वो, हॉस्टल का सवाल हो, वाई-फाई का सवाल हो, मेस का सवाल हो हमने मुद्दे ही कम लिए थे. हमने एक बार में बहुत सारे मुद्दे नहीं उठाए थे. हमारा सबसे प्राथमिक सवाल लिंगदोह पर था. लिंगदोह का मुद्दा हमने हल किया है, उसे पीछे छोड़कर हम इलेक्शन करा रहे हैं. वह एक बड़ा हीट है. हॉस्टलों में काम चल रहा है. आज ही हमारे ब्रह्मपुत्र हॉस्टल में वाईफाई लग गया. चीज़ें हो रही हैं. दरअसल, अपनी राजनीति में हम कैम्पस के सवाल और बाहर के सवाल को अलग करके नहीं देखते हैं. क्योंकि ये सब बड़े स्तर की राजनीति का ही हिस्सा है. कैम्पस भी राजनीतिक संघर्ष का शिकार हो रहे हैं. इस दौरान सरकार ऐसी है और उसके हमले इतने ज्यादा हैं कि कैम्पस के अन्दर जो काम हो रहा है, हम उसे स्टूडेंट्स कम्यूनिटी तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि बाहर के मुद्दे ज्यादा प्रमुख हो गए हैं. यह बाहर या अन्दर के मुद्दे की बात नहीं है, यह समाज के मुद्दे की बात है. उसमें ज्यादा ऊर्जा देनी पड़ती है क्योंकि वह एक बड़े दृष्टिकोण की बात है. इस हाल में कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि हम उसे ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है. हम कैम्पस के अन्दर और बाहर की राजनीति के बीच तालमेल बिठाकर चल रहे हैं. कैम्पस के भीतर के मसलों को लेकर बहुत पॉजिटिव माहौल बना हुआ है.
TCN: आप जेल में रहे. जेलों पर क्या राय है आपकी?
कन्हैया: हमने तो असली जेल देखी ही नहीं. ये बात पूरी ईमानदारी के साथ कह रहा हूं. असली जेल के बारे में सुनता हूं कि एक बैरक में चालीस लोगों को रख दिया है, पचास लोगों को रख दिया गया है. मुझे तो बिलकुल अलग रखा गया था. लेकिन मैं एक बात कह सकता हूं कि बाहर आने के बाद मुझे लग रहा है कि मैं जेल में ही ठीक था. मैंने बोला भी था कि मुझे छोटी जेल से निकालकर बड़ी जेल में डाल दिया. मेरा जीवन ही अभी तक सामान्य नहीं हो पाया है. पता नहीं क्यों, हर जगह मुझे जेल की तरह ही लग रही है.
TCN: जीवन क्यों सामान्य नहीं हो पाया है?
कन्हैया: क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदलीं. कल तक जिसको मुझसे कोई मतलब नहीं था, आज वो मुझे माँ-बहन की गालियां दे रहा है. वो मुझे जानता भी नहीं है, पहचानता भी नहीं है. उसने एक perspective बना लिया है. जो उसे फीड किया गया है, वह उसी के आधार पर मेरे बारे में ओपिनियन बना रहा है. उसकी वजह से बहुत सारी धमकियां हैं, कहीं न कहीं डर भी है, लगातार नज़र रखी जा रही है. ये सभी चीज़ें हैं.
TCN: जो भारतीय राजनीति का लेफ्ट है, उसकी दशा आपकी नज़र में क्या है?
कन्हैया: लेफ्ट में समस्याएं तो हैं. बिलकुल हैं.
TCN: लिबरल ideologue ने भी लेफ्ट पर सवाल उठाए हैं.
कन्हैया: हम ज्यादा थ्योरेटिकल बातचीत में नहीं जाएंगे. इंडिया का लेफ्ट दो चीज़ों से ग्रस्त है. एक, कट्टरपंथ और दूसरा, मार्क्सवाद के कोर डायलेक्टिकल मैटेरियलिज्म से उसकी दूरी. वह उससे बहुत दूर जाकर खड़ा है. वह चीज़ों को बहुत मैकेनिकल तरीके से देखता है.
TCN: सोशल इम्प्लिकेशन भी नहीं दिखता है.
