आर.एल. फ्रांसिस, TwoCircles.net के लिए
ईसा मसीह ने दुनिया को शांति का संदेश दिया था. लेकिन गरीब ईसाइयों के जीवन में अंधेरा कम नहीं हो रहा है. अगर हमारे समुदाय में वाक़ई शांति होती तो आज दलित-आदिवासी ईसाई की स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती.
भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार रहे करोड़ों दलितों-आदिवासियों और सामाजिक हाशिए पर खड़े लोगों ने चर्च/क्रूस को चुना है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है.
विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है. दरअसल चर्च का इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है.
कुल ईसाइयों की आबादी का आधे से ज़्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की ज़िम्मेदारी सरकार पर डालते हुए देश की कुल आबादी के पांचवें हिस्से हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगा है. इनके सबके बीच यीशु का सिद्धांत कहीं पीछे छूट गया है.
पश्चिमी देशों के मुक़ाबले एशिया में ईसाइयत को बड़ी सफलता नहीं मिली है. जहां एशिया में ईसाइयत में दीक्षित होने वालों की संख्या कम है. वहीं यूरोप, अमेरिका एवं अफ्रीक़ी देशों में ईसाइयत का बोलबाला है.
राजसत्ता के विस्तार के साथ ही ईसाइयत का भी विस्तार हुआ है. हमारे अपने देश भारत में ईसा मसीह के शिष्य संत थोमस ईसा की मृत्यु के दो दशक बाद ही प्रचार के लिए आ गए थे. लेकिन डेढ़ हज़ार सालों में भी ईसाइयत यहां अपनी जड़े जमाने में कामयाब नहीं हो पाई.
पुर्तगालियों एवं अंग्रेज़ों के आवागमन के साथ ही भारत में ईसाइयत का विस्तार होने लगा. हज़ारों शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, सामाजिक सेवा केन्द्रों का विस्तार पूरे भारत में किया गया. उसी का नतीजा है कि आज देश की 30 प्रतिशत शिक्षा एवं 22 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्च का अधिकार है.
चर्च के पास भूमि है और वह भी देश के पाश इलाकों में. सरकार के बाद चर्च रोज़गार उपलब्ध करवाने वाला सबसे बड़ा संस्थान है, इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है.
आज भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनल हैं, पर कोई दलित नहीं. 30 आर्च बिशप में कोई दलित नहीं, 175 बिशप में केवल 9 दलित हैं. 822 मेजर सुपिरयर में 12 दलित हैं, 25000 कैथोलिक पादरियों में 1130 दलित ईसाई हैं.
इतिहास में पहली बार भारत के कैथोलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस छुआछूत और जाति-भेद के दंश से बचने को दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं. वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर उनको वैश्विक ईसाइयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वायदे के साथ शामिल कराया गया था.
कैथोलिक चर्च ने 2016 में अपने ‘पॉलिसी ऑफ़ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथोलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद हैं. इसे जल्द से जल्द ख़त्म किए जाने की ज़रूरत है.
हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसा ही है. फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथोलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन आैर संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी.
कुछ साल पहले दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बानकी मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया था कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं. जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है. कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया और वेटिकन को बार-बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बानकी मून को दिए ज्ञापन में मांग की गई थी कि वह चर्च को अपने ढांचे में जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोके और अगर चर्च ऐसा नहीं करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई अबर्जवर के दर्जें को समाप्त कर दिया जाना चाहिए.
आज़ादी के बाद से भारतीय ईसाई एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के नागरिक रहे हैं. यहां के चर्च को जो ख़ास सहूलियतें हासिल हैं, वे बहुत से ईसाइयों को यूरोप एवं अमेरिका में भी हासिल नहीं है. विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाने, सरकार से अनुदान पाने की सहूलियतों शामिल हैं. इन सुविधाओं के बावजूद भारतीय चर्च अपनी छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर पश्चिमी देशों का मुंह ताकते रहता है.
भारतीय ईसाइयों को यहां की राजनीतिक एवं न्यायिक व्यवस्था से भी ज़्यादा भरोसा पश्चिमी देशों द्वारा सरकार पर डाले जाने वाले उचित-अनुचित प्रभाव पर रहता है. हालांकि पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी मुल्कों के मुक़ाबले भारत में ईसाइयों की हालत बेहतर है. भारत का संविधान सबके लिए समान है.
अधिकतर ईसाई बुद्धिजीवियों का मानना है कि ईसाई भारतीय समाज और उसकी समास्याओं से अपने को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते हैं. वे अभी तक यह नहीं सीख पाए हैं कि लोकतंत्र में अपने अधिकारों की लड़ाई कैसे लड़ी जाती है. दरअसल, ये वृहत्तर समाज से कटे हुए रेगिस्तान में उस शुतरमुर्ग की तरह हो गए हैं, जो रेत में गर्दन छिपाकर यह समझाता है कि वह सुरक्षित हो गया है.
ईसाइयों को चर्च राजनीति की दड़बाई, रेत से अपना सिर निकालना होगा और अपने ही नहीं बल्कि देश और समाज के सामने भी जो ख़तरे हैं, उनसे दो चार होना पड़ेगा. जब तक ईसाई देश में चलने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों से अपने को नहीं जोड़ेंगे तथा उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी नहीं होगी. तब तक उनका अस्तित्व ख़तरे में रहेगा.
ईसाई समाज में सामाजिक आंदोलन नहीं के बराबर है. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में धार्मिक परिसरों और अपने धर्मवलम्बियों तक ही अपनी चिंताओं को सीमित रखने वाले प्राय: मुख्यधारा से कट जाते हैं, जिसका उन्हें बहुत नुक़सान उठाना पड़ता है.
ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पूर्वी राज्य या यूं कहें कि पूरे भारत में ईसाइयों के रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज नहीं रहे हैं. धर्मांतरण को लेकर अधिकतर राज्यों में दोनों वर्गों के बीच तनाव पनप रहा है और चर्च का एक वर्ग इन झंझावतों को समाप्त करने के स्थान पर इन्हें विदेशों में हवा देकर अपने हित साध रहा है.
अब चर्च के लिए आत्ममंथन का समय आ गया है. चर्च को भारत में अपने मिशन को पुनर्परिभाषित करना होगा. ईसाइयों को धर्म और सामाजिक ज़िम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्ट समझ बनाने की आवश्यकता है.
यही समय है जब ईसाई समुदाय को स्वयं का सामाजिक लेखा-परीक्षण करना चाहिए, ताकि पता चले कि ईसाई समुदाय अपनी मुक्ति से वंचित क्यों हैं. शांति के पर्व क्रिसमस पर ईसाइयों को अब इस बात पर आत्ममंथन करने की ज़रुरत है कि उनके रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज कैसे बने रह सकते हैं और भारत में वे अपने अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकते हैं.
(लेखक पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष हैं.)