सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
यह बहस बड़ी है कि असम और अरुणाचल प्रदेश के बाद का समूचा पूर्वोत्तर भारत ‘भारत’ है भी या नहीं? लेकिन इसे पास कर जाना चाहिए. इसे ऐसे पास किया जाना चाहिए जैसे हम किसी विराट सचाई के सामने खड़े हों. लगभग वैसे ही, जैसे अल्पसंख्यकों से देशभक्ति का सुबूत नहीं मांगा जाना चाहिए. उसे उसकी निरंतरता के साथ ही समाहित करना चाहिए. तब एक Inclusive पैमाना तैयार किया जा सकेगा, जिससे गड़बड़ियां कम से कम दिखेंगी.
असम और मेघालय के बॉर्डर पर एक छोटा-सा गाँव है, री भोय. यहां अधिकतर भोय जनजाति रहती है, जो खासी का ही एक प्रकार है. ये खासी बोलते और खासी गाते हैं. पास में असम है. जहां कमोबेश सारी सुविधाएं और चमक-धमक है, लेकिन री भोय निपट गाँव है. उससे अधिक कुछ भी नहीं. न उससे कम.
जगहों से कई सारी चीज़ें गायब हो रही हैं. उत्तर-मध्य भारत की पूरी सम्पदा चौपट हो रही है और उसे सहेजने के सरकारी तरीके इतने निठल्ले और बचकाने हैं कि वह और लुप्त हो रही है. एक है संगीत नाटक अकादमी, जिसके सालाना फंड का इस्तेमाल एनजीओ करते हैं, कुछ नाटककार करते हैं और कुछ फ़िल्मकार, कलाकार चौपट ही घूमते हैं.
री भोय के बाशिंदों के पास गाने हैं, ढेर सारे गाने. फसल की बुआई से लेकर फसल की कटाई तक के. लेकिन पास में ही असम है, जो मेघालय के इस गांव को इतनी तेज़ी से ग्रस्त कर रहा है कि ये सारे गीत विलुप्त हो रहे हैं.
यहां नृत्य भी है. यह भी नहीं है. यह भी जब होता है तो इसे करने वाले लोग ही अब ऐसे देखते हैं जैसे शहरों में रस्सी पर लड़की की कलाबाजियां देखते हैं.
नहीं याद कि शादी से अलग कभी कोई गीत किसी समय के लिए इस समाज में घटित हुआ हो. इसका घटित होना बेहद अचंभित कर देने वाला है. यह नहीं होता है. यह वैसे ही नहीं होता है, जैसे भोई में होता है. यहां के गीत खो रहे हैं. ऐसे नहीं खो रहे हैं, जैसे कोई उन्हें भूल जाए. वे ऐसे खो रहे हैं कि कोई नया बच्चा शहर में कमाने जाए और खो जाए. भोई के गीत ऐसे खो रहे हैं.
पहले कहूंगा कि तरुण भारतीय कवि हैं. फिर कहूंगा कि वे फिल्मकार भी हैं. ऐसे कहना इसलिए कहना है कि भोय के खो रहे गीतों को बरास्ते तरुण भारतीय देखना, कोई पेशेवराना काम नहीं लगता है. वह खबरनवीसी की किंचित गैर-ज़रूरी चिंता के साथ नहीं सामने आता. वह एक काव्य की तरह सामने आता है. फिर यह बात आखिर में कि तरुण ने हाल ही में अपना राष्ट्रीय पुरस्कार भी लौटा दिया है.
यहां बात के केंद्र में तरुण भारतीय की तीन फ़िल्में हैं. यह फ़िल्में भूगोल और उससे जुडी बहस से आगे चली जाती हैं. यहां पूर्वोत्तर को भारत का हिस्सा स्वीकार करने की बहस नहीं है. अलग-थलग छूट जाने का कोई विलाप नहीं है.
BRIEF LIFE OF INSECTS
उमपोविन गांव में फिल्म शुरू होते ही किसान कहता है, “यदि यहां संगीत नहीं होता तो लगता है कि लोग नहीं हैं, जानवर नहीं हैं.”
फिर उस विराट सचाई को लिखना होता है कि प्रकृति का सौन्दर्य दृश्य ही नहीं है, वह श्रव्य भी है. एक दूसरा किसान कहता है, “जब कोई आवाज़ नहीं होती है, तो ऐसा लगता है कि पहाड़, जंगल और नदियां सब सो गए हैं.” हां, ख़ामोशी भी आवाज़ ही है. यह उस तथ्य की पड़ताल है कि शांत होना दरअसल आवाज़ की अनुपस्थिति के प्रति सजग होना है. उसका इंतज़ार करना है.
पहला किसान कहता है, “हम रातों को जागते हैं. संगीत को ज़िंदा रखने के लिए जागते हैं.” उसके पास गीत कुछ दिन के ही मेहमान हैं. पास बैठे किसी शख्स ने उसे ले लिया है. अब वह उसे आगे लेकर चलेगा जब तक कोई दूसरा उसका बोझ उठाने न आ जाए. इस गांव में चारों दिशाओं में संगीत है. यहां बाज़ार जाने से लेकर गेहूं की बालियां पीटने तक के गीत हैं. वे फसल कटते समय गाते हैं, उसे पीटते समय गाते हैं.
