विष्णु खरे
हम हिन्दू दावा करते हैं कि भारतमाता विश्व-जननी है जबकि हम अपने राष्ट्र की असली प्राचीनता के बारे में न कुछ जानते हैं न उसकी परवाह करते हैं. प्रति वर्ष करोड़ों डॉलरों की मूर्तियाँ, पोथियाँ आदि हमारे यहाँ से चुराई और बेची जाती हैं. हिंदी लेखक और बुद्धिजीवी तो इतिहास और पुरातत्व के मामले में लगभग पूर्णतः सिलपट है. ऐसे में कथित सिन्धु घाटी सभ्यता या आर्यों के उद्गम-प्रदेश आदि के बारे में कुछ कहना-लिखना भैंस को अष्टाध्यायी सिखाने की तरह होगा.
हिंदी में शायद चतुरसेन शास्त्री, रांगेय राघव, रामधारी सिंह दिनकर और भगवतशरण उपाध्याय को छोड़कर किसी को वेद-पूर्व पुरातत्व में कोई दिलचस्पी और गतिशीलता न थी. ’विद्वान’ वह कैसे भी रहे हों, चतुरसेन तो अपने “वयं रक्षामः” में भारतीय सहित कई मध्य-पूर्वी सभ्यताओं से दो-चार होते हैं. उन्होंने “पुरातत्व रस” जैसा-कुछ गढ़ा था जिससे तुच्छ मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ. (‘आर्केओलोजी’ एक नशा, एक दीवानगी ही होती है, छूटती नहीं है ज़ालिम मुँह से लगी हुई. मैं अब तक चार बार कच्छ के रण में धोलावीरा जा चुका हूँ, लोथल और कालीबंगान अलग, लेकिन तिश्नगी गई नहीं है, हातिम की तरह हमेशा दुबारा देखने की हवस है.) रांगेय राघव ने सिन्धु घाटी सभ्यता पर “मुर्दों का टीला” उपन्यास ही लिखा है जिस पर उस समय से अब तक कोई अधिकारी समीक्षक नहीं है. इन सब ने अपने युग और प्रतिभा की सीमाओं में छोटी-बड़ी ग़लतियाँ की हैं लेकिन उन्हें उनका भी अहसास था, क्योंकि विश्व-पुरातत्व हर दिन बदलता है और उसमें भी विशेषज्ञों के बीच ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ का गलाकाटू अकादमिक आलम है.
पाकिस्तान की सीमा और सिंध से दूर अब भारत में लुप्त सरस्वती के किनारे-किनारे इतने अवशेष, खंडहर और टीले मिल रहे हैं, सैकड़ों थार मरुस्थल में और अन्यत्र दबे पड़े हैं, हरियाणा का राखीगढ़ी तो बाकी सबको चुनौती-सी दे रहा है कि वाक़ई उनकी मातृ-सभ्यता को मात्र सिन्धु से जोड़ना तथ्यात्मक भूल है और उसे सिन्धु-सरस्वती सभ्यता (‘सिंसरस’) कहना ही निस्बतन सही है. लेकिन अब जो चल पड़ा सो चल पड़ा. भौगोलिक दृष्टि से वह संसार की अब तक सबसे विस्तीर्ण सभ्यता है. विडंबना यही है कि जितनी विशाल वह है, उसके बारे में हम उतना ही कम जानते हैं. सुमेर-बाबुल में प्राप्त कुछ पकी मिट्टी की मुहरों के अभिलेखों के आधार पर विद्वान कहते हैं कि उसका नाम ‘मेलुह्हा’ या ‘मेलुख्खा’ रहा होगा और उसे ‘म्लेच्छ’ शब्द से जोड़ते हैं, लेकिन इसके कोई लम्बे और पूर्णतः विश्वसनीय प्रमाण और रिकॉर्ड नहीं मिलते. सिंसरस की सैकड़ों ऐसी मुहरें लगातार मिल रही हैं लेकिन उन पर खुदी हुई (चित्र-) लिपि को अब तक कुल मिलाकर समझा-पढ़ा नहीं जा सका है, फ़िनलैंड के मेरे दुर्दान्त सिंसरस महाविद्वान मित्र प्रो. आस्को पार्पोला द्वारा तक नहीं. अमेरिकी प्रो. केनोयर सहित बीसियों अंतर्राष्ट्रीय प्राचीन लिपि-विशेषज्ञ और पुणे की एक युवा दल भी उस पर काम कर रहे हैं. कुछ इतने हताश हो चुके हैं कि कहते हैं कि जब तक सिंसरस का कोई रोसेत्ता जैसा त्रि-भाषीय मिस्री शिलालेख नहीं मिल जाता, उसके तिलिस्म को तोड़ पाना नामुमकिन है. उसके न तो देवी-देवताओं की पर्याप्त मूर्तियाँ मिली हैं, न शासकों, नागरिकों, श्रमजीवियों आदि के भित्ति-चित्र, न बुत. कुछ हिन्दुत्ववादी जाहिल, जिनमें ‘प्रख्यात’ ‘प्रशिक्षित’ रिटायर्ड और कार्यरत पुरातत्ववेत्ता भी शामिल हैं, बिना किसी प्रमाण सिंसरस को ‘आर्यों’ से जोड़ने पर आमादा हैं. इनके लिए नागपुर के प्रसिद्ध पागलखाने में एक सहूलियती दफ़्तर खोल देना चाहिए.
