‘सवर्ण वर्ण-व्यवस्था और देश के परिवर्तन को समझ नहीं पाए’

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

उत्तर प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में बनारस के एक परिवार का खासा महत्त्व और वर्चस्व है. उस परिवार के मुखिया हैं राजेशपति त्रिपाठी. स्वर्गीय पं. कमलापति त्रिपाठी के पौत्र. बनारस की कांग्रेस की राजनीति में साल 2014 के लोकसभा चुनावों के वक़्त दोफाड़ दिखायी दिया था. उस दौरान बनारस के सांसद रह चुके राजेश मिश्रा ने चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली थी, लेकिन कुछ वक़्त पहले ही कांग्रेस में आए विधायक अजय राय ने भी कांग्रेस की ही ओर से मजबूत दावेदारी पेश की थी. इस उहापोह के बीच बेहद अनिर्णय की स्थिति बनी और जब अनिश्चय के बादल छंटे, तब अजय राय को लोकसभा चुनाव का टिकट दिया गया. इस पूरे प्रकरण में बनारस में जिस अफवाह को सबसे ज्यादा बल मिला वह यह कि ‘अजय राय के सिर पर राजेशपति त्रिपाठी का हाथ है.’ पूछे जाने पर राजेशपति त्रिपाठी ने ऐसी किसी भी संभावना से इनकार कर दिया और बात वहीँ ख़त्म हो गयी.


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अब अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा होने हैं. कांग्रेस विधानसभा चुनावों को लेकर मुस्तैदी में है क्योंकि तीन सालों बाद फिर से लोकसभा चुनाव होने हैं. बनारस में भी दो सालों से सोयी पड़ी कांग्रेस में जान पड़ गयी है. पूर्व सांसद राजेश मिश्र को कांग्रेस का प्रदेश उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है, उसके अलावा राजेशपति त्रिपाठी को चुनाव प्रभारी नियुक्त किया गया है. प्रेस कॉन्फ्रेस में मंच पर राजेशपति त्रिपाठी, राजेश मिश्र, अजय राय, सतीश चौबे और प्रजानाथ शर्मा मौजूद थे. राजेशपति त्रिपाठी से ये बातें चंद रोज़ पहले हुई एक प्रेस कांफ्रेस के बाद हुई थीं.

आज की प्रेस कांफ्रेस में डायस पर सभी हिन्दू सवर्ण और सभी पुरुष बैठे हुए थे. कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार गयी लेकिन शीला दीक्षित को छोड़ दें तो प्रदेश में नेतृत्व के नाम पर महिलाएं, गैर-सवर्ण और मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व लगातार ख़त्म होता जा रहा है. आज की प्रेस कांफ्रेंस के सेटअप को देखकर यह साफ़ भी हो गया. वर्ण और जाति की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस की मंशा क्या है?
यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है. कांग्रेस के एक पारंपरिक राजनीतिक दल होने की वजह से पार्टी से जुड़े बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से जुड़े हुए हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन के समय शिक्षा शायद सवर्णों में ज्यादा थी. स्वतंत्रता की भूख तो पूरे देश में थी, लेकिन सवर्ण उस भूख को अच्छे तरीके से प्रकट कर सकते थे. देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या चुपचाप सहने की आदी हो चुकी थी. सवर्ण आगे बढ़े और कांग्रेस पार्टी में उन्होंने अपना स्थान बनाया. आज़ादी के बाद भी वह स्थान उन तक सिमटा था और जब समाज में परिवर्तन हो रहा था सवर्ण नेतृत्व इस परिवर्तन को समझ नहीं पाया. देश में और वर्ण व्यवस्था की आकांक्षाओं में इस परिवर्तन को सवर्ण समझ नहीं पाया. हम इसे तब तक नहीं समझ पाए जब तक हमारी पुरानी सोच बनी रही. राहुल गांधी आए. उनकी पसंद निर्मल खत्री थे, उन्हें आप सवर्ण कह सकते हैं. लेकिन निर्मल खत्री को जाति की वजह से प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया गया, उनकी योग्यता पर बनाया गया. अभी राज बब्बर जी आए हैं. राज बब्बर जी भी एक तरह से सवर्ण हैं. जनता का उनके प्रति जो आकर्षण है, उसे देखते हुए शायद उन्हें प्रदेश अध्यक्ष निर्वाचित किया गया है. हममें आज भी कमी है. आपने एकदम सही कहा. आज सवर्ण बहुलता थी. इस चीज़ को दिमाग में रखकर हमें कोई भी कार्यक्रम करना होगा. इस दिशा में आगे से ध्यान रखेंगे.

