उमेन्द्र सागर
जांजगीर चाम्पा (छत्तीसगढ़) : जल ही जीवन है. यह कहावत तो हमने कई बार सुनी है, पर जब जल ही मुसीबत बन जाए तो क्या करें?
यह प्रश्न उन हज़ारों लोगों का है, जो जल तांडव के प्रकोप को झेलते रहते हैं. पिछले दिनों देश के कई हिस्सों में आने वाली बाढ़ नें भारी तबाही मचाई. बिहार से लेकर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को भी काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा.
ध्यान देने योग्य बात यह है कि बड़े शहर और बड़े राज्य में आने वाली प्राकृतिक आपदा के बाद राहत कार्य भी बड़े पैमाने पर हो जाता है, परंतु कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां तक राहत कार्य नहीं के बराबर पहुंचता है.
छत्तीसगढ़ के ज़िला जांजगीर चाम्पा से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव मांजरकूद की स्थिति कुछ ऐसी ही है, जहां प्रत्येक साल आने वाली बाढ़ तबाही लाती है और लोगों तक राहत भी जल्दी नहीं पहुंच पाता.
बताते चलें कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार इस गांव की कुल आबादी 753 है. 911.72 एकड़ में फैला हुआ यह गांव एक टापू की तरह है, जिसके चारों ओर महानदी अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है.
इस संबध में जब मांजरकूद गांव के कुछ लोगों से बात की गई तो 52 वर्ष के जीरालाल माली ने बताया, “हमारे गांव में बरसात के दिनों में लोगों को संघर्ष करना पड़ता है. हमारा गांव चारों ओर से महानदी से घिरा हुआ है, जिसके कारण पानी गांव की गलियों से लेकर घर के आंगन में भरने लगता है. जन जीवन में अफ़रा-तफ़री मच जाती है. घर ढहने लगते हैं. लोग इधर-उधर अपनी जान बचाने के लिए चिल्ला-चिल्लाकर भागने लगते हैं. हमें अत्यंत दुखों का सामना करना पड़ता है.
जीरालाल आगे बताते हैं कि, राहत का बचाव दल इतना सुस्त होता है कि आने में काफी समय लगाता है. हमें मजबूर होकर ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर तथा गांव के सामुदायिक भवन में अपना आशियाना बनाना पड़ता है, ताकि बचाव दल के आने तक कम से कम जीवित रह सकें.
60 वर्ष के बंटीराम माली के अनुसार, प्राकृतिक रुप से हमारे गांव की जमीन काफी उपजाऊ है, लेकिन भूमि कटाव के कारण गांव का कई एकड़ ज़मीन पानी में बह जाता है. जिसके कारण हर साल ज़मीन कम होती जा रही है और हमारी उपज में काफी गिरावट हो रही है.
वो बताते हैं कि, सरकार को सब मालूम होते हुए भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है. खेती की ज़मीन कम होने के कारण लोग अपना जीवन निर्वाह करने के लिए अन्य राज्यों में ईट-भठ्ठे में काम करने को चले जाते हैं.
40 वर्ष के छवि लाला माली ने कहा कि, हमारे गांव मांजरकूद की आधी से ज्यादा ज़मीन ग्राम पंचायत कांसा के लोगों की है, जिसे खेती के लिए उपयोग करने पर हमारे गांव वालों को फ़सल के कुल लाभ में से आधा उन्हें देना पड़ता है और आधा हम अपने पास रखते हैं. ऐसे में गांव के परिवार को पालन-पोषण में कष्ट का सामना करना पड़ता है. इसी कारण गांव की अधिकतर आबादी अपने बच्चों को दूसरे परिवार के सहारे छोड़ कर हर वर्ष ईट-भठ्ठे में काम करने के लिए चले जाते हैं.
60 वर्ष की दुधीन बाई ने बताती है, बचाव दल के कर्मचारी हमें बाढ़ में बचाने के लिए ज़रूर आते हैं, लेकिन बहुत नुक़सान होने के बाद. हमें खाना-पीना, कपड़ा तो दिया जाता है परन्तु क्षतिपूर्ति के लिए कोई मुआवज़ा आज तक नहीं मिला.
18 वर्ष की लक्ष्मी यादव कहती हैं, हमारे गांव के बाढ़ ग्रस्त होने के कारण विकास नहीं हो पा रहा है. गांव में जो थोड़े बहुत स्कूल हैं, वहां न अधिक छात्र हैं न शिक्षक. बच्चों की भी रुची पढ़ाई के प्रति ज्यादा नहीं है. मैंने जो थोड़ी बहुत पढ़ाई की है, उससे गांव के छोटे-छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदान करती हूं. भविष्य में और पढ़ लिखकर एक शिक्षिका के रूप में अपने गांव में शिक्षा देना चाहती हूं ताकि मेरा गांव एक शिक्षित और आदर्श गांव बन सके. (चरखा फीचर्स)