कहावत है कि अहमक़ वहाँ दौड़ पड़ते हैं जहाँ फ़रिश्ते क़दम रखने से भी घबराते हैं. ‘जोधा अकबर’ के बाद आशुतोष गोवारीकर और ऋतिक रोशन को गुमान हो गया कि वह इतिहास के साथ मनमाना बलात्कार कर सकते हैं. सो उन्होंने भारत का वह प्राचीनतम युग और उसका वह नगर चुना जिनके कोई हितचिन्तक नहीं हैं. इस्लाम में हज़रत मुहम्मद के पहले के धर्मों, सभ्यताओं, इतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति, पुरातत्व आदि का कोई महत्व नहीं है. हम देख ही रहे हैं कि दैश, जैश, बोको हराम, तालिबान वगैरह इस्लाम के भीतर और बाहर क्या कर रहे हैं. यह संस्थाएँ तो सारे संसार पर अपने ब्रांड का इस्लाम थोपकर उसका सांस्कृतिक संहार करना चाहती हैं. पाकिस्तान की कोई सांस्कृतिक दिलचस्पी 1947 के पहले के अपने ही इलाक़े में नहीं है. अब यह प्रक्रिया भारत-निर्मित बांग्लादेश में शुरू हो चुकी है. इधर चूँकि ‘मोहनजोदड़ो’ और हड़प्पा भारत में नहीं हैं सो हमें क्या फ़िक्र. गोवारीकर-रोशन जैसे दीवालिया दिमागों को और क्या चाहिए.
अव्वल तो उस नगर का ‘आधुनिक’ नाम सिन्धी (मुएँ)मोएँ-जो-दड़ो यानी ठीक रांगेय राघव का ‘मुर्दों का टीला’ है, असली प्राचीन नाम का कुछ पता नहीं. हड़प्पा के बारे में माना जाता है कि वह वेद-शत्रुओं का हरियूपिया है किन्तु एक हवाले के अलावा उसका कुछ और नहीं मिलता. गोवारीकर-रोशन ने इन दोनों नगरों के बीच दुश्मनी स्थापित कर दी है. मोहनजोदड़ो का ग़ैरक़ानूनी तानाशाह हड़प्पा को वापस हड़पना और मजबूरी हो तो बर्बाद करना चाहता है. वह बाँध बनवाकर सिन्धु नदी के रेत-पानी से सोना छानता-बटोरता है और उसे बरास्ते धोलावीरा विदेशों को स्मगल कर उसके बदले जनता को गुलाम बनाए रखने के लिए लेटैस्ट हथियार खरीदता है. सेक्युलर और धार्मिक दोनों सत्ताओं को कब्जे में करने के लिए वह राजपुरोहित की इकलौती उत्तराधिकारिणी बेटी को अपनी बहू बनाना चाहता है. लेकिन कपड़े रँगने के काम आने वाले नील के डले का छोटा ब्योपारी एक ‘अनाथ’ गँवार ‘नौजवान’, जिसे लगभग सब कुछ आता है और जिसका अज्ञात अतीत रहस्यमय पुश्तैनी ढंग से मोहनजोदड़ो से जुड़ा हुआ है, ऐन मौक़े पर पहुँचकर ऐसे सारे षड्यंत्र विफल कर देता है.
