अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
मेरठ : अपने उद्योग-धंधों और उत्तर प्रदेश के व्यापार में मजबूत जगह बनाने वाले मेरठ में भी चुनाव ने ज़ोर पकड़ा है. लेकिन लोगों से बात कीजिए तो वे बहुत ही उलझे हुए नज़र आते हैं क्योंकि यहां सवाल वोटों के बंटवारे का है. सवाल मुस्लिम वोटों के नुक़सान और उसको हड़पने के लिए बनाए जा रहे भ्रमजाल का भी है. वोटर अभी तक किसी एक पक्ष में खुलकर दिख नहीं रहा है. उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि वो किसका पक्ष ले.
शहर के मेरठ कॉलेज के नज़दीक मशहूर कुटिया इन दिनों राजनीतिक परिचर्चा का सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र है. यहां मौजूद 69 साल के एक बुजुर्ग कहते हैं, ‘सिस्टम ने रोटी के लिए आदमी को कुत्ता बना दिया है. अब चोरों-डकैतों की राजनीति हो रही है. ये कितना अजीब है कि जिस सपा ने कांग्रेस को कभी यूपी से ख़त्म किया था अब वही कांग्रेस सपा को डूबने से बचाने के लिए जुट गयी है. पानी पी-पीकर भाजपा को कोसने वाली बहन जी का भी कोई भरोसा नहीं कि कब वो भाजपा के साथ मिल जाएं.’
ये बुजुर्ग आगे बताते हैं, ‘गुजराती गांधी जी भी थे, भूखा-नंगा होकर देश की सेवा की, वहीं एक दूसरा गुजराती भी है, डिग्री तक झूठा है.’
वो आगे बताते हैं, ‘यहां का किसान मोदी के ख़िलाफ़ हैं. वहीं जाट दिल से मायावती को चाहते हैं, लेकिन इस बार मजबूरी है.’ क्या मजबूरी है? इस सवाल पर वो कहते हैं, ‘हालात होते हैं, मजबूरी नहीं. वैसे भी यहां की सियासत जाति-बिरादरी में बंटा हुआ है.’
नाम पूछने पर ये बुजुर्ग बताते हैं, ‘50 साल से बिना नाम के ही जी रहा हूं.’ लेकिन शुरू के 19 साल तो आपका कुछ नाम होगा? वो मुस्कुराते हैं और फिर बोलते हैं, ‘तब तोमर नाम था, आगे का पता नहीं.’
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लाइफ़ लाईन मेरठ इन दिनों राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुज़र रही है. मेरठ के भरे-पूरे राजनीतिक इतिहास का ये बेहद कठिन दौर है. मेरठ को ये तय करना है कि वो अपने विकास के ख़ातिर किस राजनीतिक पार्टी का दामन थामेगा? मगर मेरठ की कहानी ये है कि अभी यहां स्थिति बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं है. न कोई हवा न कोई लहर है.
मेरठ कॉलेज में भौतिकी विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. सतीश प्रकाश का मानना है कि मुसलमानों की पहली पसंद तो समाजवादी पार्टी है, बसपा उसकी मजबूरी वाली पसंद है. बावजूद इसके पश्चिमी यूपी में मुसलमान बसपा की ओर जाएगा. वे कहते हैं, ‘बहन जी ने पश्चिमी यूपी की 8 सीटों पर अकेले मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं. वहां दूसरी पार्टियों का कोई मुसलमान उम्मीदवार नहीं है. वहीं यहां की 42 सीटों में 8 सीटें आरक्षित भी हैं. इन सीटों पर मुसलमान तक़रीबन 40 फ़ीसदी व दलित तक़रीबन 25 फ़ीसदी है.’
डॉ. प्रकाश बताते हैं, ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग चाहते हैं कि ये अलग प्रदेश बने. मेरठ में एक हाईकोर्ट हो. यहां के लोगों को इंसाफ़ के लिए पाकिस्तान से भी दूर जाना पड़ता है.’ वो कैसे? इस सवाल पर डॉ. प्रकाश बताते हैं कि यहां से इलाहाबाद 600 किमी. दूर है, जबकि पाकिस्तान की दूरी सिर्फ़ 400 किमी. है.’ उनका ये भी कहना है कि मायावती ने ये दोनों मांगे मान ली हैं.
डॉ. प्रकाश मानते हैं कि जब चुनावी नतीजे आएंगे तो पूरा देश चौंक जाएगा. क्योंकि उनका मानना है, ‘बसपा की प्लानिंग बाहर नहीं आ पाती है. उनके समर्थक ख़ामोश रहते हैं और बसपा के लोगों ने कभी भी मीडिया की ओर ध्यान भी नहीं दिया, क्योंकि उन्हें पता है कि ये सवर्णवादी मीडिया कभी दलितों में पक्ष में नहीं आ सकता है.’
