अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
नई दिल्ली : जामिया मिल्लिया इस्लामिया की ये छात्रा इन दिनों मुफ़लिसी के मारे बच्चों का भविष्य संवारने में जुटी हुई है. ये बच्चे जामिया के भीतर ही काम करने वाले उन लेबरों के हैं, जो दिन-रात कंस्ट्रक्शन के काम में पसीना बहाते हैं और बच्चे आमतौर पर अपना बचपन धूल-मिट्टी के बीच ख़त्म कर देते हैं. मगर अफ़शां खान से ये हालत देखी नहीं गई और उसने एक बड़े बदलाव की मुहिम शुरू कर दी.
बिहार के गया ज़िले के एक छोटे से गांव मख़दूमपुर में जन्मी 23 साल की अफ़शां न सिर्फ़ इन गरीब बच्चों को पढ़ा-लिखाकर उन्हें नई मंज़िल की ओर ले जाने की कोशिश कर रही हैं, बल्कि मुस्लिम तबक़े की लड़कियों के लिए भी वो दिन-रात कोशिश में लगी हुई हैं. इस पूरे अभियान में इन्हें कई रूढ़ियों, दिक्कतों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, मगर अफ़शां के हौसले बुलंद हैं. वो नेक इरादों के साथ हर दिन कुछ गुमनाम ज़िन्दगियों को उनकी मंज़िल की तरफ़ एक क़दम आगे ले जा रही हैं.
अफ़शां इस समय जामिया मिल्लिया इस्लामिया के राजनीतिक विज्ञान विभाग से एमए की पढ़ाई कर रही हैं और साथ ही द ओरिजिन नामक एक गैर-सरकारी संस्था से जुड़कर मुस्लिम लड़कियों के मुस्तक़बिल बदलने की ख़ातिर उनकी ज़िन्दगी में आने वाली दिक्कतों व रूकावटों और मजबूरियों से निजात पाने का रास्ते तलाश कर रही हैं. उनका इरादा आगे इस विषय पर शोध करके इन सच्चाईयों से पूरी दुनिया को अगवत कराने की है. फिलहाल ओरिजिन संस्था की ओर से लड़कियों की ज़िन्दगी व उनके सपनों में आने वाली रूकावटों को समझने के लिए अंत्तराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर निबंध लेखन प्रतियोगिता का सफल आयोजन की कोशिश में जुटी हुई हैं.
शांत स्वभाव की अफ़शां बताती हैं कि इनके पिता पूरे परिवार को अपने साथ बच्चों को शिक्षा दिलवाने के लिए दिल्ली ले आए. फिर यहीं पली-बढ़ीं और शिक्षा हासिल की. इनके मुताबिक़ ये अहिंसा में अटूट विश्वास रखती हैं.
अफ़शां TwoCircles.net के साथ बातचीत में बताती हैं कि इन्हें बचपन से पढ़ने–लिखने का बहुत शौक़ था. जब इनकी पढाई में कभी भी कोई बाधा आती तो यह खूब विरोध करती थीं, लेकिन अहिंसक तरीक़े से.
अफ़शां बताती हैं कि जब वह बारह साल की थीं तभी उन्होंने एक पड़ोस में रहने वाली औरत जो कि तीन गुना उम्र में बड़ी थी, को पढ़ाना शुरू किया था. महिला ने जब देखा की अफ़शां की पढ़ाई में अधिक रुचि है तो पढ़ाने के लिए कहा, क्योंकि बक़ौल अफ़शां उन औरत को हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं आता था.
अफ़शां को मेधावी परीक्षा में पास होने के लिए चौथी क्लास में पहली बार स्कॉलरशिप मिली थी. अफ़शां बताती हैं कि मुस्लिम परिवार से होते हुए उनकी उर्दु से ज़्यादा संस्कृत पर पकड़ थी. उनके अध्यापक कप्तान सिंह उनको श्लोक सुनाने और संस्कृत प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते थे.
वो बताती हैं कि जब भी कोई टीचर छुट्टी पर होता/होती तब वह अपने क्लास के स्टूडेंट्स को पढ़ाना शुरू कर देती थीं. उनकी क्लास में पढ़ने वाले बच्चों को जब उनकी बात अच्छे से समझ आती तो सब यही कहते कि तुम्हें टीचर ही बनना चाहिए.
इन्हीं तजुर्बों ने अफ़शां को यकीन दिलाया कि उनको पढ़ाने का काम कभी नहीं छोड़ना है. हालांकि वो एक स्टूडेंट ही हैं, लेकिन फिर भी जब भी वक़्त मिला वो किसी को पढ़ाने से पीछे नहीं हटती हैं. कॉलेज में आकर भी अफ़शां का हौसला थमा नहीं. जामिया में कंस्ट्रक्शन में काम कर रहे मज़दूरों के बच्चों से जब वो रूबरू हुई तब उन्होंने उन्हें पढ़ाने का फैसला लिया.
बच्चों को पढ़ाने के लिए कई नयी तकनीकों का इस्तेमाल किया. खासतौर पर बच्चों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने की नियत से उनमें पोस्टर का कम्पटीशन कराया. वो बताती हैं कि बच्चे पेन्टिंग के बहाने पढ़ने में दिल ज़्यादा लगाते थे.
