अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
उत्तर प्रदेश चुनाव साम्प्रदायिक राजनीति की नई प्रयोगशाला बनकर उभरा है. पश्चिम से लेकर पूरब तक बतौर पत्रकार मैंने अपने चुनावी कवरेज में पाया कि यूपी का ये पूरा चुनाव मुस्लिम बनाम हिन्दू ही लड़ा गया. सेकुलर पार्टियों ने भी अपने जातिगत वोटों से ज़्यादा मुस्लिम वोटों को तवज्जो दी. इस चक्कर में ये पार्टियां भूल गयीं कि उनका जातिगत वोट भी अब साम्प्रदायिक खेमे में जा रहा है. सेकुलर पार्टियां इस फेर में पड़ी रहीं कि उनका जातिगत वोट तो उनके पास है ही. लेकिन उनके इस यक़ीन का स्पष्ट फ़ायदा भाजपा गठबंधन को मिला है.
भाजपा गठबंधन पर आप चौंकिए मत. भाजपा ये चुनाव चार छोटी पार्टियों के साथ मिलकर लड़ रही थी. इन छोटी पार्टियों का जातिगत वोट बैंक का लाभ भी इस चुनाव में भाजपा को मिला है.
इस बार के चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की चार छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया था और गठबंधन की ये चार पार्टियां 22 सीटों पर चुनाव लड़ रही थीं. जिन चार पार्टियों से भाजपा का गठबंधन हुआ है, उनमें केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल का अपना दल, ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, आर.के. चौधरी की राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी और कन्हैयालाल निषाद की राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी का नाम शामिल है. अपना दल 12 सीटों, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी 8 सीटों, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी एक सीट और राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी एक सीट पर चुनाव लड़ी हैं. बाकी सीटों पर इन पार्टिय़ों ने अपना वोट भाजपा को ही ट्रांसफ़र कराया है.
बिहार की तरह यूपी में महागठबंधन न हो पाने के चलते भाजपा ने सारे समीकरणों को जमकर भुनाया. पूरे चुनाव को साम्प्रदायिक रंग दिया. हमने देखा कि कैसे यूपी को भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने साम्प्रदायिक उन्माद के गढ़ के तौर पर तैयार किया हुआ था. यहां रोज़ उकसाने व भड़काने वाले सामान चुनाव प्रचार की गंगा में बहाए जा रहे थे.
राम मंदिर के बहाने भी वोटरों को एकजुट किया गया. चुनाव के तीसरे चरण के ठीक एक दिन पहले केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने राम मंदिर मुद्दा उठाते हुए कहा कि राम मंदिर अयोध्या में ही बनेगा. वहीं राज्यसभा सांसद विनय कटियार ने चौथे चरण की वोटिंग से ठीक पहले कहा कि भाजपा के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है इसी वजह से किसी क़ानून के ज़रिए राम मंदिर बनाने की राह मुश्किल हो रही है. राज्यसभा में बहुमत आने के बाद क़ानून प्रक्रिया के तहत राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा.
इसके पहले पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने 25 जनवरी को बयान दिया था कि राम मंदिर आस्था का सवाल है. मंदिर का निर्माण चुनावों के बाद किया जाएगा. इस मामले को लेकर कांग्रेस के लीगल सेल ने चुनाव आयोग में शिकायत भी की थी. इस शिकायत के बाद चुनाव आयोग ने जांच बिठाई है, अब देखना दिलचस्प होगा कि इस जांच की रिपोर्ट कब आती है और मौर्या के ख़िलाफ़ क्या एक्शन लिया जाता है.
उत्तर प्रदेश के कई गांवों में हमने गुजरात के नंबर प्लेट वाली बेशुमार गाड़िया देखीं. इन गांव में हमें ऐसे बेशुमार लोग मिले, जो बता रहे थे कि अखिलेश यादव सिर्फ़ मुसलमानों के नेता हैं. उन्हें हिन्दुओं की कोई फ़िक्र नहीं है. उनके बाप मुलायम यादव ने अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलवाई थी, जिसका ज़िक्र वो आज भी खुले मंचों से कर रहे हैं.