वो मीडिया पर आरोप लगाते हुए आगे कहते हैं, ‘सपा व भाजपा ने मीडिया को पूरी तरह से खरीद लिया है. इसलिए देश को लग रहा है कि लड़ाई सपा व भाजपा के बीच है. जबकि ज़मीनी सच्चाई ये नहीं है. दलित वोटों पर मीडिया की ख़बरों का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला, क्योंकि कांशीराम ने कभी स्पष्ट तौर पर कह दिया था कि मीडिया सिर्फ़ झूठ बोलता है.’
हालांकि मेरठ के आईआईएमटी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर फ़िरोज़ हुसैन का मानना बिल्कुल इनके विपरित है. इनका कहना है कि फिलहाल इस बार बसपा कहीं नहीं है. पूरे मेरठ में लड़ाई सपा और भाजपा के बीच ही है. आगे अगर स्थिति कुछ बदलती है तो कहा नहीं जा सकता.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार सलीम अख्तर सिद्दीक़ी का भी कहना है, ‘इस बार सबसे अधिक निर्णायक वोट महिलाओं का होने वाला है. और ये महिलाएं अखिलेश की ओर सबसे अधिक हैं. महिलाओं के बीच अखिलेश का एक अलग क्रेज है.’
मेरठ के राजबन में रहने वाले महेश चौधरी का कहना है कि इस बार यहां के तमाम दलितों का वोट बसपा को ही जाना है. 2014 में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इस सवाल पर वो कहते हैं, ‘2014 में हालात थोड़े अलग बन गए थे. मुसलमानों ने भी बहन जी का साथ नहीं दिया था. लेकिन अब दोनों को समझ में आ गया कि पीएम मोदी इनके साथ क्या कर रहे हैं.’
वो अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए यह भी कहते हैं, ‘एक बात जान लीजिए जब तक इस देश में मुसलमान है, दलित सुरक्षित है. क्योंकि आरएसएस मुसलमानों को अपना नंबर वन दुश्मन मानती है. लेकिन जब मुसलमान नहीं होंगे तब दलित उनके दुश्मन नंबर वन बन जाएगा. इसलिए मुसलमानों व दलितों का एकजुट होना बहुत ज़रूरी है.’
इन सब जातिगत राजनीति के बीच एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि पश्चिमी यूपी के गन्ना किसानों का मुद्दा वहीं का वहीं है. ज़िन्दगी से जुड़े हुए खेती-किसानी और रोज़गार के मसले भी उपेक्षित पड़े हुए हैं. राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन, जो अब एक राजनीतिक पार्टी में तब्दील हो चुका है, से जुड़े रामबीर सिंह का कहना है, ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है, लेकिन यहां का किसान ही सबसे ज़्यादा ठगा गया है. नोटबंदी ने किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा है. किसान यहां आत्महत्या कर रहा है, लेकिन इस ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है. अभी इसी जनवरी महीने के शुरू में खतौली के एक किसान जयवीर सिंह ने आत्महत्या की है. उसने अपना पूरा परिवार ख़त्म कर लिया. लेकिन किसी सरकार या मीडिया ने इस ओर ध्यान नहीं दिया.’
बताते चलें कि मेरठ में सात विधानसभा सीटें हैं. 2012 चुनाव में इन सात सीटों में 4 सीटें भाजपा तो बाक़ी बची 3 सीटें सपा के झोली में आई थी. बसपा का यहां से खाता भी नहीं खुल सका था.
सियासी पंडित मानते हैं कि भाजपा के कामयाब होने के पीछे असल वजह मुस्लिम वोटों का अधिक बंटवारा था, वहीं मुज़फ़्फ़रनगर दंगों की वजह से जाट समुदाय भी भाजपा के पक्ष में खड़ा दिखा, लेकिन इस बार ये जाट समुदाय पहले ही ऐलान कर चुका है कि वो किसी भी क़ीमत पर भाजपा के साथ नहीं जाएगा.
स्पष्ट रहे कि मेरठ की सातों सीटों पर नामांकन पूरे हो चुके हैं. सरधना से 10, सिवालखास से 10, हस्तिनापुर (सुरक्षित) से 8, किठौर से 13, मेरठ कैन्ट से 14, मेरठ शहर से 16 और मेरठ दक्षिण से 13 उम्मीदवार मैदान में हैं. यहां मतदान पहले चरण में 11 फरवरी को होना है.
कहते हैं कि यूपी में सत्ता का सूरज पश्चिम से ही निकलता है. जिसकी लहर यहां से शुरू होती है, वही पूरब तक पसर जाती है. मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद पश्चिमी यूपी का सामाजिक व राजनीतिक चरित्र खासा बदल चुका है. 2017 का ये चुनाव सबसे ज़्यादा मुश्किल होने जा रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि मेरठ की जनता हक़ीक़त की ज़मीन पर खड़े होकर वोट देगी और एक ऐसी सरकार चुनने का रास्ता साफ़ करेगी जो जनता की हो, जनता के लिए हो और जनता की ख़ातिर हो.