By TwoCircles.net Staff Reporter
दिल्ली: देश में हालात अच्छे नहीं होने के कई प्रमाण हैं. नहीं कहा जा सकता कि लेखक, फिल्मकार, साहित्यकार, विचारक, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और कलाकार – सभी के सभी झूठ बोल रहे हैं या पैसे खा रखे हैं. ज़ाहिर है कि कहीं कुछ न कुछ तो गड़बड़ है कि मुखालफ़त में इतनी आवाजें उठ रही हैं.
पाठकों के लिए हम लाए हैं एक आम भारतीय मुस्लिम का सुप्रीम कोर्ट के लिए लिखा गया ख़त. पढ़ें –
26 जनवरी, 2016
सेवा में,
माननीय मुख्य न्यायाधीश एंव अन्य न्यायमूर्ति गण
उच्चतम न्यायालय, भारत संघ
नई दिल्ली
आदरणीय,
आदाब व आभार
मैं भारत के एक जन्मजात नागरिक के रूप में अपने देश के सर्वोच्च न्यायालय एवं न्यायाधीशों को लिखित रूप से सम्बोधित करने का यह अवसर पाते हुए गौरव एवं हर्ष महसूस कर रहा हूं और सबसे पहले अपने पैदा करने वाले मालिक अल्लाह परम परमेश्वर के प्रति समर्पण व शुक्र की भावना अर्पित करता हूं कि उसने मुझे इसकी योग्तया, क्षमता एवं साहस प्रदान किया. इसके बाद मैं देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था एवं संविघान के प्रति धन्यवाद व्यक्त करता हूं जिसने मुझे यह अधिकार एवं आज़ादी दी है कि मैं क़ानून और मर्यादा का पालन करते हुए न्यायिक व्यवस्था की प्रहरी सन्सथा के समक्ष अपने मन की वेदना व्यक्त कर सकूं.
आदरणीय,
मैं इस बहुसांस्कृतिक, विविधतापूर्ण और संघीय व्यवस्था वाले भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक मुस्लिम नागरिक हूं. अर्थात मैं इस्लाम धर्म को मानने और उस पर चलने वाले मुस्लिम समुदाय का सदस्य हूं जो भारत की राजनीतिक एंव सामाजिक व्यवस्था में सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में पहचाना जाता है. संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुरूप हमारे संविधान में भी अल्पसंख्यक समुदायों के सम्बन्ध में विशेष प्रावधान हैं जिनके अन्तर्गत मुझे, एक आम नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों से इतर, एक अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य होने के रूप में भी सुरक्षा, सम्मान एवं विकास की ज़मानत दी गयी है और मेरे समुदाय को भी सामूहिक रूप से यह ज़मानत दी गयी है कि उसके मान सम्मान और आस्था की आज़ादी की हिफ़ाज़त की जाएगी. इन समस्त अधिकारों से सशक्त होने की भावना के साथ मैं न्यायपालिका के समक्ष कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों की चर्चा करने का साहस जुटा रहा हूं जिन पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है.
महोदय,
दुनिया के अन्य देशों एवं क्षेत्रों की तरह भारत भी इतिहास के विभिन्न कालों में अपने निवासियों, संस्कृति एंव भूगोल की दृष्टि से विभिन्न प्रकार के रूप लेता और बदलता हुआ आधुनिक भारत के रूप में विकसित हुआ है. इतिहास का कोई भी काल किसी भी क्षेत्र के लिए इस रूप में आदर्श और चिरस्थायी नहीं हो सकता कि उसे उस क्षेत्र का मूल स्वरूप कहा जा सके और आने वाले समय में उस विशेष युग का रूप प्राप्त करने को उसका लक्ष्य मान लिया जाए. प्रकृति की यह अटल जटिलता भारत के लिए भी एक तथ्य है.