इन गांवों में हमने पाया कि दलित वोटर भी अब मायावती को मुसलमानों के नेता के रूप में देखने लगे थे. कई गांवों में दलितों का स्पष्ट रूप से कहना था कि बहन जी को भी अब ‘पाकिस्तानी’ अधिक पंसद आने लगे हैं. पाकिस्तानी से इनका मतलब मुसलमानों से था.
गांव के ये लोग तर्कों के साथ अपनी बात रख रहे थे और बता रहे थे कि कैसे बहन जी मुसलमानों से घिरी हुई हैं? कैसे नसीमुद्दीन को मायावती बढ़ावा दे रही हैं? कैसे इमाम बुखारी मायावती के साथ है? सारे मुल्ला-मौलानाओं ने उन्हें अपने बस में कर लिया है. हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाला मुख्तार अंसारी अब बहन जी के साथ है.
गांवों में रहने वाले इन गरीब परिवारों के घर में शायद ही किसी के यहां टीवी हो, या समाचार पत्र आता हो. ये पूछने पर कि आपको ये सब बातें कैसे मालूम हुई? तो गांव के ये मासूम लोग बताते थे कि गांव में मीटिंग हुई थी या फलां प्रधान ने हमें ये सब बातें बताई हैं. वीडियो दिखाया है.
फ़ैज़ाबाद के एक गांव में 24 साल के राजू ने बताया था, ‘अब तक हम हाथी को वोट देते आए हैं, लेकिन अब मोदी पसंद हैं.’ ये पूछने पर कि क्यों? इस पर उनका जवाब था, ‘सिर्फ़ मोदी ही मुसलमानों को सबक़ सिखा सकते हैं. नोटबंदी करके उन्होंने आतंकवादियों व मुसलमानों की कमर तोड़ दी.’ कैसे? इस पर राजू का कहना था, ‘आतंकवादियों के पास जो नोट था, वो सब बर्बाद हो गया. और मुसलमानों को भी सारे नोट घर में जलाने पड़े, क्योंकि वो पैसे बैंक में नहीं रखते हैं. सब बाहर का पैसा होता है इसलिए.’ ये सब बातें आपको कैसे मालूम हुई? उसका कहना था, ‘मेरा एक दोस्त वाट्सऐप पर दिखा रहा था.’
गोसाईगंज के मुमारिज नगर में 38 साल के सामाजिक कार्यकर्ता उमेश मिश्रा ने बताया था, ‘इस बार गांव के अनुसूचित जाति के लोग भी भाजपा को ही वोट देंगे.’ वो आगे बताते हैं, ‘हर सवर्ण जाति के लोगों को कहा गया है कि वो कम से कम पांच निचली जातियों का वोट जैसे भी हो, भाजपा में डलवाए.’ इसकी संभावना पर पूछने पर वे कहते हैं, ‘निचली जाति की भले ही ये औक़ात नहीं है कि ब्राह्मणों के वोटों को प्रभावित कर सके, लेकिन सवर्ण की बात इनको माननी ही पड़ेगी. वैसे भी ये अपना वोट बेच डालते हैं.’
गांव के इन लोगों का कहना था कि इस बार प्रदेश में भाजपा की सरकार बन रही है और सरकार बनते ही राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू कर दिया जाएगा. यही बात अयोध्या शहर में भी कई लोग कहते हुए मिलें.
बताते चलें कि अधिकतर गांवों में किसी भी पार्टी का प्रचार-प्रसार लगभग न के बराबर था, लेकिन भाजपा की पहुंच यहां हर जगह दिखाई देती थी. इनके प्रचार वाहन खेत-खलिहानों में भी नज़र आते थे. दीवारों पर भी जगह-जगह ‘न उत्पीड़न, न अत्याचार, अबकी बार भाजपा सरकार’ लिखा हुआ मिल जाता था.