वो आगे बताती हैं, ‘मैंने इन बच्चों को अभी कुछ ही महीने पढ़ाया था कि मेरी तबीयत बहुत ज़्यादा ख़राब हो गई. महीनों घर पर रहना पड़ा, जिसकी वजह बच्चों की पढ़ाई रूक गई. अब मैं इन बच्चों की तलाश में कैंपस में घूमती हूं ताकि उनकी पढ़ाई के सिलसिले के बारे में पता कर पाएं, लेकिन अफ़सोस उनमे से ज़्यादातर बच्चे अपने–अपने गांव या कहीं और चले गएं. कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो अभी से काम करने लगे.’
अफ़शां कहती हैं, ‘यह हम सब के लिए बहुत ही शर्म की बात है कि इन मासूम बच्चों के कंधे पर अभी से बोझ है ज़िम्मेदारियों का, इनका बचपन तबाह करने में कहीं न कहीं हम भी भागीदार हैं.’
अफ़शां खान की एक और रूचि रही पर्यावरण से प्यार. वो सदा पेड़ पौधों को बचाने वाली मुहीम का समर्थन करती रही और इसका हिस्सा बनीं. वो बताती हैं कि 5वीं क्लास से ही वो वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम में बढ़चढ़ के भाग लेती थीं. छठी क्लास में वो अपनी सहेली है कि साथ मिलकर पैम्फलेट और पोस्टर्स बांटा करती थी ताकि लोग पर्यावरण को पहचाने और उसकी हिफाज़त करें. उन्होंने प्लास्टिक बंद करने की मुहिम को कामयाब बनाने के लिए कई दिनों तक अपने मोहल्ले के लोगों से अपील की थी कि वो कागज़ के बैग ही इस्तेमाल करें.
आपकी ज़िन्दगी का मक़सद क्या है? तो इस अफ़शां सोचने लगती हैं और फिर उनका जवाब था, ‘बहुत कुछ… लोगों की दकियानूसी सोच बदलना, लड़कियों की ज़िन्दगी में आने वाली रूकावटों को दूर करने की कोशिश करना, क़ौम के लोगों को इस्लाम के सही मायने बताना, लड़कियों के लिए प्रेरणा बनना और हाँ… सबसे ज़रूरी, हमेशा पढ़ना और पढ़ाते रहना…’
उनके सपनो में आने वाली रुकावटों के बारे में सवाल पूछने पर वो खामोश हो गईं. फिर गहरी सांस लेकर बोलने लगी, ‘मुझे हैरत होती है कि किस तरह समाज एक लड़की के सपने को रौंदने में एकजुट हो जाता है. हमारी खुद की ज़िन्दगी हमें भीख में दी जाती है. बार–बार लड़कियों को यही अहसास दिलाया जाता है कि वो बहुत कुछ नहीं कर सकती है और वो कमज़ोर है. यहां तक लड़कियों को अपना हमसफ़र चुनने का भी अधिकार नहीं होता. यहां तुरंत मज़हब को सामने ला दिया जाता है, जबकि यही दोगला समाज बाक़ी चीजों में मज़हब को किसी भी तरह से फ़ॉलो नहीं करता. बस ज़बरदस्ती लड़कियों पर घर वाले अपना फ़ैसला थोप देते हैं. वैसे सच्चाई यह है कि लड़कियों की क़ाबिलियत को पहचानने वालों की तादाद बहुत कम है.’ इतना बोलकर अफ़शां खामोश हो जाती हैं. वो काफी मायूस नज़र आती है.
आप लड़कियों को क्या सन्देश देना चाहेंगी? इसके जवाब में अफ़शां कहती हैं कि ‘पहले मेरा यही मानना था कि औरतों को मर्दों के साथ की ज़रूरत है. इनके साथ ही बदलाव मुमकिन है. लेकिन अब मेरी सोच बदल चुकी है. किसी का साथ मिलेगा या नहीं इस बात का इंतज़ार मत करो, बस एक बार खुद ठान लो और बदलाव तुम्हीं से आएगा.’
अपनी क़ौम के लिए अफ़शां ये सन्देश देती हैं कि हमारे दुश्मन दूसरी क़ौम के लोग नहीं, बल्कि हम खुद हैं. मुसलमान औरतों के लिए दूसरों को ज़रूरत क्यों पड़ रही है, आगे आने की या हम पर सवाल उठाने की? इसलिए क्योंकि इस्लाम को हमने कभी प्रैक्टिस करके दिखाया ही नहीं. हमारे प्यारे नबी (सल्ल.) के औरतों के लिए सबसे बेहतरीन अख़लाक़ के बावजूद हमें सुनने को मिलता है कि इस्लाम औरतों का हक़ नहीं देता. इसके लिए हम खुद ज़िम्मेदार हैं. आज धर्म का इस्तेमाल लोग खुद के फ़ायदे के लिए करते हैं, उसी बात को कोट करते हैं जो उनके तर्क को सही साबित करे.
वो बताती हैं कि एक लड़की कई बार खुद को बेबस महसूस करती है क्योंकि उसको अकेले छोड़ दिया जाता है या साथ मिलता भी है तो तानों के साथ. कई बार वो महसूस करती हैं कि एक दलदल में फंसी हैं और बहुत हिम्मत और ताक़त के बावजूद वो उस दलदल में धंसी जा रही हैं क्योंकि वो अकेले दलदल से बाहर आ नहीं पा रही हैं.
उस दौर में जब युवाओं के लिए शिक्षा सिर्फ़ करियर हो चुका है. अफ़शां की ये कोशिशें अपने आप में इंसानियत का परचम बुलंद करती हैं. अफ़शां जैसी लड़कियां देश और समाज की अमूल्य धरोहर हैं. ज़रूरत इनके हौसला अफ़ज़ाई करते रहने की है.