अतः, आज जिस रूप में हम एक भारत राष्ट्र हैं वही आज इसका वास्तविक स्वरूप है. यह स्वरूप 1947 में ब्रिटिश की उपनिवेशी सत्ता से मुक्त होने के बाद एक सर्वमान्य संविधान के आधार पर विकसित हुआ है जिसके अनुसार भारत एक धर्मनिर्पेक्ष लोकतान्त्रिक समाजवादी गणराज्य है. इसका कोई सरकारी धर्म नहीं है और यह किसी समुदाय विशेष के गठन एवं विकास के लिए समर्पित नहीं है. बल्कि, यह यहां विद्यमान हर सांस्कृतिक, भाषाई एंव धार्मिक समुदाय का संयुक्त देश है जहां समाज की हर इकाई एंव समूह को जीने और समृद्ध होने का बराबर से अधिकार प्राप्त है. इसी संविधान के आधार पर देश की सारी व्यवस्था टिकी है और शासन के तमाम स्तम्भ, निकाय और संस्थाएं इसी संविधान पर आधारित हैं.
इस संविधान को मानना और इसके मूल ढांचे को स्वीकार करना ही इस राष्ट्र का नागरिक होने की वैधता का आधार बनता है. कोई व्यक्ति या समुदाय यदि इस व्यवस्था को अस्वीकार करने की घोषणा करता है तो वह स्वयं अपने नागरिक अधिकारों के इस आधार को तोड़ता है और नागरिक होने की पात्रता खो देता है.
इस आधुनिक भारत के गठन की पृष्टभूमि में यहां के दो बड़े धार्मिक समुदायों के बीच सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारणों से परस्पर विरोध का एक महत्वपूर्ण तथ्य निहित है. ये दो बड़े समुदाय यानि हिन्दू व मुसलमान अपने हितों की सुरक्षा के लिए एक दूसरे से आशंकित चले आ रहे हैं. हालांकि परस्पर मतभेदों और आशंकाओं की यह स्थिति केवल इन दो समुदायों के बीच की ही समस्या नहीं है बल्कि इस विविधतापूर्ण देश के सभी वर्ग अपने सामूहिक हितों के लिए दूसरों से आशंकित रहते हैं. लेकिन इन सबके बीच सन्तुलन और न्याय स्थापित करने के लिए हमारा संविधान सबके अधिकारों और सीमाओं को स्पष्ट तरीक़े से निर्धारित करता है और यही वह सूत्र है जो समस्त विरोधाभासी तत्वों को एक संयुक्त राष्ट्र के रूप में गठित करता है.
अतएव, संविधान और संविधान की मूल भावना के अनुसार बनने वाले क़ानून देश के सभी समुदायों के बीच सामंजस्य बनाए रखने और शान्ति व सौहार्द को स्थापित रखने का माध्यम है, और संविधान व क़ानून के अनुसार शासन की निगरानी का दायित्व रखने वाली संस्था – न्यायपालिका – हर देशवासी अथवा वर्ग के लिए अपने हितों की सुरक्षा का अन्तिम सहारा है.
देश की शासन व्यवस्था के इस ग्रहणबोध (perception) के साथ, मैं न्यायपालिका का ध्यान इस तथ्य की ओर दिलाना चाहता हूं कि बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाला एक संगठित वर्ग देश की मौजूदा व्यवस्था को नकारता है और देश को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करता है. इस वर्ग की अगुवाई करने वाला संगठन राष्ट्रीय स्वंयंसेवक संघ के नाम से जाना जाता है जिसके असंख्य लघु संगठन हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में इस विचारधारा के साथ सक्रिय हैं. इन सभी संगठनों को सामूहिक रूप से संघ परिवार की संज्ञा दी गयी है.
यह संघ परिवार स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य के रूप में गठित आधुनिक भारत की स्थापना के समय से ही इस दिशा में काम कर रहा है कि देश को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में परिवर्तित कर दिया जाए. इस ने देश के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार नहीं किया है और अपनी इस स्थिति को यह स्पष्ट रूप से घोषित भी करता है. इस परिवार ने धीरे-धीरे हिन्दू समुदाय की सामूहिक भावना को प्रतिपादित करने वाले वर्ग का रूप ले लिया है.