कन्हैया: हाँ, वह तो है ही. इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि लेफ्ट ने भारत में जाति और वर्ग का अंतर ही नहीं समझा. जिस समय क्लास की बात हो रही थी, उस समय कास्ट की बात नहीं हुई. अब कास्ट की बात हो रही है, तो क्लास की बात नहीं हो रही है. इसी पॉलिसी से आप अंदाज़ लगा लीजिए. मैं पूछ रहा हूं कि आप कैसे लड़ेंगे? ठीक है, फाशीवाद मुर्दाबाद! बीजेपी मुर्दाबाद! लेकिन सवाल तो वही है कि आप कैसे लड़ेंगे? थ्योरी में मत बताइये, प्रैक्टिस में बताइये. 31 प्रतिशत वोट है भाजपा के पास, बताइए कैसे लड़ेंगे? आपकी उपस्थिति क्या है? वोट के आधार पर बताइए, संगठन के आधार पर बताइए. क्या हो सकता है? भाजपा की राजनीति का जो पूरा आधार है, उसका काउंटर कैसे तैयार करेंगे. थ्योरी में नहीं, प्रैक्टिकल में बताइए. आधार है कुछ? मेरी नज़र में तो एक ही आधार है, एक लकीर को छोटा करने के लिए उसके बगल में एक बड़ी लकीर खींच दीजिए. उस लकीर को मिटा नहीं सकते, गैर-लोकतांत्रिक नहीं हो सकते. हम ये तो कर नहीं सकते कि बन्दूक लेकर कुछ लोगों को मारें और कहें कि देखिए दक्षिणपंथ ख़त्म हो गया. ये तो एक गैर-मार्क्सवादी नजरिया हो गया. यहां एक यूनाईटेड फ्रंट बनाने की ज़रुरत है. आप बनाइए एक ऐसा फ्रंट. यूनाईटेड फ्रंट का मतलब यह नहीं कि आप राजनीतिक गठबंधन कीजिए. इसका मतलब यह है कि आप एक लाइन बनाइये. कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़िए. उसमें आखिर में लिखा गया है कि एक कम्यूनिस्ट का दोस्त कौन हो सकता है? मिडिल क्लास और लोअर मिडिल क्लास को अपने साथ जोड़िये. सिर्फ कांग्रेस के साथ मिलकर राजनीति करने से क्या होगा? 31 प्रतिशत तो भाजपा के साथ है, 69 प्रतिशत जो बीजेपी के खिलाफ है उसको कैप्चर करना भी तो प्राथमिकता है. उसका प्लान कुछ लाना होगा न? वो किया जा सकता है. आप ही कर रहे हैं. आप जहां मौजूद हैं, आप वहां ये कर पा रहे हैं, इसलिए आप वहां अभी भी हैं.
TCN: वहीँ से ये सवाल उठता है कि जो आम वोटर बिना किसी राजनीतिक विचारधारा के अपने फायदे के लिए वोट करता है, वह लेफ्ट को क्यों वोट करेगा?
