अभय कुमार
सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही तीन तलाक़ के मसले पर अपना फ़ैसला सुनाया, वैसे ही इस पर फ़िर से उग्र राजनीति शुरू हो गई है. टी.वी. स्टूडियो से चीख-चीख कर एंकर ‘कौन प्रगतिशील है और कौन नहीं है’ का ठप्पा लगा रहा है.
ये लेख लिखने से लगभग एक घंटे पूर्व एक शख्स मेरे पास आकर मुझ से इस मुद्दे पर मेरी राय पूछी. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाऊं, उसने मेरी बात काटी और खुद जवाब देने लगा: ‘तलाक़ पर कोर्ट ने रोक लगा ही दी है और अब समान नागरिक संहिता पर क़ानून बनने जा रहा है. जल्द ही राम-मंदिर का निर्माण भी होने वाला है...’
यह कौन सी “मुस्लिम-महिला हितैषी” राजनीति है, जो तलाक़ पर कोर्ट के रोक, समान नागरिक संहिता और राम-मंदिर का निर्माण जैसे अलग-अलग और विवादित मुद्दे को एक-दूसरे का पूरक समझ रही है?
मीडिया की मदद से माहौल ऐसा तैयार किया गया है कि अगर आप तीन तलाक़ को लेकर किसी तरह की अलग राय रखते हैं तो आप के ऊपर “कट्टरपंथी” और “मुस्लिम-महिला विरोधी” होने और “मुस्लिम तुष्टिकरण” करने का इलज़ाम थोप दिया जाएगा.
अगर आप ने सत्ताधारी दल को इस मुद्दे पर “क्रेडिट” नहीं दिया तो आप को देश के “विकास” में बिघ्न डालने का दोषी माना जाएगा. उग्र राजनीति के नशे में चूर “भक्तों” को कौन समझाए कि खुद सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक़ के मुद्दे पर एक राय नहीं रखता है.
तीन न्यायाधीश जस्टिस कुरियन जोसेफ़, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित ने अपने फ़ैसले में कहा कि, तीन तलाक़ असंवैधानिक है और यह इस्लामिक रीति-रिवाज़ का अटूट हिस्सा नहीं है.
दूसरी तरफ़ प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर और न्यायाधीश एस. अब्दुल नज़ीर ने इस पर अपनी असहमति जताई. अपने फ़ैसले में प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने तीन तलाक़ को न सिर्फ़ सुन्नी-इस्लामिक रीति-रिवाज़ का हिस्सा माना, बल्कि यह भी कहा कि पर्सनल लॉ में कोर्ट द्वारा दख़ल देना उसके कार्य-क्षेत्र से बाहर की चीज़ है.
उग्र-राजनीति के पैरोकारों को कौन समझाए कि मुस्लिम पर्सनल लॉ, तलाक़ या फिर अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार से जुड़े हुए मुद्दे काफ़ी नाज़ुक और संवेदनशील होते हैं, जिसमें लोगों की राय अलग-अलग होना लाज़िमी है.
ज़रुरत है खुले बहस की और इन मुद्दों से प्रभावित सारे पक्षों को साथ लेकर चलने की. सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों के दख़ल देने से पहले सोचना चाहिए कि क्या इस तरह के क़दम उनके समाज में स्वीकार्य है.
इसमें कोई शक नहीं है कि धर्म और संस्कृति के नाम पर आज भी समाज में कई सारी अमानवीय कुरीतियां की जड़ें गहराई तक जमी हुई हैं. आज़ादी के बाद इनमें से कुछ कुरीतियों जैसे छुआछूत को बाबा साहेब अम्बेडकर ने जद्दोजहद कर क़ानूनी तौर पर ख़त्म किया.
वह चाहते थे कि राज्य समाज में व्याप्त सभी सड़ी-गली रीति-रिवाजों को साफ़ करने में ठोस क़दम उठाए जाएं. मगर इसके साथ-साथ बाबा साहेब ने यह भी चेतावनी दी कि कोई भी सरकार ऐसा कोई भी क़ानून बनाने की बेवकूफ़ी न करे जिससे जनता बागी बन जाए.
1949 में संविधान-सभा में बोलते हुए, उन्होंने आगाह किया कि कोई भी सरकार ताक़त का इस्तेमाल यूं न करे कि मुस्लिम समुदाय विद्रोह करने पर उतर आये. मगर सत्ता वर्ग बाबा साहेब के इन नसीहतों को भूल तीन तलाक़ पर इस तरह से आक्रामक रुख अख्तियार किया हुआ है कि अल्पसंख्यक समुदाय बेचैनी और भय महसूस कर रहा है.
इस पूरी क़वायद में “महिलाओं के अधिकार की लड़ाई” के नाम पर कुछ और स्वार्थ साधा जा रहा है. यह स्वार्थ कहीं न कहीं साम्प्रदायिकता और मुस्लिम-मुख़ालिफ़ राजनीति से जुड़ा हुआ है जिसके आड़ में यह पूर्वाग्रह फैलाया और मज़बूत किया जा रहा है कि एक ख़ास धार्मिक समुदाई “कट्टर”, “दकियानुस”, “परम्परावादी”, और “महिला-विरोधी” है.
मगर आज मुस्लिम-महिलाओं के अधिकार की सबसे बड़ी “चैंपियन” होने का दावा करने वाली हिन्दुत्वादी शक्तियां किसी ज़माने में हिन्दू कोड बिल में हुए सुधार की सख्त मुख़ालिफ़ थीं. इन्हीं लोगों ने 1940 और 1950 के दशक में बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा औरतों को बराबरी के लिए लाये गए हिन्दू कोड बिल में किसी भी तरह के सुधार से साफ़ इन्कार किया था और इसे हिन्दू समुदाय के ऊपर एटम बम बतलाया था और हिन्दू कोड बिल की मुख़ालफ़त में 79 सभाएं की थीं.
इससे कौन इन्कार कर सकता है कि मुस्लिम महिलाएं अपने पितृसत्ता समाज में ग़ैर-बराबरी झेल रही है, मगर क्या उनकी लड़ाई हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध या फिर ईसाई महिलाओं से अलग है?
बात अगर जेंडर की हो तो केन्द्र में महिलाओं का अधिकार होना चाहिए मगर “महिला-न्याय” के नाम पर सिर्फ़ एक ख़ास धार्मिक-समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है. सत्ताधारी दल जो “मुस्लिम महिलाओं के हक़ की लड़ाई” लड़ने का दावा कर रहा है उसे हिन्दू महिलाओं की फ़िक्र क्यों नहीं है? क्या हिन्दू महिलाएं दहेज़, बाल-विवाह, खाप-पंचायत, “लव-जिहाद” और जाति-प्रथा का दंश नहीं झेल रहीं है? क्या हिन्दू विधवा, देव-दासी और बूढ़ी महिलाओं की समस्या तीन तलाक़ से कम गंभीर है?
इस सरकार से कौन पूछे कि तीन तलाक़ पर “हाइपर-एक्टिव” और “मसीहा” होने का दावा करने वाले सत्ताधारी-वर्ग महिलाओं की बुनियादी समस्याओं को लेकर इनती असंवेदनशील क्यों है? कब उनका ध्यान महिलाओं की शिक्षा, सेहत, रोज़गार और घरेलु-हिंसा की तरफ़ भी जाएगा? अगर वाक़ई तीन तलाक़ की समस्या के लेकर सरकार चिंतित है तो उसे मुस्लिम समुदाय को साथ लेकर चलने में इतनी झिझक क्यों है?
(अभय कुमार जेएनयू में शोधार्थी हैं. इनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)