नासिरूद्दीन
• ऐसा हर साल होता है
• ये सब तो सामान्य बात है
• इसमें नया क्या है
• कुछ हुआ थोड़े ही, बस हल्का -फुल्का
• अरे थोड़ा बहुत हुआ समझिए शांति से ही गुजर गया
• अब तो सब शांत है
• प्रशासन की लापरवाही से हुआ था
पिछले हफ्ते के तीन दिनों में कई राज्यों में मुहर्रम और दुर्गा पूजा के मौके पर साम्प्रदायिक तनाव की अनेक घटनाएं हुईं. इन घटनाओं पर चर्चा करते ही आम प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही सुनने में आई. खासतौर पर पुलिस-प्रशासन और पत्रकारिता से जुड़े लोगों में ऐसी राय ज्यादा मजबूत दिखी. इसकी दो वजहें मुमकिन है, वे अपने-अपने इलाके के हिसाब से ऐसी घटनाएं देखते हों और उन्हें ये एक घटना के रूप में नजर आती हो. वे एक साथ एक राज्य या छह राज्यों में ये घटनाएं न देख पा रहे हों. या ये घटनाएं हर साल या हर कुछ दिन पर हो रही हों और उनके काम का सामान्य हिस्सा हो गयी हों. मगर सवाल है कि क्या यह सामान्य है?
दशहरा, दुर्गापूजा और मुहर्रम जनभागीदारी वाले मौके हैं. दोनों समुदाय के लोग बड़ी तादाद में सड़कों पर होते हैं. अपनी-अपनी आस्थाओं का सार्वजनिक इजहार करते हैं. इन मौकों पर पंडाल सजते हैं. गेट बनते हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं. गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकलता है. जुलूस में मर्द होते हैं. मर्दों के हाथों में लाठी-डंडे, तलवार, हॉकी, ट्यूबलाइटें होती हैं. डीजे कहने जाने वाले बड़े-बड़े स्पीकर होते हैं. इनसे चीखती और डराती आवाजें होती हैं. मर्दानगी के इजहार के सारे तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं. इन मौकों पर निकलने वाले जुलूस वस्तुत: धीरे-धीरे समुदायों की शक्ति दिखाने का मौका बनते जा रहे हैं. हर समुदाय, अपने को दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली और प्रदर्शनकारी साबित करने में जुटा रहता है. इसमें शामिल लोग, खासकर नौजवान अपने को न सिर्फ अपने समुदाय का नुमाइंदा समझते-मानते हैं बल्कि ये भी मानते हैं कि वे ही रक्षक भी हैं. इसीलिए मजहबी मर्दानगी के इस इजहार को टकराव में तब्दील होते देर नहीं लग रही है. यही वजह है कि ऐसे सभी मौके या त्योहार, जिनमें बड़े पैमाने पर लोग सड़कों पर होते हैं, प्रशासन के लिए भी बड़ा सिर दर्द हो गए हैं.
अब जरा टकराव की वजहों पर गौर कीजिए. इनमें ज़्यादातर कहा गया –
• जुलूस का रास्ता – सबसे ज्यादा घटनाएं इसी मुद्दे पर हुईं. यह जोर कि जुलूस खास रास्ते से ही निकलेगा. जुलूस खास इलाके में परिक्रमा करेगा. मजहबी स्थान के करीब जुलूस का रुककर प्रदर्शन करना. ज्यादा जोश से नारे लगाना. जुलूस को तय रास्ते से न जाने देना.
• जुलूस पर पथराव का आरोप – कहीं से एक पत्थर आने का आरोप लगाना और फिर हंगामा शुरू.
• जुलूस में उत्तेजक नारे लगाना.
• धर्मस्थान से पथराव.
• किसी लड़की से बदसुलूकी.
• मूर्ति या ताजिए को नुकसान.
• पुलिस की कार्रवाई को इकतरफा बताना.
• गिरफ्तार लोगों को छुड़वाने के लिए धरना-प्रदर्शन.
• हथियारों का प्रदर्शन
• मांस के टुकड़े का मिलना.
• छोटी-सी बात पर दो लोग लड़े. चूंकि दोनों दो समुदाय के थे, इसलिए हंगामा.
• हरे रंग को पाकिस्तानी कहकर तनाव.