कन्हैया: ज़ाहिर है. मेरा उत्तर है कि वह लेफ्ट को इसलिए वोट करेगा क्योंकि वो कहीं काम करता होगा. सुबह उठता होगा, टाई लगाकर ऑफिस जाता होगा, हर महीने उसको तनख्वाह मिलती होगी. जब शाम को बैग लेकर घर थककर आता होगा तो आप उससे पूछेंगे कि चेहरा क्यों उतरा हुआ है, तो अपने बॉस को चार गालियां देगा. पांच गाली निकालेगा कारपोरेट कल्चर को, और छः गाली खुद पर निकालेगा कि ज़िन्दगी को ऐसा फंसा दिए हैं कि नशा करके दुःख भी नहीं मिटा सकते. उसकी समस्याएं हैं न. उसकी रोज़-रोज़ की झंझट है न. उस Daily contradiction को आप संबोधित कीजिए, तब वो आपको वोट करेगा. लेफ्ट तो यह बोल ही रहा है कि यह फाइनेंशियल पूंजीवाद का दौर है, तो आप प्रोडक्टिव पूंजीवाद को पकड़िये. मोनोपोली के खिलाफ आपका साथ कौन देगा, इंटरप्रेंयोरशिप ही न. जब दुनिया में नयी टेक्नोलॉजी आ रही थी और उसके साथ कोई खड़ा नहीं हो रहा था, उस समय आप यदि खड़े हो गए होते तो आप मोनोपोली को पलट दिए होते, उसे ब्रेक कर दिए होते. चार-पांच लोगों ने मिलाकर Linux बना दिया. ये एजेंडा किसी कम्यूनिस्ट पार्टी का होता तो क्या-क्या हो गया होता? नहीं हुआ इसका मतलब आपके पास Lack of Vision है. इसका मतलब हम गरीबी का राग तो अलाप सकते हैं, लेकिन गरीबी दूर करने का विकल्प हमारे पास नहीं है. वो विकल्प यदि कहीं दिखता है तो लैटिन अमरीका में दिखता है. वहां वही क्लास वोट दे रहा है, जो यहां कहता है कि उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. उसको वहां आशाएं दिखती हैं. आपको भी यहां उसी तरह काम करना है. मोदी सरकार की जो नीतियां हैं, आप उन्हें सामने लाईये. पूरे आंकड़ों और तथ्यों के साथ एकदम आम भाषा में. तुरंत लोगों को पता चलने लगेगा कि 5 करोड़ रूपए सरकार ने विज्ञापन में खर्च कर दिए, यदि एक-एक लाख भी लोगों को स्टार्टअप के लिए मिल गया होता तो पांच सौ लोगों को रोजगार मिल गया होता. ये दिखेगा लोगों को. आपको बोलना होगा लोगों से कि प्रोडक्शन की समस्या नहीं है, डिस्ट्रीब्यूशन की है. आप हमें चुनिए, हम डिस्ट्रीब्यूशन करेंगे. लेफ्ट को ऐसे बात करनी ही होगी. चीज़ें की जाती हैं. आप अरविन्द केजरीवाल को देखिए. उसने डिलीवर किया है. न वो कांग्रेसी है, न लेफ्ट का बन्दा है, तो वो कैसे कर रहा है? कर रहा है न.
TCN: लेफ्ट का बिखराव भी तो इसमें एक समस्या है?
कन्हैया: ये तो सबसे बड़ी समस्या है. मैं लेफ्ट यूनिटी की बात करता हूं. एक राजनीतिक पार्टी की तरह नहीं, एक राजनीतिक शक्ति की तरह लेफ्ट की बात करता हूं. राजनीतिक शक्ति का मतलब साफ़ है. हो सकता है कि आप किसी कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं है, लेकिन यदि आपके विचार एंटी-इश्टैबलिश्मेंट हैं तो आप विचारधारा से लेफ्टिस्ट हैं. आपका कंटेंट लेफ्ट का है. मुझे बार-बार लगता है कि यदि लेफ्ट अपना कट्टरपंथ छोड़ दे तो देश हमारा इंतिज़ार कर रहा है. अपनी ब्रैकेट की लड़ाई को छोड़ना होगा. अभी लालू यादव नहीं है विपक्ष में. अभी मोदी है. तो आप लालू यादव के साथ संबंध बनाइये. मोदी सरकार गिराइए फिर लड़िये. छोटे दुश्मन, बड़े दुश्मन की लड़ाई कितनी कारगर रही है देश की राजनीति में, उसे समझिए न. और इस नीति पर किसी ने इस देश में काम किया है, तो भाजपा ने. भाजपा ने इस पर बड़े रोचक तरीके से काम किया है. भाजपा हिन्दुत्ववादी पार्टी है. हिन्दूराष्ट्र का निर्माण उसका सपना है और उसका राजनीतिक गठबंधन किससे है, अकाली दल और पीडीपी से. सीखिए न भाजपा से. वो आप से ज्यादा वैज्ञानिक हैं. आप लेफ्टिस्ट हैं, मार्क्सवादी हैं. लेकिन इस देश में सबसे पहली वेबसाइट किसी राजनीतिक पार्टी की बनी तो भाजपा की.
TCN: हाथ आया बंगाल तो लेफ्ट ने खो दिया?
