आधा प्रतापगढ़ इस बार जाति और शांति पर वोट कर रहा है

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net


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प्रतापगढ़: प्रतापगढ़ की राजनीति पर बात करने के लिए आपको दो नाम ज़रूर लेने होंगे, राजा भईया और प्रमोद तिवारी. लेकिन इन दो नामों से जुडी राजनीति के बारे में हम बाद में बात करेंगे. अभी यह देखना ज़रूरी है कि यदि इन दो नामों को न लिया जाए तो प्रतापगढ़ की राजनीति कैसी हो सकती है?

प्रतापगढ़ में कुल सात विधानसभा सीटें हैं. रामपुर ख़ास, कुंडा, बाबागंज, प्रतापगढ़ सदर, विश्वनाथगंज, पट्टी और रानीगंज. यदि इन दो नामों से अलग राजनीति की बात करनी है तो हम कहेंगे कि प्रतापगढ़ की ग्राउंड रिपोर्ट के अगले हिस्से में हम ज़िक्र करेंगे रामपुर खास, कुंडा और बाबागंज का. यहां इस कड़ी में सदर, पट्टी, विश्वनाथगंज और रानीगंज पर बात करते हैं.

प्रतापगढ़ सदर की सीट कहें तो मतलब होगा प्रतापगढ़ शहर की सीट. इस सीट पर फिलहाल सपा के नागेन्द्र सिंह उर्फ़ मुन्ना यादव सपा से विधायक हैं. नागेंद्र सिंह इस इलाके में खांटी सपामार्का प्रत्याशी माने जाते रहे हैं. और प्रतापगढ़ सदर के लोगों के लिए वे प्रतापगढ़ी समीकरण भी बनाए रखते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि दो दिनों पहले ही नागेन्द्र सिंह के समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने चुनाव प्रचार में लगे अपा दल प्रत्याशी के समर्थकों को पीट दिया है. और चुनावों के दौरान ऐसा शायद कहीं नहीं होता होगा, लेकिन प्रतापगढ़ में प्रत्याशी और समर्थकों की पिटाई बेहद आम बात है. नागेन्द्र सिंह ने 2012 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने 43,754 वोटों के साथ जीत दर्ज की थी. इस साल बसपा के संजय कुमार 36,244 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे थे. इस साल सपा के प्रत्याशी के रूप में तो वे नहीं बदले हैं, लेकिन बसपा ने इस बार अपने प्रत्याशी के रूप में अशोक त्रिपाठी को खड़ा किया है. भाजपा समर्थित अपना दल के टिकट पर संगमलाल गुप्ता खड़े हैं.

गाज़ी चौराहे पर मिले 45 वर्षीय धीरज पाण्डेय बताते हैं, ‘प्रतापगढ़ की सदर की लड़ाई हमेशा जाति पर ही हुई है. आप जहां भी जाइए, वोटर को इससे मतलब नहीं है कि विधायक ने विकास किया है या नहीं, या विधायक प्रदेश सरकार से कितना जुड़ा हुआ है. अव्वल तो यह है कि विधायक चुनने में पहले जाति देखो और फिर देखो कि आपसे मिलता कितना है.” हमने कहा कि ऐसा तो कई जगह होता है, इसमें नया क्या है? तो उन्होंने कहा, ‘हर जगह इतना साफ़ नहीं होता होगा, जितना प्रतापगढ़ सदर में होगा.’

धीरज पाण्डेय बताते हैं कि वे बसपा के अशोक त्रिपाठी को वोट करेंगे, हालांकि वे यह भी ज़ाहिर करते हैं कि बसपा के साथ जाना उनकी रसूख और जाति के हिसाब से सही नहीं है, लेकिन पंडित वोट बर्बाद नहीं करेंगे.

प्रतापगढ़ सदर में इस समय की लड़ाई जाति से मजबूती से प्रभावित हो रही है. सपा के प्रत्याशी नागेन्द्र सिंह लड़ाई से बाहर होते हुए दिख रहे हैं. उन पर उपस्थित न रहने से लेकर उपेक्षा करने तक के कई सारे आरोप हैं. मनीष चौरसिया कहते हैं, ‘हम लोगों से क्या पूछ रहे हैं, कहीं भी चले जाइए. किसी से भी पूछिए कि क्या उन्होंने नागेन्द्र सिंह को देखा है, साफ़ कोई नहीं बता पाएगा कि कोई देखा है या नहीं. क्योंकि उनके लोग मिलते हैं, लेकिन वो कभी नहीं मिलते हैं.’