किसान कहता है कि फसल कटने के बाद खुशियां हैं, गाने हैं और संगीत है. वे यह नहीं कहते कि फसल कटने के बाद भोजन है, ब्याह है, सम्भोग है, गरीबी का अंत है और उधार से मुक्ति है.
फिल्म में दृश्य है कि जब कटी बालियों से गेहूं निकालने के लिए लोग बालियों को पीटते हैं तो एक लय में पीटते हैं. यह लय स्वर-संगत के बिना अधूरी है. किसान पूछता है कि हम गाते क्यों नहीं हैं? फिर वह खुद गाना शुरू कर देता है. फिर और कोई नहीं गाता है. दूसरा किसान कहता है, “हम इसलिए गाते हैं ताकि अपनी परेशानियों से दूर रहें.”
ESCAPING MUSEUMS – LA(K)HEMPONG STORIES
इस फिल्म में एक गीत के बोल हैं, “अरे फूल! तुम्हारी महक मुझे रोज़ जंगलों में खींच लाती है. मैं क्या करूंगा तुम्हारे बिना? तुम्हें तोड़के जेब में रख लूं या रख लूं अपनी पगड़ी में?”
यहां चीज़ें म्यूज़ियम में नहीं जाएंगी. वे पैसे लगाकर देखने के लिए नहीं बनी हैं. वे देश के उस नागरिक के हिस्से की शायद ही हैं, जो उसे देखकर बेरहमी से भूल जाएगा. वे हमारी प्रचलित और आधुनिक स्थापनाओं से दूर भाग रही हैं.
नांगतुंग में जब लाकेम्पोंग डांस शुरू होता है तो आवाज़ गूंजती है, ‘क्यों हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक नृत्य खोते जा रहे हैं?’ क्योंकि हमारे पास कागज़ नहीं है, हमारे पास क़ानून नहीं है.
नांगतुंग का सांस्कृतिक मुखिया कहता है कि वह जो भी बोलेगा, कैमरे में आने दो. ‘शिलॉंग में बैठी सरकार ने असम का विभाजन कर मेघालय की नींव रखी. बंटवारा नांगतुंग से हुआ.’ फिर सबकुछ वहीँ रह गया. लोग, पहाड़, जंगल और नदी.
यहां खेला जाने वाला लाकेम्पोंग डांस कुंवारे आदमी और औरतों के लिए है. एक बड़े लम्बे खम्भे के ठीक नीचे लोग बैठते हैं, संगीत रचते हैं. संगीत में दमदार को हरकारा देते हैं कि वह सभी को मैदान में डांस करने के लिए लेकर आए. लोग धीरे-धीरे तैयार होते हैं. उन्हें पता है कि यह सब बस इसलिए हो रहा है कि वह दर्ज हो सके, मरने के पहले उसका वैभव सामने आ सके. लाकेम्पोंग कमर को थामने का डांस है. ‘केम’ यानी थामना. ‘खेम’ यानी पकड़ना. वे साफ़ कहते हैं कि यह प्रेम और नृत्य का कोई विषय नहीं है, यह सिर्फ नृत्य है.
‘यह सिर्फ नृत्य है’…इसे पहली बार सुना था. किसी भी संगीत के लिए पहली बार सुना, किसी भी कला के लिए भी.
अचानक हारमोनियम और तबला भी शामिल हो जाते हैं. हमने जहां हारमोनियम और तबले को पुराने वाद्ययंत्रों में शामिल कर रखा है, नांगतुंग में यह नया हस्तक्षेप है. यह संजोने के अभिनव प्रयास में तब्दीली का अध्याय है.
यह एक अलग किस्म का म्यूज़िकल सागा है. एक और है, Love Song of Ringjeng and Sotjak. यहां राब्ता बिठाने में मुश्किल हो सकती है. उत्तरी गारो की घाटियों में रिन्गजेंग और सोजैक रहते हैं. उनका संगीत उनके प्रेम का संगीत है. यहां जंगलों को संबोधित गीत हैं, यहां दूसरी जनजातियों को संबोधित गीत भी हैं. यहां यह भी है कि अपने कबीले का नाम नहीं लोगे तो मुझे जंगल से लकड़ियां काटने को नहीं मिलेंगी. हमने अपने भीतर संगीत की बेहद भदेस और पिटी हुई परिभाषा विकसित कर ली है. यह परिभाषा हमें संगीत के पूरे लोक से दूर रखती है, जो बेहद विराट है. तरुण भारतीय की यह तीन फ़िल्में कमोबेश इसके प्रमाण की तरह हैं. देशभर में फैले आदिवासियों से विस्थापन, मरण और विलोप के बीच का तंत्र उनकी सबसे अच्छी चीज़ों को हमसे दूर रखता है. हम हैं, कि दूर खुश बने बैठे रहते हैं.