• सोशल मीडिया के जरिए अफवाह फैलाना. कहीं मूर्ति तोड़े जाने की खबर फैलाना तो कहीं ताजिया तोड़े जाने की बात प्रसारित करना.
इनमें से ज्यादातर वजहें आरोप/अफवाह की शक्ल में ही दिखाई देती हैं. हाल की इन घटनाओं को समझने के लिए हमने कुछ और लोगों से बात की.
यह साम्प्रदायिक तनाव की गर्माहट बनाए रखने की कोशिश है
सेवानिवृत्त आईपीएस अफसर विभूतिनारायण राय काफी लम्बे समय से साम्प्रदायिक हिंसा की वजहों को समझने की कोशिश में लगे हैं. इन तीन दिनों(दुर्गापूजा, दशहरा और मुहर्रम) की घटनाओं को उन्होंने भी रेखांकित किया है. क्या ये घटनाएं सामान्य हैं, इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘यह सही है कि छोटी-मोटी घटनाएं हर साल होती हैं मगर इस बार ये ज्यादा हैं. मेरी जानकारी में अकेले यूपी में 27 ऐसी घटनाएं हुई हैं. ये तनाव जानबूझकर पैदा किया गया लगता है. इसलिए ये शक पैदा होता है कि कहीं आने वाले चुनाव से भी इसका रिश्ता तो नहीं है. यूपी के विधानसभा चुनाव में सभी पार्टियों का बड़ा कुछ दांव पर लगा है. सबसे बड़ा दांव उस पार्टी का लगा है, जो केन्द्र में है. इसलिए मुझे लगता है कि एक-दो को छोड़ भले ही बड़ी घटना न हुई हो लेकिन यह साम्प्रदायिक तनाव की गर्माहट बनाए रखने के लिए किया गया लगता है. लेकिन इतना तो तय है कि छोटी घटनाएं बड़ी घटनाओं में तब्दील कराई जा सकती है. घटनाओं का भौगोलिक क्षेत्र और वहां की सामाजिक संरचना भी यह शक पैदा करती है. मुझे लगता है कि अगर यह गर्माहट बनी रही तो इसकी फसल चुनाव में कटेगी.’
टकराव के जरिए फायदा उठाने की राजनीति
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और साझी दुनिया की सचिव प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा दशकों से साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाती रही हैं. हाल के तनाव के संदर्भ में पूछे जाने पर उनकी राय थी, ‘हम प्रतियोगितावादी समाज में रह रहे हैं. धार्मिक पर्व भी प्रतियोगिता की एक बड़ी वजह बन रहे हैं. धर्म के नाम पर राजनीति की जमीन भी हमारे यहां काफी पहले से तैयार है, यह भी इसकी बड़ी वजह है. दूसरा मुझे लगता है कि 2017 के लिए तैयारी हो रही है. भारतीय जनता पार्टी जैसे दल अरसे से साम्प्रदायिक टकराव के मॉडल के जरिए ही राजनीतिक विकास की राह पर चल रहे हैं. जितना टकराव होगा, उनको उतना ही फायदा होगा.
मुजफ्फरनगर, कैराना, दादरी का मामला चल ही रहा है. पूरे मुल्क को अंध राष्ट्रवाद के आगोश में लेने की कोशिश हो ही रही है. बिहार चुनाव से लेकर अब तक आप समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह का व्यवहार देखिए. इसलिए मुझे ऐसी घटनाओं से बहुत ताज्जुब नहीं हो रहा.’
दूसरी ओर, नफरत के खिलाफ अमन के लिए काम करने वाले डॉक्टर राम पुनियानी भी कमाबेश यही कहते हैं. डॉ. पुनियानी के मुताबिक, ‘केन्द्र की वर्तमान सरकार आने के बाद ऊपर से नीचे तक साम्प्रदायिक सोचवालों को ज्यादा जगह मिल रही है. वे बेखौफ काम कर रहे हैं. सामाजिक रूप से साम्प्रदायिकीकरण की प्रक्रिया मौजूदा केन्द्र सरकार के आने के बाद मजबूत हुई है. ऐसे तनाव वहां भी ज्यादा देखे जाते हैं जहां चुनाव अपेक्षित है.’ राम पुनियानी एक और बात की ओर ध्यान दिलाते हैं. वे कहते हैं, ‘आमतौर पर साम्प्रदायिक तनाव एकल ध्रुवीकरण का नतीजा होता है. लेकिन यूपी में दोहरा ध्रुवीकरण की प्रक्रिया देखने को मिल रही है. मुजफ्फरनगर इसका सबसे सटीक उदाहरण है. यहां हिन्दुत्ववादी ताकतों ने ध्रुवीकरण की कोशिश की और समाजवादी पार्टी की सरकार ने इसे होने दिया.’