कन्हैया: अब ज़मीन देकर सरकार बनायी और वापस ज़मीन लेने गए तो सरकार चली गयी. क्या होगा, यही होगा. आर्थिक तंत्र को समझना होता है. अम्बेडकर क्या कह रहे हैं? वे कह रहे हैं कि बेसिक चीज़ें अपने हाथ में रखो, बाकी चीज़ें प्राइवेट हाथों में भी हैं तो कोई दिक्कत नहीं है. सरकार के जिम्मे सबके बीच भूमि का आवंटन हो. शिक्षा, स्वास्थ्य, फाइनेंस और सुरक्षा सरकार के पास हो. बाकी चीज़ों बाज़ारों में हों तो क्या दिक्कत है. आपस में लोगों की स्पर्धा होगी तो मूल्य नीचे जाएंगे. मेरे कहने का मतलब वही है, मार्क्सवाद को यदि आप राजनीतिक घोषणापत्र बना देंगे तो दिक्क़त है. उसे दुनिया देखने का एक टूल बनाना होगा, तभी उसकी सही उपयोगिता सामने आएगी. उससे आपको बहुत सारे रास्ते मिलेंगे.
TCN: कश्मीर का क्या हल है?
कन्हैया: कश्मीर का हल भी बेहद सिलसिलेवार तरीके से देखना चाहिए. कश्मीर को भारत से अलग कर देने की मांग एक कट्टरपंथी मांग है. और ऐसा सुनना मूर्खता भी लग रहा है. ऐसा क्यों? दुनिया में बाउंडरी ख़त्म हो रही है, और हम बाउंडरी बनाने पर लगे हुए हैं. यूरोप में क्या हो रहा है? स्कॉटलैंड कह रहा है कि हम ब्रिटेन के साथ रहेंगे और ब्रिटेन उधर वोट करा रहा है कि हम यूरोपीय महासंघ में शामिल होना चाहते हैं. पूरे यूरोप में कहीं वीज़ा नहीं लग रहा है. क्यों ऐसा हो रहा है? क्योंकि आर्थिक शिफ्ट आने से नेशनलिज्म की परिभाषा का विलय हुआ है. मैं पूछता हूं कि कश्मीर यदि बन भी जाएगा तो उसका क्या वजूद रह जाएगा? कुछ नहीं. दक्षिण एशिया में यदि शान्ति रही होती तो दक्षिण एशिया विश्व में एक निर्णायक भूमिका में होता. भारत-पाकिस्तान में राष्ट्रवादी लड़ाई चल रही है, उसमें सुरक्षा के नाम पर हमें बहुत सारा पैसा बर्बाद किया है
.
TCN: बीजेपी का जो राष्ट्रवादी स्वरुप है, उन्हें तो कश्मीर की समस्या को अब तक सुलझा लेना चाहिए था. होता. वहां पीडीपी के साथ हैं और यहां केंद्र में भी हैं.
कन्हैया: ऐसा क्यों करेंगे वे? उन्हें हल ही नहीं करना है. भाजपा को कश्मीर को मुद्दा बनाकर रखना है. कश्मीर क्या, उन्हें कोई भी मुद्दा हल नहीं करना है. उनकी पूरी राजनीति विभाजन की है. उनको न मंदिर बनाना है, मस्जिद तो खैर बनाना ही नहीं है. उन्हें मुद्दे की तरह जीवित रखना है. वे एक कम तीव्रता के संघर्ष को समाज में बनाए रखने में यकीन रखते हैं, जब ज़रुरत पड़ी तो हवा दे दी.
TCN: अल्पसंख्यक पॉलिटिक्स में लगभग गायब हैं?
कन्हैया: उनके लिए तो पहचान ही सबसे बड़ा मुद्दा है. उनकी जो पहचान समाज में विकसित हो रही है, उन्हें उससे भी तो लड़ना है. वे धीरे-धीरे आते हैं, लेकिन जब वे मुख्यधारा में आते हैं तो उन्हें सुना जाता है. उनके लिए राजनीति कोई चॉइस नहीं है, जैसे मेरे लिए नहीं है. मैं राजनीति करने के लिए बाध्य हूं. यही उनके साथ भी है. यह शौक नहीं है. हम सभी जीवन का संघर्ष कर रहे हैं.