‘पाश’ की पुण्यतिथि : दो कविताएं

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

जालंधर में जन्मे अवतार सिंह संधू ‘पाश’ भारतीय साहित्य में एक ऐसा नाम रखते हैं, जहां से कविता और क्रान्ति – दोनों की – मजबूती साबित होती है. यह एक तथ्य ही है कि पाश अपने विचारों में वाम से प्रभावित थे लेकिन पाश की कविता की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह भारत के हरेक तबके और हरेक वर्ग के साथ खड़ी है.


Support TwoCircles



अवतार सिंह संधू ‘पाश’

23 मार्च की तारीख को सिर्फ भगत सिंह ही नहीं, अवतार सिंह ‘पाश’ भी शहीद हुए थे. हाँ, शहीद…जब खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा उन्हें 1988 की तारीख को मार दिया गया. पांच कविता संग्रहों के साथ पाश ने अपनी मृत्यु के बाद भी एक गुमनामी की ज़िंदगी जी. अब भी क्रांति के अलावा पाश की कोई याद नहीं है. पाश जनकवि हैं. इसे मानने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए. उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर पढ़िए पाश की दो कविताएं.

मेहनत की लूट

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
गद्दारी, लोभ की मुट्ठी
सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होती

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे खतरनाक वो आँखें होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है..
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन कि भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके ज़िस्म के पूरब में चुभ जाए

अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है

गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
क़ीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है

गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।

[पाश की तस्वीर biharkhojkhabar.com से साभार]

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE