अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने पूरे आन, बान व शान के साथ आज अपना 96वां ‘यौम-ए-तासीस’ (फाउंडेशन डे) मनाया. पूरी जामिया बिरादरी तीन दिन तक उत्सव के रंग में डूबी नज़र आई. सांस्कृतिक आयोजनों ने इस उत्सव की शामों को और रंगीन बना दिया है.
सच पूछे तो 96 साल के अपने इस लंबे सफ़र में जामिया ने हवाओं के गर्म थपेड़ों का बखूबी सामना किया है. हर उस तूफ़ान से लड़ा, जिसकी रवानी ने उसे कुचलने का मंसूबा बनाया. लेकिन आज का ये सफ़र काबिल-ए-तारीफ़ है कि यौम-ए-तासीस के मौक़े पर जामिया के छात्रों के अलावा पूरी जामिया कम्यूनिटी व खासतौर पर जामिया नगर की अवाम ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.
मेरी नज़र में जामिया मिल्लिया इस्लामिया सिर्फ़ एक शैक्षिक संस्थान ही नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक भी है. यह उन सरफिरों का दयार है जिनकी मेहनत ने अविभाजित भारत को गरमाहट और उर्जा प्रदान की और अपने खून से सींच कर जामिया की पथरीली ज़मीन को हमवार किया. जामिया के दरो-दीवार आज भी उनकी यादों को संजोए हुए हैं और उज्जवल भविष्य के लिए खेमाज़न होने वाले उन दीवानों को जिन्होंने अपने मुक़द्दर को जामिया के लिए समर्पित कर दिया, ढूंढ रहे हैं. भाईचारा, मुहब्बत, इंसानियत दोस्ती के उन मतवालों के सामने देश की एकता एवं विकास सर्वोपरि था, ताकि सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक के साथ-साथ राजनीतिक स्तर पर समाज को जागरूक किया जा सके.
यह बात पूरी दुनिया जानती है कि जामिया का आरंभिक दौर संघर्षों से भरा पड़ा है. यहां तक कि जामिया को बंद करने की तैयारियां भी की जाने लगी थीं. अंततः ज़ाकिर साहब ने यूरोप से पत्र लिखा और कहा –“मैं और मेरे चंद साथी जामिया की ख़िदमत के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ करने को तैयार हैं. हमारे आने तक जामिया को बंद न किया जाए.” जामिया के आरंभिक संघर्षों की तस्वीर हमें ज़ाकिर साहब के इन शब्दों में साफ़ नज़र आती हैं –“उस दौर में सामान नहीं था. अरमान थे. दौलत नहीं थी, हिम्मत थी. सामने एक आदर्श था, एक लगन थी. जो बच्चा इस बेसरो-सामान बस्ती में आ जाता था, उसकी आंखों में हमें आज़ादी की चमक दिखाई देती थी. हमसे गुलामी ने जो कुछ छीन लिया था, वह सब हमें इन बच्चों में मिल जाता था. हर बच्चे में एक गांधी, अजमल खां, एक मुहम्मद अली, एक नेहरू, एक बिनोवा छुपा लगता था. फिर आज़ादी आई… बादल छंटे… सूरज निकला… फिर छंटते-छंटते वह बादल खून बरसा गए… देश बंटा… इसके गली-कूचों में खून बहा… घर-घर आंसू बहे… भाई भाई का दुश्मन हो गया… आज़ादी की खुशी दाग़-दाग़ हो गई… नया भारत बनाने के अरमान जो वर्षों से दिलों को गरमा रहे थे, कुछ ठण्डे से पड़ गए. इस हंगामे में जामिया पर भी मुश्किलें आईं, पर वह भी गुज़र गईं.”
वह वक़्त बड़ा सख्त था. अंधेरा घना था. नफ़रत की हवाएं तेज़ थीं, लेकिन जामिया और जामिया वालों ने मुहब्बत और खिदमत के चिराग़ को रौशन रखा. हुमायूं के मक़बरे का कैम्प हो या पुरानी दिल्ली की जलती और सुलगती बस्तियां, सरहद पार से आने वाले शरणार्थी कैम्प हों या मुसाफिरों से लदी हुई मौत की गाड़ियां, जामिया के मर्द, औरत और बच्चे हर जगह पहुचें, घायलों की मरहम पट्टी की. बीमारों की तीमारदारी का बोझ उठाया, ज़ख्मी दिलों को तसल्ली दी, बेघर और बेसहारा लोगों को सहारा दिया, खुद भूखे रह कर भूखों को खिलाया. यतीम बच्चों को सीने से लगाया. जामिया के सीने में आज भी यह जज़्बा दफ़न है.
“तालीमी मेला” जामिया की एक प्राचीन परम्परा रही है जिसे हर वर्ष “यौम-ए-तासीस” पर आयोजित किया जाता रहा है. इस अवसर पर 10-15 दिन पूर्व ही जामिया का माहौल पूरी तरह से बदल जाता है. इस संबंध में मुजीब साहब ने एक जगह लिखा है –“इन तारीखों में और इससे 10-15 दिन पूर्व पूरे जामिया में सरगर्मी, तैयारी और मंसूबा बंदी का माहौल रहा. मेले से पूर्व हर विभाग अपने अपने कामों को मंज़र-ए-आम पर लाने के लिए बेताब थे. तरह-तरह के विज्ञापन बन रहे थे, कमरों में नुमाइश के लिए सामान सजाया जा रहा था, अर्थात जामिया बिरादरी का हर व्यक्ति किसी न किसी काम को अपने ज़िम्मे लेकर दिन रात दिन रात इसी फिक्र में डूबा रहता. ड्रामों का अभ्यास, संगीत के सुर और खेलकुद के आईटमों के अभ्यास में तेज़ी आ गई थी. ऐसा प्रतीत होता था कि क़ुदरत ने मदद की गरज़ से नींद का क़ानून रात के लिए वापस ले लिया हो. रात गुज़री, सुबह हुई और मेले का बाज़ार गरम हुआ.”
जामिया में यह माहौल मैंने हमेशा से देखा है. हां, नजीब जंग के वाईस चांसलर रहते समय इस परम्परा पर विराम ज़रूर लगा था, लेकिन वर्तमान वाईस चांसलर ने इस परंपरा का आगाज़ फिर से ज़रूर कर दिया है. उम्मीद है कि अब आगे भी यह परंपरा क़ायम रहेगी क्योंकि जामिया के इस आयोजन का खास मक़सद कम्यूनिटी को जामिया के साथ जोड़कर चलना रहा है. यक़ीनन जामिया बिरादरी को ऐसे मौक़ों पर इस इदारे के मक़सद और उसके हसूल के साथ 96 साल के उस सफ़र को भी याद करना चाहिए. इस बात को भी हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि कैसे बानियान-ए-जामिया और मुहिब्ब-ए-जामिया ने मुश्किल से मुश्किल हालात में इस शमा को जलाए रखा. मुल्क के ताज़ा हालात में जामिया को एक बार फिर से उसी ‘ख़िलाफ़त आन्दोलन’ की शुरूआत करने की ज़रूरत है, जिसकी ज़रूरत कभी मौलाना मुहम्मद अली जौहर व गांधी जी ने महसूस की थी.