किसी विचारधारा या आस्था में विश्वास रखना और उसका प्रचार करना तथा उसके पक्ष में जनमत बनाने का प्रयास करना देश के संविधान के अनुसार हर वर्ग और समुदाय का मौलिक अधिकार है, इसलिए संघ परिवार के उपरोक्त प्रयासों पर, यदि वे क़ानून के अऩ्तर्गत हों तो, कोई आपत्ति नहीं की जा सकती. लेकिन मैं जिस बात पर आपत्ति जताने के लिए इऩ मुद्दों को न्यायपालिका के समक्ष उठा रहा हूं, वह यह है कि यह अधिकार जिसे संविधान ने दिए हैं उसे नकार के तथा उसका उल्लंघन करके क्या ये अधिकार उपयोग में लाए जा सकते हैं?
देश का बहुसंख्यक समुदाय या उसके प्रतिनिधित्व का दावा करने वाला कोई वर्ग यदि अपनी आस्था के ढांचे और अपनी आदर्श व्यवस्था का कोई स्पष्ट स्वरूप और उसकी संस्थागत व्याख्या को दर्शन व विचारधारा के रूप में देशवासियों के सामने लाए, उसकी ओर बुलाए और लोग उसे स्वेच्छा से स्वीकार करें, और समस्त देशवासी अपनी पिछली आस्थाओं को त्याग कर इस समुदाय या वर्ग की आस्था को अपना लें, तो यह एक संवैधानिक प्रक्रिया हो सकती है और इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप वह काल्पनिक स्थिति प्राप्त करने की कल्पना की जा सकती है कि समस्त देशवासी आम सहमति से राष्ट्र को नया स्वरूप दें. लेकिन समस्त देशवासियों पर किसी एक वर्ग की संस्कृति और राजनीतिक विचारधारा को थोपने और उस विचारधारा के अनुसार देश के संवैधानिक ढांचे को ज़बरदस्ती परिवर्तित करने का वातावरण बनाने का कोई भी प्रयास पूरी तरह से ग़ैरक़ानूनी, संविधान विरोधी और राष्ट्र के अस्तित्व व चरित्र को नुक़सान पहुंचाने की कार्रवाई है.
लेकिन हैरत और चिन्ता की बात है कि संविधान के आधार पर खड़ी व्यवस्था के ढांचे की मौजूदगी में और संविधान के अनुसार शासन को सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था की मौजूदगी में एक समुदाय या उसके प्रतिनिधित्व का दावा करने वाला वर्ग देश के हिन्दू राष्ट्र होने की घोषणा करता है लेकिन व्यवस्था और शासन के अंग इसका नोटिस नहीं लेते.
जो वर्ग भारत को हिन्दू राष्ट्र समझता और घोषित करता है और व्यवस्था को ज़ोर ज़बरदस्ती बदलने के प्रयासों में लगा हुआ है, उसकी अगुवाई करने वाले संगठन राष्टीय स्वयंसेवक संघ द्वारा गठित राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के नाम से राजनीति में सक्रिय है, और इस समय केन्द्र सरकार की सत्ता संभाले हुए है. यह विडम्बना है कि संविधान के आधार पर रजिस्ट्रीकरण करके संविधान की शर्तों के अनुसार कोई संगठन राजनीति में सक्रिय हो, जनमत प्राप्त करे और संविधान की शपथ लेकर देश की सत्ता को हाथ में ले, लेकिन उसकी आकांक्षाएं और लक्ष्य उसी संविधान को खत्म कर देना हो, संवैधानिक चरित्र को बदल देना हो और देश को एक धर्मनिर्पेक्ष संयुक्त राष्ट्र के बजाए हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित कर देना हो.
