अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
नोटबंदी के बहाने बिहार की ज़मीन पर एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम अंगड़ाई लेता नज़र आ रहा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुलकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थन में खड़े हो गए हैं. कभी मोदी के कटू आलोचक रहे नीतिश कुमार हर दूसरे दिन अपने संबोधन में नोटबंदी की शान में क़सीदे पढ़ते नज़र आ रहे हैं. यहां तक कि इस नोटबंदी की वजह से भीषण समस्या झेल रहे देश भर के मजदूरों और किसानों से भी उनकी सहानुभूति नज़र नहीं आ रही है.
नीतीश कुमार अपने एक संबोधन में तो मोदी के समर्थन में यहां तक कह डाला कि –‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शेर की सवारी कर रहे हैं, जिससे उनका गठबंधन बिखर सकता है, लेकिन उनके क़दम के पीछे भावना सही है. हमें इसका सम्माीन करना चाहिए.’
इससे पहले भी अपने कई बयान में नीतीश कुमार नोट बंदी के इस फैसले पर पीएम मोदी की तारीफ़ कर चुके हैं. 8 नवंबर को पीएम मोदी के एलान के तुरंत बाद भी नीतीश ने इस फ़ैसले का खुलकर समर्थन किया था. उन्होंने कहा था कि –‘कालेधन को लेकर पीएम मोदी का फैसला क़ाबिले तारीफ़ है. लोगों को केंद्र सरकार द्वारा उठाये गये इस क़दम से थोड़ी समस्या तो ज़रूर होगी, लेकिन यह हमारी भविष्य की आर्थिक मज़बूती के लिये लाभकारी सिद्ध होगा.’
नीतीश कुमार के रूख़ में ये बदलाव बेहद ही हैरानी भरा है. साथ ही कई तरह के संभावनाओं को भी जन्म देता है. दरअसल, ये वही नीतीश कुमार हैं जो अब तक ‘आरएसएस मुक्त भारत’ की बात कर रहे थे, लेकिन आरएसएस के प्रचारक रहे दीनदयाल उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष सेलीब्रेट करने में नीतीश कुमार को अब कोई ख़ास समस्या नहीं है.
बताते चलें कि सरकार की ओर से दीनदयाल उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष मनाए जाने को लेकर भारत सरकार की ओर से बनाए गए दो कमेटियों में नीतीश कुमार को पीएम मोदी ने जगह दिया है. नीतीश कुमार के साथ-साथ इस कमिटी में जदयू के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव को भी शामिल किया गया है. हालांकि शरद यादव पीएम मोदी के नोट बंदी वाले फैसले को अनियोजित व अदूरदर्शी क़रार देते हुए कहा है –‘आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी की वजह से जैसे कांग्रेस का पतन हुआ था, उसी तरह नोटबंदी की वजह से बीजेपी सत्ता के बाहर हो जाएगी.’
दूसरी तरफ़ नीतीश कुमार के बड़े भाई समान व सरकार में उनके साथी लालू प्रसाद यादव भी एकदम उल्टे सूर में बोलते नज़र आ रहे हैं. लालू ने पीएम मोदी के इस ऐलान के चलते आम लोगों को हो रही तकलीफ़ों का कच्चा-चिट्टा खोल दिया है. लालू अपने कई बयान में मोदी को अपने निशाने पर ले चुके हैं. लालू के मुताबिक़ -‘यह नोट बंदी काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक नहीं यह फर्जिकल स्ट्राइक है.’
इससे पहले लालू यादव अपने ट्विटर पर लिख चुके हैं –‘नोटबंदी के नाम पर नौटंकी बंद करो. किसान मर रहा है, रबी की बुआई कैसे करेगा? बीज व खाद किससे खरीदेगा? आम आदमी के क़तारों में खड़े रहने के नज़ारे लेना बंद करो. काले धन वाले तो इर्द-गिर्द हैं. उन मित्रों पर कार्रवाई तो दूर, नाम भी नहीं ले सकते. अपने पूंजीपति मित्रों को बख्श दिया है. इलाज़ करना था सरदर्द का. लेकिन गरीबों के पेट की सारी आंतें ही निकाल दी. इसलिए कहते हैं नीम हकीम ख़तरे जान.’
वहीं एक दूसरे ट्वीट में लिखा है कि 125 करोड़ देशवासियों का स्वघोषित ठेकेदार व सेवक बनना अलग है और उनके दुःख-दर्द को समझना अलग. सफ़ेद धन वालों को सज़ा किस नाम की दे रहे हो?
यहां तक कि लालू की बेटी मीसा (राज्यसभा सांसद) और बेटे यानी राज्य के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी नोटबंदी की आलोचना की है. तेजस्वी ने अपने एक ट्वीट में लिखाकि –‘क्या केंद्र सरकार का कोई मंत्री बतायेगा कि ये “Queue-up India” प्रोजेक्ट कब तक ख़त्म होगा. या ये भी सरकार की अन्य योजनाओं की तरह खुद ही ठंडा पड़ेगा.’
ऐसे में सच पूछे तो लालू और नीतीश के बीच दो अलग-अलग दिशाओं में उभरते ये मतभेद एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम के सुगबुगाहट की कहानी कह रहे हैं. ये सुगबुगाहट नीतीश कुमार के मोदी से गलबहियां करने की हैं.
हालांकि इसके अपने राजनीतिक समीकरण हैं. अगर नीतीश कुमार अपने नए साथी लालू यादव को छोड़कर अपने पुराने सहयोगी बीजेपी के पाले में जाते हैं तो कुछ सहयोगियों का साथ लेकर अपनी सरकार फिर से खड़ी कर सकते हैं. ऐसे में लालू यादव और उनके बेटों के बढ़ते हस्तक्षेप से निजात पाने का एक रास्ता भी निकल सकता है. इस तरह के क़यास बिहार के राजनीतिक हलक़ों में तेज़ हो चले हैं.
राजनीत का रूख़ हर नए घटनाक्रम के साथ बदलता रहा है. कहते हैं कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं होता है. नीतीश कुमार नए घटनाक्रमों के बाद नई संभावनाएं तलाशते मालूम पड़ते हैं. क्योंकि पीएम मोदी के साथ क़दमताल करने की सूरत में उन्हें केन्द्र से पूरा सहयोग मिलने की उम्मीद है. ये सहयोग जहां उनके ख़ास वोटरों को उनकी मनचाही योजनाओं का लाभ दे सकते हैं तो वहीं उन्हें लालू यादव के परिवार और राजद के दूसरे नेताओं की ओर से लगातार जारी खींचातान व उन पर कसी जाने वाली फ़ब्तियों से भी निजात दिला देगा.
मगर इन सबके बीच बिहार की जनता की पसंद का क्या होगा, ये भी एक बड़ा सवाल है. बिहार की जनता के मताधिकार के सम्मान का क्या होगा, इसके बारे में भी सोचना होगा. अगर ऐसा होता है तो क्या ये उन करोड़ों बिहार के लोगों के साथ धोखा नहीं होगा, जिन्होंने नीतीश कुमार को सेकूलर फ्रंट के साथ खड़े होने के वास्ते वोट दिया था.