जावेद अनीस
पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा शहरी विकास के लिए 3 नए मिशन ‘अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत)’, ‘सभी के लिए आवास मिशन’ और बहुचर्चित ‘स्मार्ट सिटी मिशन’ की शुरुआत करते हुए इन्हें शहरी भारत का कायाकल्प करने वाली परियोजनाओं तौर पर पेश किया गया था. इनके तहत 500 नए शहर विकसित करने, 100 स्मार्ट शहर और 2022 तक शहरी क्षेत्रों में सभी आवास उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है.
इन परियोजनाओं की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि शहरीकरण को एक अवसर और शहरी केंद्रों को विकास के इंजन के तौर पर देखना चाहिए’. बहुचर्चित स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए एक लाख करोड़ रूपए के बजट का आवंटन और एफडीआई की शर्तों में ढील दी जा चुकी है. लेकिन इनको लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं कि आखिर ‘स्मार्ट सिटी’ किसके लिए हैं, यहां कौन रहेगा और इससे सबसे ज्यादा किसे फायदा होने जा रहा है?
हमारे शहर में अव्यवस्था और अभावों के शिकार एक बड़ी आबादी झुग्गी बस्तियों में बहुत ही अमानवीय स्थिति रहती है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि इन बुनियादी समस्याओं को दूर किये बिना शहरों को स्मार्ट कैसे बनाया जा सकता है? इसको लेकर विरोध भी देखने को मिल रहे हैं. मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में तो नागरिक संगठनों, आम जनता, विपक्षी पार्टियों के साथ खुद भाजपा के कई नेता इसके विरोध में सामने खड़े दिखाई दिए. दरअसल भोपाल शहर के तुलसी नगर और शिवाजी नगर क्षेत्र को स्मार्ट सिटी के चुना गया था. ये इलाके पॉश और हरे-भरे हैं. परियोजना की वजह से करीब चालीस हजार पेड़ों के काटे जाने का खतरा मंडरा रहा था. इसलिए तुलसी नगर और शिवाजी नगर क्षेत्र में स्मार्ट सिटी बनाये जाने को लेकर भोपाल के जागरूक नागरिकों द्वारा जोरदार विरोध किया जा रहा था. उनकी मांग थी कि स्मार्ट सिटी का स्थान बदला जाए. जनदबाव के चलते कांग्रेस और भाजपा के कई स्थानीय नेता भी इस विरोध में शामिल हो गए, अंत में मध्य प्रदेश सरकार को मजबूर होकर इस परियोजना को शिवाजी नगर और तुलसी नगर से स्थानांतरित करके नॉर्थ तात्या टोपे नगर ले जाने का फैसला लेने को मजबूर होना पड़ा.
भारत में झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की आबादी लगातार बढ़ रही है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में साढ़े छह करोड़ से ज्यादा लोग स्लम यानी शहरी झुग्गी बस्तियों में रहते हैं. इसमें से 32 प्रतिशत आबादी 18 साल से कम है. करीब 3.6 करोड़ बच्चे 6 साल से कम उम्र के है, जिसमें से लगभग 80 लाख बच्चे झुग्गियों में रहते हैं. हाल ही में जारी यूएन हैबिटैट द्वारा जारी की गयी ‘वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट-2016’ के अनुसार 2050 तक भारत के शहरों में और 30 करोड़ तक की आबादी का अनुमान लगाया गया है. वर्तमान में भी बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्रों से लोग शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं. भारत सरकार इसका कारण शहरीकरण के प्रति बढ़ता आकर्षण को मानती है जबकि यह सर्वविदित है कि गांवों से शहर की तरफ पलायन का प्रमुख कारण ग्रामीण भारत में रोजगार के अवसरों में कमी होना है. इधर शहरों में लगातार बढ़ रही आबादी के अनुपात में तैयारी देखने को नहीं मिल रही है. हमारे शहर बिना किसी नियोजन के तेजी से फैलते जा रहे हैं क्योंकि उन्हें बिल्डरों के हवाले कर दिया गया है. आज शहरों में जगह की कमी एक बड़ी समस्या है. यहां ऐसी बस्तियां बड़ी संख्या में हैं, जहां जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं मौजूद नहीं हैं. तमाम चमक-दमक के बावजूद अभी भी शहरी में करीब 12.6 फीसदी लोग खुले में शौच जाते हैं, झुग्गी बस्तियों में तो यह दर 18.9 फीसदी है. शहरी भारत में अभी भी सीवेज के गंदे पानी का केवल 30 प्रतिशत हिस्से का ही ट्रीटमेंट किया जाता है, बाकी 70 फीसदी गंदा पानी नदियों, समुद्र,झीलों आदि में बहा दिया जाता है.