राहुल गांधी का जो दलितों और गैर-सवर्णों को रिझाने का मॉडल था, उसमें भाजपा भी उतर गयी है. अमित शाह दिल्ली से चलकर बनारस आ रहे हैं और दलितों के घर जाकर खाना खा रहे हैं? भाजपा के पास अभी ताकत भी है. तो अभी कांग्रेस किस तरीके से भाजपा की कार्रवाईयों को काउंटर करेगी? कांग्रेस के हाथ में कहां सफलता आएगी?
आप आज की स्थिति देखिए. राज बब्बर जी अध्यक्ष हैं और उनके नीचे पांच उपाध्यक्ष हैं. वे सभी अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. वहां सभी को लेकर चलने वाले और मजबूत लोगों को बिठाया गया है. चाहे मुसलमान हों, चाहे ब्राह्मण हों या पिछड़े समुदाय से हों. हमारे यहां बीच में नेतृत्व नहीं था या था तो बिखर गया था. हमारे नेता जो चुनाव हार गए थे या तो उनका अस्तित्व कम हो गया था या ख़त्म ही हो गया था. बाहर से लोग आए और कांग्रेस की कोशिश का भरपूर फायदा उठाया और चले गए. निश्चित रूप से पिछड़ों का नेतृत्व हमारे पास था, अब नहीं है. बीच में हम सत्ता में थे तब राहुल जी ने कोशिश की कि हम पार्टी के अन्दर ही लोगों को डेवलप करें. बिजनेस का जो मॉडल होता है, जिसमें ऑर्गेनिक और इनऑर्गेनिक दोनों तरह की चीज़ें होती हैं, हमें उसे फ़ॉलो करना होगा. निकट भविष्य के लिए हम क्या कर सकते हैं और दूरगामी भविष्य के लिए क्या कर सकते हैं?

यानी कांग्रेस को बिज़नेस मॉडल पर चलाने की तैयारी है?
मैं ग्रोथ की बात कर रहा हूं. यह कोई बिजनेस नहीं है, लेकिन उससे प्रेरित है. प्रकृति और खेती जैसी सभी चीज़ों में ऑर्गेनिक-इनऑर्गेनिक का समीकरण होता है. किसी भी संगठन में विकास भी ऑर्गेनिक-इनऑर्गेनिक के समीकरण पर होता है. जब हम उसी संगठन से लोगों को बढ़ाते हैं तो वह ऑर्गेनिक मॉडल हो गया, लेकिन जब हम फौरी प्रभाव के लिए बाहर से किसी चीज़ को संगठन में आयातित करते हैं तब वह इनऑर्गेनिक हो जाता है. इसे लेकर भ्रम नहीं होना चाहिए. संगठन के तौर पर दलितों से अपने रिश्तों पर हम दोनों तरीकों से ध्यान दे रहे हैं.

गंगा का मुद्दा है. सोनिया गांधी आने वाली हैं. बनारस में गंगा पूजन करेंगी. बीते समय में भी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व बनारस आया है. लेकिन गंगा को लेकर कांग्रेस कभी इतनी रैडिकल नहीं दिखी. क्या ये नरेंद्र मोदी के गंगा मूवमेंट का असर है कि अब विरोध के लिए भी कांग्रेस को गंगा की शरण में आना पड़ रहा है?
2014 के चुनाव में लोगों का एक दृष्टिकोण बना कि कांग्रेस सिर्फ अल्पसंख्यकों की पार्टी है. इस चीज़ को भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बहुत प्रचारित किया. उसका असर हिन्दुओं के ऊपर निश्चित रूप से पड़ा. हम सर्वसमाज की पार्टी हैं. हम सभी तबकों और समुदायों को साथ लेकर चलते हैं. देश को साथ लेकर चलते हैं. हमने गरीबों की लड़ाई लड़ी है और यह मानते हैं कि उन्हें हम जातियों में नहीं बाँट सकते. हमने किसानों की लड़ाई लड़ी है और उनके लिए भी हमारा यही मानना है कि हम उन्हें भी जातियों में नहीं बाँट सकते हैं. मैं कहीं पढ़ रहा था कि उत्तर प्रदेश में ‘डेमोक्रेसी’ नहीं है ‘कास्टोक्रेसी’ रह गयी है. लोकतंत्र नहीं जातितंत्र है. पं. कमलापति त्रिपाठी थे. उनके बारे में कहा जाता था कि वे तीन-तीन घंटे पूजा करते थे, खांटी ब्राह्मण थे. ऐसा नहीं था. उनके साथ मुसलमान भी रहते थे, उनके कई कर्मचारी मुसलमान थे. हिन्दू भी थे. कमलापति त्रिपाठी सनातन हिन्दू धर्म का बहुत सम्मान करते थे, लेकिन उतना ही सम्मान वे अन्य धर्मों को भी देते थे. बाबरी मस्जिद के बारे में उन्होंने कहा था कि ‘पहला फावड़ा मेरी गर्दन पर चलेगा’. मुझे लगता है कि ऐसा हिन्दू धर्म को जानने वाला व्यक्ति ही कह सकता है. उस वक़्त ऐसे लोग थे जो पार्टी की विचारधारा को इस तरह से गाइड करते थे. सोनिया जी आएंगी, मंदिरों में जाएंगी, गंगा-पूजन करेंगी या धर्मावलम्बियों से मिलेंगी. सोनिया जी ने मुझे खुद बताया कि कैसे इंदिरा गांधी बदरीनाथ, केदारनाथ, प्रयाग, वाराणसी जाती थीं लेकिन वे उसका कभी प्रचार नहीं करती थीं. मैंने खुद उनसे पूछा था कि आप उज्जैन कुम्भ में नहीं गयीं? तो उन्होंने कहा कि यह आस्था का सवाल है. हमारे परिवार में हमेशा कुम्भ प्रयाग में मनाया जाता था, उसके अलावा हम कभी कहीं और नहीं गए. ऐतिहासिक रूप से जब हम प्रयाग कुम्भ से बाहर नहीं गए तो सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए उज्जैन क्यों जाऊं? और मेरे जाने से और लोगों को परेशानी होगी. अब देखिए, वे सावन के महीने में बनारस आ रही हैं. उनकी हम लोगों को साफ़ हिदायत है कि लोगों को कम से कम परेशानी का सामना करना पड़े.