27 की उम्र के रवि केसरवानी और अबरार साथ में मिलते हैं. दोनों का वोट बसपा के अशोक त्रिपाठी की ओर जा रहा है. वे कहते हैं, ‘नागेन्द्र सिंह रहे या नहीं रहे, अब हमको तो इसका फर्क ही नहीं पड़ता है. लेकिन हमको इससे जरूर फर्क पड़ता है कि किसी के यहाँ कोई मरता या पैदा होता है तो अशोक त्रिपाठी जरूर मौजूद मिलते हैं. हर परिस्थिति में वो हम लोगों को दिख रहे हैं.’

अपना दल के प्रत्याशी संगमलाल गुप्ता भी मजबूत स्थिति और लड़ाई में दिख रहे हैं. संगमलाल गुप्ता के बारे में मिले रामबचन सिंह कहते हैं, ‘हमको संगमलाल को इसलिए वोट नहीं देना है कि वो अच्छे प्रत्याशी हैं. एक पैसे के भी सही प्रत्याशी नहीं हैं. लेकिन हमको अशोक त्रिपाठी को रोकना है, इसलिए संगमलाल गुप्ता को वोट देना है. ये चाहें तो आप साफ़ लिख भी सकते हैं.’

दरअसल इलाके में यह साफ़ है कि सपा के वोट यदि कट रहे हैं तो वे बसपा की ओर नहीं जा रहे हैं, उनका भाजपा की ओर जाना लगभग तय है. फिर भी प्रतापगढ़ की राजनीति इतनी ज्यादा भंगुर है कि वोटरों को आशंका है कि आख़िरी समय में कुछ भी हो सकता है.

अब रुख करें पट्टी विधानसभा सीट की ओर. पट्टी प्रतापगढ़ सदर से 25 किलोमीटर की दूरी पर है. रास्ता अच्छा है. यहां वर्मा समुदाय के वोट सबसे अधिक हैं. और लगभग इतने ही वोट ब्राह्मण और ठाकुर समुदाय के हैं. इससे कुछ कम वोट मुस्लिमों, दलितों और यादवों के हैं. यहां के मौजूदा विधायक राम सिंह हैं. सपा से हैं. विधायक राम सिंह पूर्व दस्यु ददुआ के भतीजे हैं और उनके पिता बाल कुमार पटेल भी सांसद रह चुके हैं. 2012 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने 61,434 वोट पाए थे, लेकिन जीत कठिन थी क्योंकि भाजपा के राजेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ़ मोती सिंह सिर्फ 156 वोटों के अंतर से दूसरे स्थान पर पहुंचे थे. उसके पहले इस सीट पर मोती सिंह का ही कब्जा था. सपा और भाजपा के प्रत्याशी तो वही हैं और बसपा के प्रत्याशी के रूप में इस बार इस सीट पर कुंवर शक्ति सिंह का नाम सामने आया है. पिछली बार सपा और भाजपा के बीच इतनी नज़दीकी लड़ाई होने के बाद भी इस बार लड़ाई सपा और बसपा के बीच में हो गयी है. इलाके में घूमने पर और किसी से भी पूछने पर मोती सिंह के लिए अच्छी और संतोषजनक बातें सुनने को नहीं मिलती हैं.

रामराज इंटर कॉलेज के पास ही मोहम्मद वाहिद और अश्विनी द्विवेदी मिलते हैं. दोनों लगभग एक तरीके से बताते हैं, ‘जिस समय तक मोती सिंह यहां विधायक थे, इलाका कभी शांत नहीं था. बहुत मुसीबत थी. पिछली बार राम सिंह आए तो पता चला कि शांति किस चिड़िया का नाम है?’ हमने इस शान्ति को समझाने की गुज़ारिश की. तो उन्होंने कहा, ‘पंचायत सदस्य का चुनाव ले लीजिए या कोई भी काम, झगड़ा और दबंगई यहां आम बात थी. मोती सिंह हर बार उन चुनावों को प्रभावित करने के लिए दबंगई दिखाते थे. क्षेत्र की भी कोई समस्या हो तो हम लोग उनसे कह भी नहीं पाते थे, इतना डर लगता था.’

इलाके के वोटरों की मानें तो 2012 में राम सिंह के विधायक बनने के बाद शान्ति रहने लगी है. कोई फसाद-बवाल नहीं होता है. बहुत सारे लोग दावा करते हैं कि राम सिंह पंचायत चुनावों में कोई दखल नहीं देते हैं, जो जीतता है, उसे जीतने देते हैं.