इस मौजूदा सरकार की छत्रछाया में इस वर्ग के समस्त संगठन और विशेष रूप से आर.एस.एस व उससे जुड़े विभिन्न गुट व संगठन एंव इस विचारधारा से प्रभावित अंसख्य व्यक्ति देश को न केवल हिन्दू राष्ट्र कह रहे हैं बल्कि एक आक्रामक मुद्रा के साथ अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों व ईसाइयों को डराने व धमकाने वाला माहौल बनाए हुए हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से अपनी और सामूहिक रूप से अपने समुदाय की मानसिक स्थिति व्यक्त करते हुए न्यायपालिका के सामने स्पष्ट रूप से यह घोषणा कर रहा हूं कि हमारे ख़िलाफ़ देश में घ्रृणा का एक माहौल बनाया जा रहा है. हमें डराया और धमकाया जा रहा है और हमारे ऊपर हमारी सामुदायिक पहचान करके निशाना बना कर जानलेवा हमले किए जा रहे हैं. हमारे ख़िलाफ़ गृहयुद्ध छेड़ने तैयारी की जा रही है और इसके लिए युवाओं को हथ्यार चलाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है. हमारे खिलाफ़ घृणात्मक बयानबाज़ी करने वालों में सरकार के मन्त्री, सत्ताधारी दल के नेता और सरकार को समर्थन देने वाले संगठनों के शीर्ष अधिकारी भी शामिल हैं. इसके अलावा, ख़ुफ़िया एजेन्सियां और पुलिस एंव मीडिया का एक वर्ग इस माहौल को बनाने में पूरा सहयोग दे रहे हैं.
इस स्थिति को मैं माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रखते हुए उसका ध्यान उसकी अपनी संस्थागत ज़िम्मेदारियों की ओर दिला रहा हूं. संविधान के अनुसार न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह देशवासियों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कार्यपालिका और प्रशासनिक व्यवस्था के अधिकारियों को आदेश दे सकती है. किसी वर्ग विशेष के ख़िलाफ़ घृणात्मक और भय पैदा करने वाली बयानबाज़ी भी क़ानून के अनुसार एक बड़ा अपराध है, और जब अदालत यह देखे कि इस तरह के संगठित प्रयास खुले आम किए किए जा रहे हैं, और सरकार या प्रशासन की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है तो अदालत को यह अधिकार प्राप्त है कि वह आज खुद इसका नोटिस ले.
देशहित में न्यायालयों द्वरा कई मुद्दों पर स्वंयप्रेरित कार्रवाइयों (Suo moto actions) के परिप्रेक्ष्य में, मैं यह देख कर मायूस होता हूं कि देश की सामाजिक एकजुटता अर्थात राष्ट्रीय एकता को आघात पहुंचाने वाली बड़ी बड़ी कार्रवाइयों और महत्वपूर्ण व्यक्तियों की बयानबाज़ियों पर प्रशासन की ओर से अपेक्षित कार्रवाई न होने के बावजूद माननीय न्यायालय ने स्वंयप्रेरित कार्रवाई के अपने अधिकार को उपयोग और व्यक्त नहीं किया है. लेकिन अब इसकी ज़रूरत बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है और व्यवस्था में देशवासियों का विश्वास बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि अदालत क़ानून और संविधान की प्रहरी बन कर सामने आए.
इसी के साथ मैं यह बिन्दु भी माननीय न्यायालय के समक्ष रखना ज़रूरी समझता हूं कि देश को हिन्दू राष्ट्र कहने, समझने और बनाने के लिए प्रतिबद्ध वर्ग यदि देश के बहुसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करता है, और बहुसंख्यक समाज यदि देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने का पक्षधर है तो इसके लिए नैतिकता, मर्यादा और मानवीय सभ्यता की स्वस्थ परम्पराओं का पालन करते हुए संवैधानिक प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में देश के सभी वर्गों के बीच देश और देशवासियों का भविष्य निर्धारित करने के लिए गम्भीर वार्ताओं का प्रबन्ध किया जाना चाहिए. मौजूदा व्यवस्था को छल और बल के साथ बदल देने के प्रयास पूरे देश के लिए घातक होंगे और कोई भी समुदाय सुख शान्ति के साथ प्रगति एंव विकास के पथ पर आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त नहीं कर सकेगा.
मैं इस पत्र को प्राप्त करने और गम्भीरता के साथ इस पर विचार करने का निवेदन करते हुए एक बार फिर आपके प्रति आभार व्यक्त करता हूं.
धन्यवाद,
अदील अख़तर शमसी
दिल्ली