क्या औरत का काम सिर्फ़ घर संभालना है?

चन्द्रजीत रघुवंशी 

उत्तराखण्ड : बुनाई वाली मशीन पर जब वो तेज़ी से अपना हाथ चलाती है तो उसका आत्मविश्वास और काम के प्रति लगन देखते ही बनती है. बुनाई के काम से अब वो हर महीने 5-6 हज़ार कमा लेती है. ये कहानी है उत्तराखण्ड के जखोली ब्लॉक के गांव कपणियां में रहने वाली 8वीं पास 26 वर्षीय कुसुमा देवी की. जिन्हें खुद पर ही भरोसा नहीं था कि वो एक दिन बुनाई का काम सीख पाएंगी. लेकिन अपनी पहचान बनाने की ललक ने कुसुमा देवी को इस ओर आकर्षित किया.


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पती, सास व दो बच्चों को मिलाकर परिवार में कुल 5 सदस्य हैं. पति मुम्बई के एक होटल में खाना बनाने का काम करते हैं. आजीविका का मुख्य स्त्रोत कृषि है. कुसुमा पशुपालन का कार्य भी करती हैं. परंतु इन सबके बीच उनके अंदर जिज्ञासा जाग रही थी, परिवार तथा समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाने की. एक ऐसा काम करने की, जो उसे आत्मनिर्भर बनाए.

परिणामस्वरुप उन्होनें ‘उद्योगिनी’ नामक संस्था द्वारा आयोजित कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत 20 दिवसीय बुनाई का प्रशिक्षण लिया. पति को विश्वास नहीं था कि वह बुनाई का कार्य कर पाएगी. कारणवश पति ने बुनाई मशीन खरीदने में सहयोग नहीं किया, जिस कारण कुसुमा ने 5 हज़ार रूपये अपने पिता से लेकर बुनाई मशीन ख़रीदी और उद्यम स्थापित किया. क्योंकि उन्हें खुद पर पूरा विश्वास था.

प्रशिक्षण के दौरान कुसुमा देवी ने स्वयं एवं रिश्तेदारों के लिए स्वेटर बनाई उसके बाद उनकी कार्य कुशलता को देखते हुए आस पास के लोगों से मांग आने लगी. इससे कुसुमा देवी का आत्मविश्वास और बढ़ा और वो अधिक लगन से काम करने लगी. मेहनत का फल ये मिला कि काफी कम समय में हज़ारों रूपये कमाए और ऊन खरीदी. फिर समय के साथ काम की गति बढ़ने लगी और आय भी. 

एक दिन संस्था द्वारा विकास खण्ड स्तर पर कार्यशाला का आयोजन किया, जिसमें कुसुमा देवी को उनके अच्छे कार्य के लिए पुरस्कृत किया गया. जब इस कार्यक्रम की फोटो भतीजे ने फेसबुक पर पोस्ट की तो उसे देखकर पति को भरोसा हुआ कि उनकी पत्नी मशीन से बुनाई कर सकती है.

इस बारे में कुसुमा देवी के पति जगवीर सिंह कहते हैं, “पहले मुझे विश्वास नहीं था कि मेरी पत्नी यह काम सीख पाएगी, लेकिन वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है, यह देख कर अच्छा लगता है. वह शुरु से कुछ अलग करना चाहती थी और आज वो ऐसा करने में सफल हुई.”

कुसुमा की सास भी बहू के इस काम से खुश हैं बताती हैं, “हमारे समय में महिलाओं को घर के काम के अलावा और काम करने की आज़ादी नहीं थी, लेकिन अब समय बदल रहा है. मेरी बहू ने जिस मेहनत से आज अपना काम शुरु किया है उस पर पूरे गांव को गर्व है. बेटा तो दूर रहता है, लेकिन उसकी अनुपस्थिति में बहू जिस तरह ज़िम्मेदारी निभाती है, बेटे की कमी महसूस नहीं होती.”

गांव वाले कुसुमा के काम से खुश हैं. वो बताते हैं कि 700-800 रुपए में जिस तरह का स्वेटर कुसुमा बना कर दे देती है, बाज़ार में वह बहुत मंहगी मिलती है. इसलिए हम उसी से स्वेटर बनवाते हैं. उसकी बुनाई तो पूरे गांव वालों को पसंद है.

स्वयं कुसुमा देवी ने अपने काम के बारे क्या सोच रखा है? इस सवाल के जवाब में वो कहती हैं, “ये सच है कि सबको मेरा काम पसंद आ रहा है और काम धीरे-धीरे बढ़ रहा है. एक स्वेटर को पूरी तरह तैयार करने में 4-5 घंटे लगते हैं. काम बढ़ रहा है, इसलिए अब मेरी सहायता के लिए किसी की मदद की ज़रुरत है. कुछ महिलाएं हैं, जो इस काम को सीखना चाहती हैं. मैं उन्हें इसका प्रशिक्षण देने की सोच रही हूं. इससे उनकी भी कुछ कमाई हो जाएगी और मेरी मदद भी. काम और बढ़ा तो बाज़ार में एक दुकान खोलने की योजना है.

वो आगे कहती हैं कि, इस काम को करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि नारी सिर्फ़ घर का काम करने के लिए नहीं बनी. पति चाहे जो भी करे, हर नारी को अपनी एक अलग पहचान बनाने का प्रयास करना चाहिए. वो पहचान जिससे आने वाली पीढ़ी भी उसे जान सके.

कुसुमा देवी का ये वाक्य हर उस नारी के लिए एक संदेश है, जिनकी सीमित मानसिकता है कि नारी का कर्तव्य केवल घर संभालना है. (चरखा फीचर्स)

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