यहां मुस्लिम समुदाय की भी बड़ी संख्या मौजूद है. 39 वर्षीय हाजी सईद कहते हैं, ‘एक विधायक के तौर पर देखिए तो हम लोगों को असंतुष्टि है, लेकिन सबसे बड़ी और ज़रूरी चीज़ शांति है. इसलिए हम सभी लोग साइकिल पर बटन दबाएंगे.’ 69 साल के मोहम्मद यासीन कहते हैं, ‘2012 के पहले आप इतनी आसानी से लोगों से पूछ भी नहीं पाते कि कौन चुनाव जीत रहा है या किसको वोट दे रहे हैं? इतनी बुरी हालत थी. रोज़ मारपिटाई की खबरें आने लगी थीं, लेकिन अब थोड़ा समय बदला है. और लोग भी थोड़ा बदल गए हैं तो कोई भी नहीं चाह रहा है कि मोती सिंह लौटकर फिर से आएं.’

बसपा के प्रत्याशी शक्ति सिंह, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उनकी पकड़ भाजपा के परिचित वर्मा वोटबैंक पर भी है, के नाम से भी लोग संतुष्ट हो जा रहे हैं. दस में से आठ मुस्लिम मतदाता यदि सपा को जिताने की बात करते हैं तो दो का वोट बसपा की ओर जाता है.

प्यारेलाल वर्मा कहते हैं, ‘इस समय हम लोगों के बीच इतनी दुविधा है कि समझ नहीं आ रहा है कि वोट किधर डालें. हम लोगों के बीच आधे लोग कन्फ्यूज़ हैं कि बसपा की ओर जाएं और आधे लोग भाजपा की ओर. मैं खुद भी अभी बताने की स्थिति में नहीं हूं.’ इस इलाके में घूमने पर और कई लोगों से बात करने पर यह आभास हो जाता है कि 2012 से यहां सपा का वोटबैंक बना हुआ है, जो इस बार थोड़ा मजबूत भी हुआ है. लेकिन बसपा को प्रतापगढ़ के इस इलाके में सफल होने के लिए आने वाले तीन दिनों में ही अपने समीकरणों पर काम करना होगा.

बाकी बची दो सीटों रानीगंज और विश्वनाथगंज में एक जैसा समीकरण काम करता है. यहां तीनों राजनीतिक फ्रंट ब्राह्मण वोटों की फ़िराक में रहते आए हैं. पहले विश्वनाथगंज की बात करें तो यहां से सपा के नेता राजाराम विधायक थे. उनकी मृत्यु के बाद आरके वर्मा (अपना दल) ने उपचुनावों में जीत दर्ज की थी. इस बार समाजवादी पार्टी ने यहां से राजाराम पाण्डेय के बेटे संजय पाण्डेय को खड़ा किया है. बसपा ने इस सीट पर प्रेम आनंद त्रिपाठी को खड़ा किया है. भाजपा की बात करें तो लम्बे वक़्त तक भाजपा और अपना दल में इस सीट के बंटवारे को लेकर संघर्ष होता रहा कि यह सीट किसके खाते में जाएगी. सूत्र बताते हैं कि प्रतापगढ़ जैसे हार्डकोर इलाके में भाजपा अपना दल को प्रत्याशी चुनने की स्वतंत्रता देकर कोई भी नुकसान नहीं मोल लेना चाहती थी और वैसे भी सदर की सीट देने के बाद भाजपा ने अपना दल का खाता एक सीट पर ही समेटना चाहा था, लेकिन अब सीट अपना दल के पास है. अपना दल ने इस सीट पर आरके वर्मा को अपना प्रत्याशी बनाया है. अपना दल के साथ-साथ भाजपा के लिए मुसीबत यह है कि आरके वर्मा को इलाके में उतनी पहचान नहीं हासिल है. जो लोग उन्हें जानते हैं, वे यह मानते हैं कि आरके वर्मा किसी कामधाम के आदमी नहीं हैं.

इस इलाके के श्रीधर त्रिपाठी बताते हैं, ‘विश्वनाथगंज में कोई नहीं चाहता है कि आरके वर्मा आएं. राजाराम साहब थे तो लगता था कि कोई बीहड़ आदमी आगे निकला है.  बात ऊपर लेकर जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वो पहले विधायक हुए और क्षेत्र की सेवा भी नहीं कर पाए.’