यही नहीं, अखिलेश की सरकार को मुसलमानों की सरकार बताते हुए हिन्दुओं के साथ भेदभाव की बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद इनके छोटे नेता भी खुलेआम मंचों से कर रहे थे. ये अलग बात है कि दिवाली व रमज़ान पर दी जाने वाली बिजली और श्मशान व क़ब्रिस्तान से जुड़े सही तथ्य सामने आ चुके थे, लेकिन यह पार्टी इस बात को समझना नहीं चाह रही थी. योगी आदित्यनाथ भी हर सभा में हिन्दुओं पर होने वाले ‘ज़ुल्म’ की दास्तान सुनाने में व्यस्त रहे. स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल होते ही विनय कटियार ने भी राम मंदिर का मुद्दा छेड़ दिया था. लोगों को बताया जा रहा है कि जिस तरह से मस्जिद गिराई गयी थी, ठीक वैसे ही मंदिर भी बनाया जाएगा. ये बात सिर्फ़ नेताओं तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसे गांव-गांव तक फैला दिया गया था.
नरेन्द्र मोदी द्वारा सार्वजनिक मंच से किए गए श्मशान-क़ब्रिस्तान, दिवाली-रमज़ान के ज़िक्र को भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए खुले सिग्नल के तौर पर देखा जा रहा था. सिग्नल इस बात का कि सम्प्रदायवादी राजनीति के तहत वोटों की एक मज़बूत इमारत तैयार की जाए. अब ये इमारत पूरी तरह बनकर तैयार हो गई है.
गलतियां कथित सेकुलर जमात ने भी की हैं. पूरे उत्तर प्रदेश में कुल 22 सीटें ऐसी थी जहां पर सपा-कांग्रेस गठबंधन के बावजूद दोनों ही पार्टियां आमने-सामने खड़ी नज़र आईं. इन 22 सीटों पर दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवार एक दूसरे को चुनौती देते दिखे. आलम ये है कि इनमें से पांच-पांच उम्मीदवारों को दोनों ही पार्टियों ने वापस लेने का नोटिस भी जारी किया था, मगर हक़ीक़त में दो-चार सीटों को छोड़कर मैदान में डटे रहे. रायबरेली की सरेनी विधानसभा सीट का दौरा करने पर मालूम चला कि यहां नारे भी अलग थे और राजनीतिक परिभाषाएं भी. ‘यूपी को साथ पसंद है, लेकिन सरेनी को हाथ पसंद है.’ तो वहीं ‘वोट नहीं रसगुल्ला है, साईकिल खुल्लम-खुल्ला है.’ का नारा भी फ़िज़ाओं में गूंज रहा था. हमने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर यह लिखा था कि ‘कहीं यहां सपा-कांग्रेस की जंग में कमल न खिल उठे!‘ और हुआ भी यही. सरेनी की सीट अब भाजपा के खाते में है.
चाचा भतीजे की जंग ने भी कई जगह सपा को नुक़सान पहुंचाया. कई जगह देखा गया कि शिवपाल के समर्थक रहे विधायकों का टिकट काटा गया और उन विधायकों ने खुले तौर पर अपने समर्थकों को संदेश दिया कि वो अपना वोट सपा को देने के बजाए किसी और को ट्रांसफर कर दें.
दरअसल, इस चुनाव की ख़ास बात ये रही कि ओबीसी व दलितों का एक बड़ा तबक़ा जातिय आधार से उठकर भाजपा की राजनीति में खो गया. यानी जो प्रयोग भाजपा ने 2014 लोकसभा चुनाव में किया था, वो यहां सफल होता नज़र आ रहा है. ऐसे में इस प्रयोग का कामयाबी की तरफ़ बढ़ना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक ख़़तरनाक संकेत है.
यूपी के इस चुनाव को 2019 का सेमीफाइनल माना जा रहा है. चुनावी पंडितों के मुताबिक़ इस जीत-हार का मतलब साफ़ है कि 2019 में अगली सरकार की दशा और दिशा दोनों ही यूपी तय करेगा. ऐसे में भाजपा की बढ़त और सेकुलर वोटों का बिखराव एक चिंताजनक तस्वीर पेश करता है. 2019 के लिए आगे की रणनीति के मद्देनज़र तमाम तथाकथित सेकुलर दलों को इस बारे में एक आम राय क़ायम करनी ही होगी.