रमज़ान में मुश्किलों से जूझ रहे हैं बनारस के मुस्लिम

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: रमज़ान आने के साथ-साथ देश के प्रमुख धार्मिक शहर बनारस में समस्याओं का भी आगमन हो जाता है. यहां के मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा रोज़ाना की दिक्कतों से दो-चार हो रहा है. यहां बिजली की समस्या है, पानी की, साफ़ खाने की और पैसों की समस्या तो है ही.


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शहर का रेवड़ी तालाब मोहल्ला मुस्लिमबहुल इलाका है. यहां दिन के चौबीस घंटे जाम लगा रहता है और बाकी समस्याएं तो खैर हैं ही. यहां रहने वाले मुमताज अहमद बताते हैं, ‘आपको साफ़ बताऊं. मैं यहां पंक्चर बनाने की दुकान चलाता हूं. रोजी ऐसी नहीं है कि रोजे को बाकायदे चलाया जा सके. फिर भी रहते हैं.’


Ramadan : Temporary shop in Varanasi for selling clothes

बनारस के रेवड़ी तालाब मोहल्ले में लगी कपड़ों की अस्थायी दुकान. बनारस के अधिकतर मुस्लिम रमजान के दिनों में ऐसे अस्थायी पेशों से काम चलाते हैं.

अपनी समस्याओं के बारे में बताते हुए मुमताज कहते हैं, ‘देखो साहब! ये मेरी हवा भरने की मशीन है. जब बिजली रहती है, तभी इसमें हवा भर पाती है. जब हवा भरी रहती है, तभी चार पैसे की कमाई हो पाती है. कमाई नहीं, उस दिन सहरी और इफ़्तार वास्ते कोई जुगाड़ करना पड़ता है. तभी अगले दिन का रोजा रह पाऊंगा.’

रेवड़ी तालाब से सटे मोहल्ले रामापुरा में भी मुस्लिम आबादी है. यहां के बाशिंदे रहबर बताते हैं, ‘देखो भाई! हम लोग लखनऊ का नवाब तो है नहीं. इनवर्टर तक नहीं है हमारे घर में. दोपहर से लेकर इफ्तारी तक रोज बिजली गायब रहती है. पंखा चलता नहीं है, गला सूखता रहता है.’

अपनी परेशानियों की हद बताते हुए रहबर कहते हैं, ‘शुक्र है कि चार लोगों का पेट रोज़ भर लेता हूं. लेकिन जब गला सूखता है तो प्रशासन को चार बात सुनाने का मन करता है. गालियां देने का मन करता है. लेकिन आप जानते ही हो कि भूखा-प्यासा रहना बस रोजा नहीं है न, अपना अहम भी साफ़ रखना पड़ता है. बस उसी चक्कर में रोज़ कटता रहता है.’

इस शहर में रोजेदारों की समस्या बस इस शहर की नहीं है. बनारस के आसपास के गांवों और दूरदराज के क्षेत्रों में बिजली की समस्या और भी भयानक है. उसके अलावा शहर में आमदनी के इतने कम साधन हैं कि उनसे किसी किस्म का रास्ता निकलता नहीं दिखाई देता है.

अशरफ़ अली टैक्सी चलाते हैं. इस रमजान उन्होंने रोजा नहीं रखा है. उनकी टैक्सी में हमने सफ़र किया और रोजे के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, ‘अरे साहब, चौबीस घंटे कैब(टैक्सी) दौड़ाओ तो जेब में 500-600 रूपए बचते हैं. गाड़ी भी अपनी नहीं है, भाड़े की है. मालिक को भी कुछ देना पड़ता है. बनारस में चारपहिया चलाना और भी एक मसला है. कुछ खरोंच लगी तो अपनी जेब से भरो. अब आप बताओ रोज का सहरी और इफ्तार का खर्च कैसे निकालें.’

खर्च के बारे में और बताते हुए कहते हैं, ‘अपना मानना साफ़ है. त्यौहार मनाना है तो पूरे मन से मनाओ. मनाओ भी और दिन भर आमदनी के लिए कोसते भी रहो तो काहे का त्यौहार. इतना कर देता हूं कि पत्नी बच्चों को ईद पर कपड़े दिला देता हूं और उस दिन कुछ खाने की व्यवस्था कर देता हूं. नहीं तो आप ही बताओ कि इतने कम पैसे में क्या किया जा सकता है?’

बनारस का इलाका है बजरडीहा. यहां अधिकतर बुनकर समुदाय के लोग रहते हैं. चूंकि अभी गर्मी का मौसम है, इसलिए गनीमत है. वरना बारिश के दिनों में सीवर और बारिश का पानी इतना भर जाता है कि वह सडकों और गलियों के साथ-साथ हथकरघों तक में घुस जाता है.

यहां रहने वाले अकबरूद्दीन कहते हैं, ‘गनीमत है कि अभी तक बारिश नहीं हुई है. सब मनाते हैं कि बारिश हो जाए तो रोजे में आराम मिलेगा. लेकिन यहां के लोग जी-भर के बारिश की दुआ भी नहीं करते हैं. लोग कह रहे हैं कि 20 जून के बाद मानसून आएगा.’

अकबरूद्दीन ठहाके मार के हँसते हैं और कहते हैं, ‘लेकिन यहां के लोग चाह रहे हैं कि भले ही गला सुखाकर रोजे काट लिए जाएं लेकिन पानी ईद के बाद ही बरसे. कौन चाहेगा कि घुटने भर बजबजाते पानी में कोई इफ्तारी का सामान लेने जाए या कोई और काम करे.’

यहां पीने के पानी की भी समस्याएं हैं. कई मोहल्लों में अभी भी टैंकरों से पानी पहुंचाया जा रहा है. मोहल्लों में रहने वालों की क्षमता और चल रहे रमजान को ध्यान दिए बगैर पानी पहुंचाया जा रहा है, जिसकी मात्रा ज़रुरत से कम है.

समा सुल्तान कहती हैं, ‘अब रोज थोड़ा ही पानी आता है. घर में रोजा रहने वाले भी हैं और नहीं रहने वाले भी. सबकी जरूरत है. एक बार में जितना भरा उतना ही दिन भर चलाना होगा. गर्मी इतनी है. आदमी खाना तो कम खा लेगा लेकिन पानी तो पीने को चाहिए ही चाहिए.’

वे फिर से नवाबों को लपेटे में लेते हुए कहती हैं, ‘इधर नवाब लोग नहीं हैं. घर में बोरिंग नहीं है न तो बोरिंग का बिजली खर्चा उठाने को पैसा. बटन दबाते पानी नहीं आता. इधर रोजा रहने या न रहने का मसला नहीं है क्योंकि यहां रोजा रहो या न रहो, दोनों हालत में चारे-पानी के लिए लड़ना पड़ता है.’

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