जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए
गुजरात में चुनावी बिगुल बज चुका है. इसी के साथ ही यहां की हवा बदली हुई नज़र आ रही है. अमित शाह और मोदी का अश्वमेघ रथ अपने ही गढ़ में ठिठका हुआ है.
गुजरात बीजेपी की शीर्ष जोड़ी का गढ़ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के “विकास मॉडल” को ही पेश करके दिल्ली की सत्ता तक पहुंचे थे. लेकिन अब विकास के इस “मॉडल” की हवा उतरी हुई नज़र आ रही है.
जनता अधीर होती है और सोशल मीडिया के इस दौर ने इस अधीरता को और बढ़ाया है. लोगों को मोदी सरकार से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन तमाम दावों और प्रचार-प्रसार के बावजूद ज़मीन पर हालत बदतर ही हुए हैं. मोदी सरकार पूरे समय अभियान मोड में ही रही और उनका पूरा ध्यान चुनावी और हिन्दुतत्व विचारधारा के विस्तार पर ही रहा.
इस दौरान 2014 में किए गए वायदों पर शायद ही ध्यान दिया गया हो. नतीजे के तौर पर आज तीन साल बीत जाने के बाद मोदी सरकार के पास दिखाने के लिए कुछ ख़ास नहीं है और अब निराशा के बादल उमड़ने लगे हैं. अच्छे दिनों के सपने अब ज़मीनी सच्चाईयों का मुक़ाबला नहीं कर पा रहे हैं.
हालांकि नरेन्द्र मोदी का जादू अभी भी काफ़ी हद तक बरक़रार है, लेकिन हवा नार्मल हो चुकी है. पहले जिस मोदी की आंधी के सामने विपक्ष टिक नहीं पा रहा था, अब हालात नाटकीय रूप से बदल चुका है. सत्ता गंवाने के बाद पहली बार कांग्रेस खुद को एक मज़बूत विपक्ष के रूप में पेश करने की कोशिश करती हुई नज़र आ रही है.
परिस्थितियां भी कुछ ऐसी बनी हैं, जिसने मोदी सरकार बैकफुट पर आने को मजबूर किया है. कुछ महीनों पहले तक हताश नज़र आ रही कांग्रेस अब धीरे-धीरे एजेंडा सेट करने की स्थिति में आने लगी है.
पहली बार विपक्ष मोदी सरकार को रोज़गार, मंदी और जीएसटी की विफलता जैसे वास्तविक मुद्दों पर घेरने की कोशिश करते हुए कामयाब नज़र आ रहा है. राहुल गांधी संकेत देने लगे हैं कि उनका सीखने का लम्बा दौर अब समाप्ति की ओर है.
अमित शाह के बेटे पर लगे आरोप से पार्टी और सरकार दोनों को बैकफूट पर आना पड़ा है. सोशल मीडिया पर खेल एकतरफ़ा नहीं बचा है. कोरी लफ्फ़ाज़ी, जुमलेबाजी बढ़-चढ़ कर बोलने और हवाई सपने दिखाने की तरकीबें अब खुद पर ही भारी पड़ने लगी हैं.
दरअसल, अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता और उस पर रोमांचकारी प्रयोगों ने विपक्ष को संभालने का मौक़ा दे दिया है. भारत की चमकदार इकॉनामी आज पूरी तरह से लड़खड़ाई हुई दिखाई दे रही है. बेहद ख़राब तरीक़े से लागू किए गए नोटबंदी और जीएसटी ने इसकी कमर तोड़ दी है. इस दौरान विकास दर लगातार नीचे गया है. बेरोज़गारी बढ़ रही है. बाज़ार सूने पड़े हैं और कारोबारी तबक़ा हतप्रभ है. ऐसा महसूस होता है कि यह सरकार आर्थिक मोर्च पर स्थितियों को नियंत्रित करने में सक्षम ही नहीं है.
दूसरी तरफ़ अमित शाह के बेटे जय शाह के अचानक विवादों में आ जाने के कारण मोदी सरकार के भ्रष्टाचार से लड़ने के दावों पर गंभीर सवाल खड़ा हुआ है. इधर गुजरात में ख़रीद-फ़रोख्त के आरोपों ने भी इन दावों का हवा निकालने का काम किया है.
मज़बूत और एकजुट विपक्ष की गैर-हाज़िरी मोदी सरकार के लिए वरदान साबित हुई है. प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस एक के बाद एक झटके के सदमे और सुस्ती से बाहर ही नहीं निकल सकी. नीतीश कुमार के महागठबंधन का साथ छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के फैसले ने रही-सही उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. लेकिन इधर परिस्थितियों ने ही विपक्ष विशेषकर कांग्रेस को सर उठाने का मौक़ा दे दिया है.
इस दौरान ये दो घटनाएं भी कांग्रेस के लिए टर्निंग पॉइन्ट साबित हुई हैं. पहला पंजाब विधानसभा चुनाव में “आप” के गुब्बारे का फूटना और दूसरा नीतीश कुमार का भगवा खेमे में चले जाना.
पंजाब में ‘आप’ की विफलता से राष्ट्रीय स्तर पर उसके कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने की सम्भावना क्षीण हुई है, जबकि नीतीश कुमार को 2019 में नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष का चेहरा माना जा रहा था, लेकिन उनके पाला बदल लेने से अब 2019 में चाहे अनचाहे राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी और विपक्ष को नरेंद्र मोदी का सामना करना है.
यह कहना तो बहुत जल्दबाज़ी होगा कि बाज़ी पलट चुकी है, लेकिन सतह पर बेचैनी ज़रूर है. हवा का रुख कुछ बदला सा लग रहा है. सत्ता के शीर्ष पर बैठी तिकड़ी के चेहरे पर हताशा की बूंदें दिखाई पड़ने लगी हैं. मोदी तिलस्म की चमक फीकी पड़ी है. लहर थम चुकी है. अगर टूटती उम्मीदों, चिंताओं और निराशाओं को सही तरीक़े से दूर नहीं किया गया तो आने वाले समय में इसका राजनीतिक नुक़सान उठाना पड़ सकता है.
आज की तारीख़ में कोई सियासी नजूमी भी यह पेशनगोई करने का ख़तरा मोल नहीं ले सकता कि 2019 में ऊंट किस करवट बैठेगा. ज़िन्दगी की तरह सियासत में भी हालत बदलते देर नहीं लगती. 2013 से पहले कोई नहीं कह सकता था कि नरेंद्र मोदी भाजपा के केन्द्र में आ जाएंगे. राहुल गाँधी के बारे में भी यह ज़रूरी नहीं की वे हर बार असफ़ल ही हों और कभी–कभी दूसरी की नाकामियां भी तो आपको कामयाब बना सकती हैं.
बहरहाल, इस साल के बाक़ी बचे महीनों में दो राज्यों में चुनाव होने हैं और उसके बाद 2018 में चार राज्यों में चुनाव होंगे. ऐसे में अगर अपनी फ़ितरत के हिसाब से मोदी सरकार का बाक़ी समय भी चुनाव लड़ने में ही बीत गया तो फिर 2014 और उसके बाद लगातार किए गए वायदों का क्या होगा?