ज्ञात हो कि विश्वनाथगंज विधानसभा परिसीमन के बाद 2012 में ही आई थी, जिस पर राजाराम पाण्डेय पहले विधायक हुए थे. मौजूदा चुनाव में उनके बेटे संजय पाण्डेय को सहानुभूति के वोट मिलने के भी आसार हैं, इसलिए सलमान खुर्शीद से लेकर प्रमोद तिवारी जैसे नेता भी इस सीट पर संजय पाण्डेय के प्रचार के लिए खड़े हुए हैं. हालांकि संजय पाण्डेय सहानुभूति लहर उपचुनाव में नहीं पा सके थे और चुनाव हार गए थे.

हालांकि इस सीट पर ब्राह्मण समीकरण मजबूत है. जहां बसपा और सपा दोनों के ही प्रत्याशी ब्राह्मण हैं, वहीँ अपना दल ने ब्राह्मण वोटों के बंटवारे से बचने के लिए आरके वर्मा को खड़ा किया है. अपना दल के एक कार्यकर्ता नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं, ‘पहला विधानसभा चुनाव में डिसाइड हो गया था कि सीट किधर जाएगी. हम लोग वर्मा जी के साथ जरूर लगे हुए हैं लेकिन उनको सपा-कांग्रेस और बसपा मिलकर बहुत भयानक टक्कर दे रही हैं. मुद्दा तो ये भी हो रहा है कि हम लोगों को भाजपा का साथ नहीं मिल रहा है. आप अंदाज निकालिए कि सीट किधर निकलेगी.’

वोटर प्रमोद प्रकाश मिश्रा बताते हैं कि आरके वर्मा इस क्षेत्र में काम नहीं किए हैं. जीतकर खाली हो गए हैं. वे कहते हैं, ‘हम लोग तो चाहते थे कि इस सीट का पहला विधायक ही रहे. अब ये ख्वाहिश है कि उनके बेटे रहेंगे तो बात भी सुनेंगे और काम भी करेंगे.’ लगभग जो भी वोटर हमें मिले, उनकी अंदरूनी इच्छा यह रही कि प्रत्याशी ब्राह्मण आए लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा ‘इसे रिकॉर्डर पर बोलना हम लोगों को शोभा नहीं देता.’

बचती है रानीगंज सीट तो ये सीट भी ब्राह्मणबहुलता की शिकार है, जिस पर कुछ मुस्लिम और दलित वोटों की आस में बसपा बीते दो चुनावों से मुस्लिम प्रत्याशी को उतार रही है. सपा के मौजूदा विधायक शिवकांत ओझा प्रत्याशी हैं, जिन्होंने बसपा की मंशा अहमद को लगभग तेरह हज़ार वोटों से हराया था. मंशा अहमद की जगह इस बार शकील अहमद इस सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं और ब्राह्मण वोटों की ख्वाहिश में भाजपा ने भी धीरज ओझा को इस सीट से उतार दिया है. लोग मान रहे हैं कि रानीगंज विधानसभा सीट पर इस बार भी लड़ाई सपा और बसपा के बीच में है क्योंकि भाजपा के प्रत्याशी का जमीन से कोई मजबूत जुड़ाव नहीं है.

प्रीतम सिंह कहते हैं, ‘हम तो पहली बार वोट करेंगे लेकिन ये भी तय मानिए कि वोट सपा की ओर जाएगा.’ ऐसा मिलेजुले रूप में कहना उनके साथ मिले आरिफ़, राकेश और अमित का भी है. आरिफ कहते हैं कि बसपा के लिए वोट करेंगे लेकिन इन सभी में से कोई यह ज़ाहिर नहीं करता कि वे बसपा या सपा के लिए वोट क्यों करेंगे.

कुल मिलाकर देखें तो प्रतापगढ़ की ये चार सीटें समस्याओं से बेहद जूझ रही हैं. कई जगहों पर सड़क नहीं हैं, तो कहीं पर बिजली नहीं है. किसी लम्बी सड़क पर पुलिया भी टूटी हुई है तो विधायक को इसकी नहीं फ़िक्र कि वह कब बनेगी. शहर और गांव का हाल बेहाल और एकहाल है. प्रतापगढ़ शहर में एक बड़ा फ्लाईओवर निर्माणाधीन है, जो पूरा नहीं हुआ है तो बीच तीन किलोमीटर का इलाका धूल में नहाया रहता है. इन बातों को आखिर में लिखने का मतलब साफ़ है कि इन मुद्दों का असर वोट पर नहीं पड़ रहा है क्योंकि आधा प्रतापगढ़ इस बार जाति और शान्ति पर वोट कर रहा है.

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