अफ़शां खान
पिछले दो दिनों से मीडिया में एक तथाकथित ‘फ़तवा’ चर्चे में है. इसे देश की तमाम मीडिया बार-बार टीवी स्क्रीन पर दिखा रही है. पहली बार में जब कोई भी इस ‘फ़तवे’ यानी ख़बर को देखेगा तो आंख मुंद कर यक़ीन कर लेगा कि सच में मौलाना ने ऐसा बोला है, जैसा कि मैंने खुद ही यक़ीन कर लिया था.
लेकिन फिर मेरे ज़ेहन में एक सवाल कौंधा कि जब हमारे पैग़म्बर (सल्ल.) की पहली बीवी हज़रत ख़दीजा खुद बिज़नेस करती थीं और पैग़म्बर (सल्ल.) ने उन्हें मना नहीं किया तो फिर मौलाना या मुफ़्ती किस आधार पर ये ‘फ़तवा’ जारी कर रहे हैं कि ‘मुस्लिम महिलाओं का नौकरी करना उचित नहीं है.’
इस सवाल ने मुझे इतना परेशान किया कि मैंने खुद इस फ़तवा देने वाले मौलाना से बात करने की कोशिश की. काफी संघर्षों के बाद मौलाना नदीम उल वाजदी से बात हुई जिसमें उन्होंने साफ़ तौर पर बताया कि ‘आज तक’ का एक रिपोर्टर उनके पास आया था. उन्होंने बताया कि कानपुर में किसी मौलाना ने कहा है कि औरतें घर के बाहर जाकर काम नहीं कर सकतीं. इस पर उन्होंने मेरी राय मांगी, मैंने इस पर अपनी राय रखी, लेकिन उन्होंने मेरे बयान के साथ छेड़छाड़ करके अपने चैनल पर प्रसारित किया.
दरअसल, मीडिया में आई एक ख़बर के मुताबिक़ कथित तौर पर रविवार को कानपुर में हुए एक कार्यक्रम में गुजरात के सलाउद्दीन सैफ़ी नाम के एक मौलाना ने बयान दिया था कि ‘मर्द के होते औरत का नौकरी करना ग़लत है.’ हालांकि इस कथित मौलाना ने ऐसा बोला था, इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है, लेकिन इसी बयान को लेकर मीडिया के लोग नदीम उल वाजदी के पास चले गए और उनसे इस पर उनकी राय मांगी. लेकिन मौलाना का आरोप है कि उन्होंने जो बयान दिया, मीडिया ने उसे काट-छांटकर अपने मतलब के हिसाब से दिखाया.
उन्होंने मुझसे बातचीत में बताया कि उनका बयान इस प्रकार था, ‘अगर शौहर का इंतक़ाल हो गया है या फिर वह कमाने में असमर्थ है तो औरत को घर से बाहर काम में कोई हर्ज नहीं है. यहां नौकरी की वजह मजबूरी है. अगर किसी औरत को ज़रूरत महसूस होती है, तब भी वो घर के बाहर जाकर काम कर सकती है. मसलन अगर किसी को लगता है कि उसे पायलट बनना है तो इस्लाम या शरियत कहीं से रुकावट नहीं है. औरतें मजबूरी और ज़रूरत, दोनों सूरतों में काम कर सकती हैं. लेकिन इस्लाम का असल मिज़ाज यही है कि औरत को घर के भीतर की ज़िम्मेदारी संभालनी चाहिए और मर्द को बाहर का कामकाज देखना चाहिए.’
लेकिन मीडिया ने उनके इस पूरे बयान को दिखाने के बजाए बस एक हिस्से को अपने हिसाब से दिखाया. इस ख़बर में यह भी बताया गया है कि मौलाना नदीम उल वाजदी दारूल उलूम, देवबंद से जुड़े हुए हैं. जबकि सच्चाई यह है कि मौलाना का संबंध देवबंद से सिर्फ़ इतना ही है कि वो देवबंद के बाशिंदे हैं. उनका संबंध दारूल उलूम, देवबंद से नहीं है.
दिलचस्प बात यह है कि मौलाना खुद ‘माहद-ए-आएशा सिद्दीक़ा क़ासिमुल उलूमुलबनात’ नाम से लड़कियों का एक मदरसा चलाते हैं, जहां क़रीब 450 लड़कियां तालीम हासिल कर रही हैं, वहीं क़रीब 25 महिलाएं यहां खुद काम कर रही हैं. ऐसे में हंसने की बात यह है कि जब खुद उनके मदरसे में लड़कियां व महिलाएं काम कर रही हैं तो फिर भला वो कैसे कह सकते हैं कि इस्लाम में औरतों का काम करना मना है.
ये यक़ीनन मीडिया का दिवालियापन है. मीडिया की ये हालत कोई नई नहीं है. इससे पहले भी औरतों व इस्लाम को लेकर फ़तवे की ख़बर मीडिया चैनलों पर दिखा चुकी है. लेकिन ज़्यादातर फ़तवों की कहानी झूठे ही निकली है. हालिया मामला नाहिद आफ़रीन का है, ऐसा कोई फ़तवा नहीं था, लेकिन मीडिया ने इसे फ़र्ज़ी तरीक़े से क्रिएट किया.
सच तो यह है कि जबसे केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी है, तब से मीडिया बार-बार जान-बुझकर मुसलमान से संबंधित झूठी ख़बरें प्रस्तुत कर रहा है. अगर कोई ख़बर नहीं है तो मीडिया ख़बरें क्रिएट कर रहा है. फ़तवे की इस ख़बर को भी मीडिया ने खुद क्रिएट किया है. मौलाना ने कहीं नहीं कहा था कि मीडिया वालों को बुलाओ, मैं फ़तवा देना चाहता हूं. मीडिया वाले ने ही जाकर उनके मुंह में माइक गुसेड़ा और उनकी बातों को काट-छांट कर अपने मुताबिक़ दिखाया ताकि देश में इस्लाम की एक ग़लत तस्वीर पेश की जा सके. मज़े की बात ये है कि सिर्फ़ संघी नहीं, लिबरल लोग भी मीडिया के इस ट्रैप में आ जाते हैं और ऐसे तथाकथित फ़तवों को सच मान लेते हैं, जबकि ये सच यह है कि फ़तवा सुझाव से अधिक कुछ भी नहीं होता. मुफ्ती किसी मसले पर फ़तवा दे सकता है, लेकिन उसकी अहमियत एक मसले पर किसी की राय जितनी ही है.
मीडिया को जितनी दिलचस्पी मौलानाओं के फ़तवे में है, काश! इतनी ही दिलचस्पी उन्हें मुसलमानों के दूसरे मामलों में होती, जहां मुसलमान अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है.