गंगा पर ही बात करते हैं अभी. गंगा का इतने वर्षों से क्या हुआ या क्या नहीं हुआ, यह एक भिन्न मसला है. लेकिन केंद्र में दस साल कांग्रेस सत्ता में थी. इस पूरे वक़्त में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की मुश्किल से तीन या चार बैठकें हुईं. और वह भी तब जब प्राधिकरण की कमेटी के तीन सदस्य बनारस से ही थे. तो क्या अभी गंगा को मुद्दा बनाने से पहले कांग्रेस को यह नहीं सोचना चाहिए कि बतौर सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस उस समय ज्यादा काम कर सकती थी?
इस विषय में जैम संसाधन से जुड़े एक वैज्ञानिक थे, उनसे मेरी लम्बी बात हुई थी. उन्होंने बताया कि कोई भी चीज़ लाने के पहले सरकार को पूरा अध्ययन करना पड़ता है और खासकर जब गंगा जैसा वैज्ञानिक मसला हो तब तो सावधानी और भी ज्यादा बढ़ जाती है. गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के बाद जब पूरी पॉलिसी बनी कि गंगा राष्ट्रीय नदी है और इस पर कैसे कार्य होगा, जब तक सारी चीज़ें क्रियान्वन की स्थिति में आयीं तब तक देर हो गयी. कहना तो बहुत आसान है कि गंगा की कोई सफाई नहीं हो रही है. लेकिन हम लोगों ने समस्याएं इतनी बड़ी खड़ी कर दी हैं कि किसी बनी-बनायी योजना का क्रियान्वन भी मुश्किल हो जाता है. यमुना को देखिए. क्या उसके लिए योजनाएं नहीं बनीं, लेकिन उस पर मानव का लोड इतना है कि वहां साफ़ होने की कोई जगह ही नहीं बची. कितने सारे अवैध निर्माण हैं यमुना पर. योजना बनाना, उसके लिए प्लानिंग करना, फंड का इंतजाम करने में चार से पांच वर्ष लगे और जब तक सारी चीज़ें पूरी हुईं तब तक सरकार बदल गयी.

आप बनारस के हैं. यहां कछुआ सेंचुरी में जहाज चलाने की बात चल रही है. वन विभाग के जिस पहले अधिकारी ने एनओसी नहीं दी थी, उनका स्थानान्तरण हो गया. बाद में कमेटी गठित हुई तो कमेटी ने बिना किसी हिचक के कछुआ सेंचुरी में जहाज चलाने के लिए एनओसी दे दिया. ऐसे में कांग्रेस का गंगाप्रेमी स्वरुप कहां है?
जब से भाजपा की सरकार आई है, पर्यावरण को लेकर बनाए गए इनके सारे नियम-क़ानून संदेह के घेरे में है. पर्यावरण ही क्यों, गरीबों और आदिवासियों के लिए भी कांग्रेस ने बहुत बड़ी लड़ाई लड़ी, ये उस लड़ाई को भी आज ख़त्म करने की तैयारी में हैं. कोई खदान है, वहां खनन होना है तो भाजपा को इसकी फ़िक्र नहीं है कि वहां आसपास रहने वाले लोग कहां जाएंगे. अब जब इनको इंसानों की फ़िक्र नहीं है, तो यह आशा कहां से लगायी जानी चाहिए कि वे कछुओं या दूसरे जानवरों के लिए कुछ सोचेंगे. कांग्रेस ने हमेशा ऐसी चीज़ों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. हम जनप्रिय मूल्यों के साथ खड़े रहे हैं. आदमी इतनी विषम परिस्थितियों की लगातार बढ़ रहा है कि उसे चेत जाना चाहिए. कांग्रेस ने जिस मोड़ पर लाकर देश को खड़ा कर दिया है, हमें वहां से आगे का ही रास्ता तय करना है. लेकिन मौजूदा सरकार का रुख देखकर लगता है कि पारिस्थितिक ही नहीं सामाजिक रूप में भी देश को पीछे धकेलने पर लगे हुए हैं.

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