पूरी फ़िल्म ही हर स्तर पर बचकाना, हास्यास्पद और असफल है. लेकिन वेश-भूषा, मुखाकृति और ‘संस्कृति’ के मामलों में आत्महत्या करती दिखाई देती है. नाम विचित्र हैं और भाषा को अपभ्रंश बनाने की ऊटपटांग कोशिश की गई है. कहीं तत्सम शब्द घुसेड़ दिए गए हैं. सभी किरदार आज के भारत के गाँव-कस्बे-महानगर के बाशिंदे लगते-दीखते हैं. पता नहीं किस शालभंजिका-नुमा देवी को पूजा जा रहा है. असली मुहरों पर कुछ ‘वास्तविक’ देवताओं के चित्र उत्कीर्ण हैं, ‘त्रिशिरा’ नग्न ‘पशुपति’ तो विश्वविख्यात हैं, कथित ‘पुरोहित-राज’ और चूड़ियों वाली गर्वीली नर्तकी भी, जो अफ़्रीकी मूल की लगती है, राखीगढ़ी में एक मुहर पर मकर पर खड़ी सरितादेवी भी है, लेकिन गोवारीकर-रोशन के पास उनकी कहानी लिखने की अक्ल और हिम्मत नहीं थी. वह तो यही कह कर छुटकारा पाना चाहते हैं कि हमारी फिल्म का कोई सम्बन्ध सिंसरस से नहीं है. फिर मोहनजोदड़ो नाम ही क्यों रखते हो? उसकी लिपि क्यों दिखाते हो? सुमेर, पुंत, दिल्मुन, कोट-दीजी आदि की ‘नेम-ड्रॉपिंग’ क्यों? अपने बोगस इंटरव्यू में यह डींग क्यों हाँकते हो कि फिल्म प्रो. मार्क केनोयर से सलाह लेकर बनाई गई है? तुम्हें मालूम है कि मेलुक्खा की एक कुरूप, वृद्धा रानी को हाथीपाँव से पीड़ित बताया जाता है? सुमेर की एक मुहर पर मेलुक्खा के एक दुभाषिए को संतान की तरह वहाँ के राजा की गोद में बैठा क्यों दिखाया गया है? तुम्हें तो एक ऐसी फिल्म बनानी थी जिसकी कहानी सैकड़ों देशी-विदेशी फिल्मों में दुहराई जा चुकी है. फिल्म के अंतिम बीस मिनट तो जहालत की इंतिहा हैं.
गोवारीकर-रोशन ने कुछ ओछी राजनीतिक चालाकियों से भी काम लिया है. कई झूठों और जालसाज़ियों से हिन्दुत्ववादी यह साबित करने पर आमादा हैं कि सिंसरस में घोड़े मौजूद थे यानी वह आर्य सभ्यता ही थी. यह फिल्म एक लम्बे दृश्य में आठों-गाँठ कुम्मैत घोड़ों को दिखाती है ताकि वर्तमान शासक-विचारधारा को तुष्ट कर सके. लेकिन पहले आप सिद्ध तो कीजिए कि आर्य तथा सिंसरस के बीच सम्बन्ध-संपर्क था – सारा विश्व उसे मान लेगा. आप तो अभी वैदिक संस्कृत के आधार पर सिंसरस लिपि का एक अक्षर तक नहीं पढ़ पाए हैं.
फिल्म के अंत में मोहनजोदड़ो को सिन्धु के बाँध टूटने पर, जो आज से पाँच हज़ार बरस पहले भाखरा-नंगल साइज़ का है, डूबता दिखाया गया है. सिन्धु पर तो ऊदबिलावों द्वारा बनाया गया बाँध भी नहीं था. मोहनजोदड़ो को ही नहीं समूची सिंसरस को बाढ़ में नहीं, मौसमी-तब्दीली और सूखे से बर्बाद होते कहा जाता है. गोवारीकर-रोशन ने एक और धूर्तता में एक महान अवसर गँवा दिया. जब बाँध टूटने के बाद अंत में जनता पूछती है कि यह नई नदी कौन सी है तो नायक उत्तर देता है : ‘गंगा’. काश कि उसने ‘सरस्वती’ कहा होता.
[विष्णु खरे हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि और आलोचक हैं. वे फिल्मों के चर्चित अध्येता भी हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है. यह आलेख आज के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित.]