’27 साल यूपी बेहाल’ के नारे के साथ कांग्रेस कितनी सफल है?

सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र कांग्रेस ने तीन दिनों पहले ’27 साल यूपी बेहाल’ का नारा दिया है. यह नारा उत्तर प्रदेश की सत्ता में कांग्रेस की 27 सालों की अनुपस्थिति को लेकर बनाया गया है.


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ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश में अंतिम कांग्रेसी सरकार 1988 में थी, उस समय एनडी तिवारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उसके बाद से उत्तर प्रदेश की सत्ता कभी समाजवादी पार्टी, कभी भारतीय जनता पार्टी तो कभी बहुजन समाजवादी पार्टी के हाथ में रही है. इन 27 सालों में कांग्रेस को सत्ता की ओर झांकने का पक्का मौक़ा नहीं मिला.



नारे के साथ बस यात्रा की शुरुआत करतीं कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी [Courtesy – indiaaajkalnews.com]

लेकिन सवाल उठता है कि क्या इन 27 सालों में सचमुच उत्तर प्रदेश में बहाली रही और उत्तर प्रदेश की जनता सचमुच इस बेहाली से मुक्ति चाहती है? या कांग्रेस किस हद तक इस बेहाली को दूर कर सकती है? इसे सही तरीके से समझने के लिए हमने बनारस शहर के उन मतदाताओं से बात की, जो वोटर लिस्ट में कम से कम 27 सालों से शामिल हैं और हर पखवाड़े मतदान करते हैं और प्रदेश की राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखते हैं.

बनारस के चौक इलाके में पान की दुकान चलाने वाले 65 वर्षीय सोनेलाल चौरसिया मूलतः बलिया के निवासी हैं. उनके मुताबिक़ बीते 27 सालों में उन्होंने बेहाली कम से कम देखी. वे कहते हैं, ‘मुझे बेहाली तो नहीं दिखती है. बिजली पहले से ज्यादा रहती है. पानी भी है. सड़कें खराब हैं और कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं, जिनके बारे में लगता है कि समय के साथ वह भी ठीक हो जाएंगी.’ वे आगे कहते हैं, ‘हमारे घर बलिया में भी यही हालत है. पहले जब बनारस आया था तो अन्धेरा होने के बाद बलिया की बस नहीं पकड़ता था. अब किसी भी वक़्त जा सकता हूं. कोई चोरी-डकैती का डर नहीं है.’

वहीँ पास में ही महंगू यादव मिलते हैं, 52 साल के महंगू कहते भी कहते हैं कि उन्होंने कई चीज़ें बदलती हुई देखी हैं. उनके अनुसार चीज़ें ऐसी नहीं हैं कि उन्हें बदहाली या बेहाली कहा जाए. महंगू कहते हैं, ‘मेरा जनम भी बनारस हुआ है, मरना भी यहीं है. यहां कोई पीएम आए या इएम. मुझे क्या? मुझे देश की जीडीपी से क्या लेना-देना है भाई? प्रदेश में कितना इन्वेस्टमेंट हो रहा है, मुझे उससे क्या मतलब? मेरा घर रोज़ की कमाई में चलता था और मेरे मरने तक रोज़ की कमाई में ही चलेगा. इतना कह सकता हूं कि बीते सालों में मेरी कमाई में इजाफा हुआ है. पहले बिजली कटिया मारकर पाते थे, अब मीटर लगा लिया है. कमाई बढ़ी है तभी तो? परेशानी तो है ही, लेकिन इसको बेहाली कौन कहेगा? कांग्रेस दस साल सत्ता में थी, प्रदेश में भी ऐसे लोग थे जो कांग्रेस के सहयोगी थे. तब पार्टी को ये ‘बेहाली’ क्यों नहीं दिखी?’

अभिषेक उपाध्याय 48 साल के पुरोहित हैं. कांग्रेस के प्रति उनका रुझान भी है, लेकिन उनके लिए रोजाना के मसले भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. वे कहते हैं, ‘पार्टी को चाहिए कि इतना समझे कि प्रदेश के लोगों को चाहिए क्या? उनको बेहाली से मुक्ति चाहिए या और सुविधाएं चाहिए. मुझसे पूछिए तो मैं कहूंगा कि मुझे और सुविधाएं चाहिएं. पार्टी उसे देने का नारा लेकर आए तो और लोग जुड़ेंगे.’

लेकिन यही बात जब पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक तबके के पास पहुंचती है तो समीकरण उलटे समझ में आने लगते हैं. यह साफ़ पता चलने लगता है कि कांग्रेस की इस ‘बेहाली’ का कमाई के अलग-अलग तबकों में अलग-अलग प्रभाव है. साथ में यह भी अंदाज़ लग जाता है कि कांग्रेस के फोकस में सबकुछ नहीं सिमट पा रहा है.

अलीमुद्दीन अंसारी बुनकर हैं और बनारस के लगभग सभी बुनकर कारीगरों की तरह परेशानियों में अपना समय गुजारते हैं. अलीमुद्दीन के पास मसले हैं तो सवाल भी हैं. वे कहते हैं, ‘हम बुनकर लोग तो केतना दिन से परेसान है? कांग्रेसवाला सब सुनने आया क्या? सांसद भी था, विधायक भी था. बिजली नहीं था. हथकरघा भी घुटना भर सीवर के पानी में डूबा रहता था. रोज़ का कमाई 40 रूपए से ऊपर नहीं था. कौन आया? हम लोग तो बेहाल था, बेहाल रहेगा. लेकिन पार्टी का क्या? उसको तो बस सरकार बनाने का है?’

72 साल एक भैरोजी सोनकर कहते हैं कि उन्होंने सरकारी नौकरी पा ली थी, लेकिन उनके भाइयों और भतीजों की स्थिति इतनी अच्छी नहीं है. उनके घर के लोग शहर के अस्पतालों में सफाईकर्मी की नौकरी करते रहे हैं. लगभग सभी संविदा कर्मचारी हैं और बीसियों सालों से परमानेंट होने की सिर्फ घोषणाएं सुनते आ रहे हैं. भैरोजी की पेंशन इतनी है कि सबका पेट पालने के लिए बेहद कम है.

पत्रकार रवीश कुमार ने कहा था कि गरीबों के लिए जहां रोज़ की कमाई का उनके विकास और बेहाली का सूचकांक है, वही सूचकांक देश के लिए और अमीरों के लिए जीडीपी में बदल जाता है. रवीश कुमार से सहमत हुआ जा सकता है. जिस चीज़ को कांग्रेस बेहाली बताकर बेच रही है,क्या वह सचमुच में बेहाली है, या गरीब तबके के वोटरों को लुभाने की कांग्रेस की साज़िश. या कांग्रेस इस बार फिर से कैलकुलेशन में चूक गयी है? कांग्रेस अपने इस नारे के साथ कितनी दूरी तय कर पाएगी? इन सवालों के बीच कांग्रेस ने अपनी नाव मझधार में उतार दी है, लेकिन इस बात की फ़िक्र किए बगैर कि उनके ‘मांझियों’ का रोल कौन अदा करेगा.

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