शहरी बस्तियों में रहने वाले बच्चों के सन्दर्भ में बात करें तो पीडब्ल्यूसी इंडिया और सेव दि चिल्ड्रन द्वारा 2015 में जारी रिर्पोट ‘फॉरगॉटेन वॉयसेसः दि वर्ल्ड ऑफ अर्बन चिल्ड्रन इंडिया’’ के अनुसार शहरी बस्तियों में रहने वाले बच्चे देश के सबसे वंचित लोगों में शामिल हैं. कई मामलों में तो शहरी बस्तियों में रह रहे बच्चों की स्थिति ग्रामीण इलाकों के बच्चों से भी अधिक खराब है. रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रों में जिन स्कूलों में ज्यादातर गरीब और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे शिक्षा के लिए जाते हैं, उन स्कूलों की संख्या बच्चों के अनुपात में कम है. इस कारण 11.05 प्रतिशत स्कूल दो पालियों में लगते हैं, जहां शहरी क्षेत्रों में एक स्कूल में बच्चों की औसत संख्या 229 है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 118 है. शहरी क्षेत्रों के इन स्कूलों में बच्चों के स्कूल छोड़ देने का दर भी अधिक हैं. इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के 32.7 प्रतिशत शहरी बच्चे कम वजन के हैं. बढ़ते शहर बाल सुरक्षा के बढ़ते मुद्दों को भी सामने ला रहे हैं, वर्ष 2010-11 के बीच बच्चों के प्रति अपराध की दर में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी जबकि 2012-13 में 52.5 प्रतिशत तक बढ़ी है. चाइल्ड राइटस एंड यू (क्राई) के अनुसार 2001 से 2011 के बीच देश के शहरी इलाकों में बाल श्रम में 53 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है. उपरोक्त सन्दर्भों में बात करें तो शहरी भारत में बड़ी संख्या में बच्चे बदहाल वातावरण में रहने को मजबूर हैं और उनके लिए जीवन संघर्ष और चुनौतियों से भरा है.
सरकारों द्वारा शहरों के नियोजन के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में प्रावधान किये जाते रहे हैं. केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर आवास नीतियां भी बनायी गई हैं. पिछले दशकों में ‘जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनिकरण मिशन’ और ‘राजीव गांधी आवास योजना’ में शहरी नियोजन, विकास से लेकर शहरी गरीबों की स्थिति सुधारने, मूलभूत सुविधाएं देने के लम्बे चौड़े दावे किये गये थे लेकिन इन सबके बावजूद आज भी न तो शहरों का व्यवस्थित नियोजन हो सका है और ना ही झुग्गी बस्तियों में जीवन जीने के लायक न्यूनतम नागरिक सुविधाएं उपलब्ध हो सकी हैं. आवास का मसला अभी भी बना हुआ है. जेएनएनयूआरएम के तहत शहरी गरीबों को जो मकान बना कर दिये गये थे, वे टूटने-चटकने लगे हैं.
इन सब नीतियों और योजनाओं में बच्चों की भागीदारी और सुरक्षा के सवाल नदारद रहे हैं. वर्ष 2012 में एक सामाजिक संगठन द्वारा भोपाल में किए गये एक अध्ययन में पाया गया कि जेएनएनयूआरएम के तहत बनाये गये मकान बच्चों के सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक है. इन आवासीय इकाईयों में छत पर आने-जाने के लिए सीढ़ियां नही बनायी गई है. साथ ही साथ इन छतों पर बाउंड्री भी नही बनाए गए हैं, जिसके कारण कई बच्चे दुर्घटना के शिकार हो चुके थे.
स्मार्ट सिटी परियोजना में भी बच्चों से संबंधित मुद्दों और उनके हितों को लेकर बातें सिरे से गायब हैं. स्मार्ट सिटी बनाने की प्रक्रिया में बच्चों की भागीदारी के नाम पर क्विज, सद्भावना मैराथन दौड़ और निबंध व पेंटिंग प्रतियोगिता जैसे कार्यक्रम का आयोजित कर खानापूर्ति भी की गयी है लेकिन इसमें भी झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की भागीदारी नहीं के बराबर है.
सबसे बड़ी चुनौती बिना झुग्गी बस्तियों में रहने वाले शहरी गरीबों और बच्चों की है. बिना उनके समस्याओं को दूर किये स्मार्ट सिटी नहीं बन सकती है. लेकिन फिलहाल सारा जोर तो बढ़ते मध्यवर्ग, निवेशकों की अभिलाषाओं को पूरा करने पर ही लगा है. ज़रुरत इस बात की है कि सरकार, कारपोरेट और मध्य वर्ग को मिल कर शहरी गरीबों और बच्चों की समस्याओं, उनके मुद्दों को दूर करने के लिए आगे आना चाहिए तभी वास्तविक रुप से ऐसा शहर बन सकेगा जो स्मार्ट भी हो और जहां बच्चों के हित भी सुरक्षित रह सकें.
[जावेद पत्रकार हैं और भोपाल में रहते हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]