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीति अध्ययन केन्द्र में एसोसिएट प्रोफेसर मणिन्द्र नाथ ठाकुर का भी मानना है कि साम्प्रदायिक तनाव की घटनाओं में तेजी आई है. वे इसे कई सामाजिक प्रक्रियाओं का नतीजा मानते हैं.
क्या सामाजिक ताना-बाना कमजोर हो गया है
यानी कमोबेश यह बात फिजा में है कि साम्प्रदायिक टकराव बढ़े हैं और चुनाव का इन टकरावों से रिश्ता है. बातचीत में आमलोग भी इसे मानते हैं. तब सवाल है कि टकराव के राजनीतिक मकसद जानने के बाद भी ऐसा क्यों होता हैं? क्या हमारा सामाजिक ताना-बाना बेहद कमजोर हो चुका है?
मणिन्द्र अपने अध्ययन के अनुभवों के आधार पर सामाजिक रवैये के बारे में कहते हैं, ‘हमारे आसपास के सामान्यक मेल-जोल के रिश्ते खत्म हो रहे हैं. लोगों के आपस में मिलने जुलने की जगहें कम हो रही हैं. संदेह बढ़ा है. गांवों या मोहल्लों से ऐसे लोग गायब हो रहे हैं, जिनकी पहुंच एक-दूसरे के समुदायों के बीच थी. विश्वास कम हो रहा है. हां, चुनावी राजनीति ने भी बहुत गड़बड़ी पैदा की है. समुदायों में इंसाफ का अहसास भी कम हो गया है. या यों कहें कि गायब हो गया है. ऐसे तनावों के वक्त अक्सर लोगों को लगता है कि प्रशासन किसी न किसी समुदाय के साथ पक्षपात कर रहा है. कई बार प्रशासन का पक्षपाती रूप भी दिखता है. प्रशासन पक्षपात नहीं कर रहा है, ऐसा विश्वास नहीं रहा’.
विभूतिनारायण राय इसे साम्प्रदायिक नफरत नहीं बल्कि दुराग्रह कहना ज्यादा बेहतर मानते हैं. उनका कहना है, ‘मुसलमानों और हिन्दुओं की एक-दूसरे के बारे में बहुत गलत छवियां हैं. वे गहरे बैठी हैं. चूंकि, हमारे समाज में एक-दूसरे पर निर्भरता अब भी बची हुई है. इसलिए कुछ दिनों के बाद हमें सबकुछ सामान्य जैसा लगने लगता है. विभूतिनारायण राय की जिज्ञासा है – पूरी दुनिया में कहीं भी दो धर्मों ने एक-दूसरे को इतना नहीं दिया जितना भारत में हिन्दू-मुसलमानों ने दिया है. फिर भी दोनों सम्प्रदायों के बीच दुराग्रह इतना मजबूत क्यों है, यह बड़े समाजशास्त्री य अध्यएयन का विषय है.’ वहीं राम पुनियानी का मानना है कि समाज में धार्मिक उन्माद बढ़ा है. रूपरेखा वर्मा कहती हैं कि यह अफसोस की बात है कि लोगों में अविश्वास बढ़ा है.
सब मान रहे हैं कि मिलजुमला सामाजिक ताना-बाना कमजोर हुआ है. इसे और कमजोर करने की कोशिशें भी लगातार चल रही हैं. मेल-जोल के मौके कम हों और परस्पर दुराग्रह बढ़े, इसके उपाय ज्यादा मजबूत दिख रहे हैं. इसके बनिस्पत दुराग्रह दूर करने वाली ताकतें कमजोर दिख रही हैं. इसीलिए, कमजोर सामाजिक ताना-बाना छोटी-छोटी घटनाओं को जरूरत पड़ने पर आसानी से बड़ी घटना में बदल देगा, इतना तो तय है.
(कैच हिन्दी से साभार)