भारत में अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के 25 साल

जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए


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20 नवम्बर 1989 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा द्वारा ‘बाल अधिकार समझौते’ को पारित किया था. जिसके बाद से हर वर्ष 20 नवम्बर को अंतरराष्ट्रीय बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. जिसे हम ने भी हर साल की तरह इस साल भी सेलिब्रेट किया है.

बाल अधिकार संधि ऐसा पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जो सभी बच्चों के नागरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों को मान्यता देता है. इस समझौते पर विश्व की अधिकतर सरकारों ने हस्ताक्षर करते हुए अपने देश में सभी बच्चों को जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, संपति, योग्यता आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के संरक्षण देने का वचन दिया है.

भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ बाल अधिकार संधि को 1992 में हस्ताक्षर कर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है.

इसमें कोई शक नहीं कि इस संधि ने भारत सहित दुनिया भर के लोगों में बच्चों के प्रति नज़रिये और विचारों को बदला है, लेकिन स्थिति अभी भी चिंताजनक बनी हुई है. पिछले 25 वर्षों में मानवता आगे बढ़ी है और इसने कई ऊचाईयां तय किए हैं, परंतु अभी भी हम ऐसी दुनिया नहीं बना पाए हैं जो बच्चों के हित में और उनके लिए सुरक्षित हो.

भारत द्वारा बाल अधिकार समझौते को अंगीकार किये जाने के इस साल 25 साल पूरे हो रहे हैं, लेकिन 25 साल बीत जाने के बावजूद आज भी हमारे देश में समाज और सरकारों का बच्चों के प्रति नज़रिया उदासीन बना हुआ है. राज्य की तरफ़ से तो फिर भी बच्चों के पक्ष में सकारात्मक पहल किये गये हैं, लेकिन एक समाज के रूप में हम अभी भी बच्चों और उनके अधिकारों को लेकर ग़ैर-ज़िम्मेदार और असंवेदनशील बने हुए हैं.

पिछले कुछ वर्षों में भारत ने कुछ क्षेत्रों में अभूतपूर्व तरक़्क़ी की हैं, लेकिन बाल अधिकारों को लेकर विभिन्न इंडिकेटर इस उजले तस्वीर में काले दाग़ की तरह हैं. हमारा मुल्क अभी भी भ्रुण हत्या, बाल व्यापार, यौन दुर्व्यवहार, लिंग अनुपात, बाल विवाह, बाल श्रम, स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण, मलेरिया, खसरा और निमोनिया जैसी बीमारियों से मरने वाले बच्चों के हिसाब से दुनिया के कुछ सबसे बदतर देशों में शामिल है. हम एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपने बच्चों को हिंसा, भेदभाव, उपेक्षा शोषण और तिरस्कार से निजात दिलाने में विफल साबित हुए हैं.

हालांकि यू.एन.सी.आर.सी. को स्वीकार करने के बाद भारत ने अपने क़ानूनों में काफ़ी फ़ेरबदल किया है. बच्चों को ध्यान में रखते हुए कई नए क़ानून, नीतियां और योजनाएं बनाई गई हैं. इसकी वजह से बच्चों से सम्बंधित कई सूचकांकों में पहले के मुक़ाबले सुधार देखने में आया है. लेकिन इन सबके बावजूद भारत को अभी भी संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार संधि के तहत किए गए वादों को पूरा करने के लिए लम्बा सफ़र तय करना बाक़ी है.

इस सफ़र में कई क़ानूनी, प्रशासनिक एवं वित्तिय बाधाएं हैं, जिन्हें दूर करना होगा. और सबसे ज़रूरी एक राष्ट्र के रुप में हमें बच्चों को अधिकार देने के लिए ओर अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण एवं माहौल बनाने की ज़रुरत है.

“अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौताबच्चों के चार मूल सिद्धांतों पर आधारित हैं, जिसमें जीने का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास और सहभागिता का अधिकार शामिल है. आमतौर पर पहले तीनों अधिकारों की महत्ता समाज में स्थापित हो गई है, लेकिन अभी यह सोच नहीं बन पाई है कि बच्चों का भी अपना स्वतन्त्र विचार और नज़रिया हो सकता है, जिसे जगह और सम्मान मिलना चाहिए. बच्चों को लेकर हम बड़ों के बीच यह नज़रिया हावी है कि वे खुद से सोचने, समझने, निर्णय लेने और किसी बात पर अपने विचार व्यक्त करने में सक्षम नहीं होते.

हम उन्हें देश का भविष्य मानते हैं, लेकिन वे वर्तमान भी तो हैं. माना कि वर्तमान में भले ही वे वोटर ना हों लेकिन वे भविष्य के नागरिक नहीं हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 0 से 18 आयु समूह के 472 मिलियन बच्चे हैं जो कि भारत के वर्तमान बाशिंदे हैं और उनको इसे नज़रिये से देखने की ज़रूरत है.

  

राज्य की तरफ़ से इस दिशा में ज़रूर प्रयास देखने को मिले हैं, जिसमें राष्ट्रीय बाल नीति 2013” सबसे महत्वपूर्ण है. इसमें जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में ऐसा तंत्र विकसित करने की वकालत की गई है, जहां बच्चे बिना किसी डर के अपनी बात रख सकें.

इसी तरह से राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा इस सम्बन्ध में राज्यों को यह निर्देश जारी किया गया है कि वे बच्चों से संबंधित संस्थानों जैसे स्कूल, होस्टल, होम आदि में ऐसे फोरम की स्थापना सुनिश्चत करें, जहां बच्चे अपने विचारों को रख सकें. लेकिन अगर भारत जैसे देशों में जब तक बाल सहभागिता को लेकर लोगों की सोच में व्यापक रूप बदलाव नहीं होगा इस तरह के प्रयास महज़ कागज़ी क़वायद ही साबित होंगे.

दुर्भाग्य से हमारे समाज में बच्चों की सोच के लिए कोई मूल्य है. हमें यह समझना होगा कि अगर बच्चों को मौक़ा मिले तो वे खुद को अपनी पूरी स्वाभिकता और सरलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं और ऐसा करते हुये वे हम बड़ों की दुनिया को चुनौती देते भी नज़र आते हैं. उनकी मौलाकिता बहुमूल्य है, जो हमारी दूनिया को और खूबसरत बना सकती है. हम उनसे सीख सकते हैं कि कैसे अपनी स्वाभिकता को बरक़रार रखते हुए मौलिकता को साधा जाता है.

पिछले दिनों सामाजिक संस्था वि‍कास संवाद और साथी संस्‍थाओं द्वारा “बच्‍चों की आवाज़” पर आधारि‍त रि‍पोर्ट जारी की गई है, जिससे पता चलता है कि अगर बच्चों को सहज मौक़ा और मंच दिया जाए तो वे हम बड़ों को आईना दिखा सकते हैं.

यह रिपोर्ट मध्यप्रदेश के 2300 बच्चों के साथ गतिविधि आधारित सर्वेक्षण पर आधारित है, जिसमें 78 प्रतिशत बच्चों ने कहा है कि सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए. क्या यह जवाब सुनकर हमें बच्चों को अपनी तरह बनाने की कोशिश छोड़ कर खुद उनकी तरह बननी की कोशिश नहीं करनी चाहिए.

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